तुझी को सोचते हर-पल तुझी से गुफ़्तुगू करते
तुझी को सोचते हर-पल तुझी से गुफ़्तुगू करते
जो इक उ'म्र और मिल जाती तिरी ही आरज़ू करते
तिरे दिल को क़रार आता है जो तश्हीर-ए-उल्फ़त से
तू अपने इ'श्क़ का चर्चा हर इक से कू-ब-कू करते
तुम्हारे इस अ'मल से दिल शिकस्ता हो गया हूँ मैं
अगर शिकवा ही करना था तो मेरे रू-ब-रू करते
तुम्हारे वास्ते दिल में अ'क़ीदत जो नहीं होती
तुम्हारे नाम का ता'वीज़ क्यूँ ज़ेब-ए-गुलू करते
हम अपनी रूह को धोते रहे अश्क-ए-नदामत से
कि उस का सामना कैसे भला हम बे-वुज़ू करते
सभी की ख़्वाहिशों का पास जब रखा गया है तू
क़बाहत क्या थी उस में जो हमें भी सुर्ख़़रु करते
मुयस्सर ही नहीं आई कभी ऐ 'शाद' तन्हाई
वगरना ख़ुद से जी भर के किसी दिन गुफ़्तुगू करते
- पुस्तक : Harf-e-Isbat (पृष्ठ 102)
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