यारो मैं अगर ’इश्क़ का बीमार न होता
यारो मैं अगर ’इश्क़ का बीमार न होता
हरगिज़ वो मिरे दर पय-ए-आज़ार न होता
आ'शिक़ से अगर वस्ल का इक़रार न होता
तो हश्र तलक वा'दा-ए-दीदार न होता
गर ज़ुल्फ़ का रुख़ जानिब-ए-रुख़्सार न होता
काफ़िर से मुसलमाँ को सरोकार न होता
होती न जो आ'रिज़ से सियह ज़ुल्फ़ को साज़िश
हब्शी कोई गोरे का तरफ़-दार न होता
लट ज़ुल्फ़ की होती न अगर सहर का लटका
दिल उस के लटकने पय गिरफ़्तार न होता
रखते न बरहमन से अगर शैख़ जी रिश्ता
तस्बीह-ए-सुलैमानी में ज़ुन्नार न होता
होता न मुक़य्यद में अगर जल्वा-ए-मुतलक़
हर रँग में बे-रंग नुमूदार न होता
जाता मैं ख़ुदा जाने किधर राह भटक के
रस्ते पे अगर ख़ाना-ए-ख़ुम्मार न होता
वल्लाह 'तुराब' उस बुत-ए-रहज़न से न बचता
अल्लाह अगर उस का मदद-गार न होता
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