वो शय कि लोग जिसे आफ़्ताब कहते हैं
वो शय कि लोग जिसे आफ़्ताब कहते हैं
हम उस को अपनी नज़र का शबाब कहते हैं
हर इक अदा को तिरी ला-जवाब कहते हैं
सितम को भी करम-ए-बे-हिसाब कहते हैं
हर इक शय में है आबाद हुस्न की दुनिया
हर इक ज़र्रे को हम आफ़्ताब कहते हैं
तह-ए-नक़ाब नहीं वो तजल्ली-ए-ज़ेबा
हम अपने ज़ो’फ़-ए-बसर को नक़ाब कहते हैं
उ’रूस-ए-दहर की है इक हसीन सी करवट
जहाँ वाले जिसे इंक़लाब कहते हैं
फ़रोग़ दे के उसे बहर-ए-बे-कराँ कर दो
वो ज़िंदगी जिसे हबाब कहते हैं
ये तेरी चश्म-ए-ख़ुमार-आलूद-ओ-हया-आलूद
जो मुझ से पूछो इस को शराब कहते हैं
शबाब-ए-इ’श्क़ का मेरे वो एक परतव है
वो अपने हुस्न का जिस को शबाब कहते हैं
कुछ और चाहिए मिज़्राब-ए-ज़िंदगी के लिए
उदास उदास सा है ये रबाब कहते हैं
हर इक सवाल पर उल्टा सवाल होता है
तिरे जवाब को हम ला-जवाब कहते हैं
तलाश कर ले जो कसरत में हुस्न-ए-वह्दत को
उसी निगाह को हम कामयाब कहते हैं
सुकून-ए-जिस्म हो जिस में सुकून-ए-रूह न हो
हम उस सुकूँ को इक इज़्तिराब कहते हैं
वही है राग जिसे दिल का साज़ भी गाए
रबाब-ए-दिल को हम अस्ल रबाब कहते हैं
वो अपने हुस्न पे नाज़ाँ तो अपने इ'श्क़ पे हम
हम अपने-आप को उन का जवाब कहते हैं
हर एक जुज़्व है आईना वुसअ’त-ए-कुल का
हर एक हर्फ़ को हम एक किताब कहते हैं
शुआ-ए’-हुस्न दरख़्शाँ नहीं नक़ाब से कम
वो अपने हुस्न को क्यूँ बे-नक़ाब कहते हैं
ये ज़िंदगी कि है रहमत तिरी रिफ़ाक़त में
तिरे बग़ैर हम उस को अ’ज़ाब कहते हैं
मसर्रतें भी हैं ऐ 'बर्क़' ग़म का आईना
सुकून को भी तो हम इज़्तिराब कहते हैं
- पुस्तक : तज़किरा शोरा-ए-वारसिया (पृष्ठ 154)
- प्रकाशन : फाइन बुकस प्रिंटर्स (1993)
- संस्करण : First
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