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परस्तिश से ज़्यादा नाज़-बरदारी गवाहों की

सफ़ी औरंगाबादी

परस्तिश से ज़्यादा नाज़-बरदारी गवाहों की

सफ़ी औरंगाबादी

परस्तिश से ज़्यादा नाज़-बरदारी गवाहों की

गुनहगारों की ये तौहीन तौबा है गुनाहों की

उसे देखा है जिस अंदाज़ से अल्लाह शाहिद है

बलाएँ ख़ुद मुझे लेनी पड़ीं अपनी निगाहों की

इलाही बंद मुट्ठी का भरम रख ले क़ियामत में

खुलवा दुश्मनों के सामने गठड़ी गुनाहों की

क़ियामत में सज़ा ही का रखो डर गुनह-गारो

तुम्हें ख़ुशियाँ भी उस दिन देखनी हैं बे-गुनाहों की

गुनहगारों के चेहरों पर ये कैसा ख़ून दौड़ आया

तिरे जल्वे ने सूरत ही बदल दी रूसियाहों की

इताअ'त करके दिल क़ाबू में ला अल्ला वालों का

यहाँ चलती नहीं है बादशाही बादशाहों की

मनाओ ख़ैर अपनी हो जहाँ जमघट हसीनों का

वहाँ संभलो जहाँ चलती हों तलवारें निगाहों की

मय-ओ-मा'शूक़ दे जाते हैं रँग अपना जवानी में

मिरी दानिस्त में इक उम्र होती है गुनाहों की

'सफ़ी' हमदर्द भी मेरी तरह आ'शिक़ तबीअ'त हैं

जो सूरत मुद्दई' की है वही सूरत गवाहों की

स्रोत :
  • पुस्तक : गुल्ज़ार-ए-सफ़ी (पृष्ठ 220)
  • रचनाकार : सफ़ी, औरंगाबादी
  • प्रकाशन : गोल्डेन प्रेस, हैदराबाद

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