ज़बान ना जानने की वजह से अंगूर पर चार आदमियों का आपस में झगड़ा - दफ़्तर-ए-दोउम
रोचक तथ्य
अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब
चार आदमी चार मुल्कों के एक जगह जम्अ’ थे।किसी ने उन चारों को एक दिरम (चांदी का सिक्का) दे दिया।उनमें एक ईरानी था, एक तुर्क,एक रूमी और एक अ’रब, वो चारों उस के ख़र्च करने में झगड़ने लगे। ईरानी ने कहा कि ये झगड़ा किसी तरह तय हो। आओ इस दिरम के अंगूर ख़रीद लें, अ’रब ने कहा कि ख़ुदा की क़सम हरगिज़ नहीं, मैं अंगूर ना लूँगा। मैं तो इ’नब लूँगा। वो जो तुर्क था, उसने कहा ऐ बद-मआ'श मुझे इ’नब नहीं चाहिए मैं तो उज़म लूँगा।
रूमी (इतालवी) ने तीनों से मुख़ातिब हो कर कहा कि इन बातों को छोड़ो, हम तो इस्ताफ़ेल खाएँगे। चूँकि नामों के मा’ना से ना-वाक़िफ़ थे इसलिए आपस में लड़ने लगे और मारपीट की नौबत पहुंची क्योंकि जिहालत ग़ालिब और अ’क़्ल से ख़ाली थे। इस मौक़ा' पर अगर कोई मिलनसार, नामों का भेद जानने वाला वहाँ होता तो उनमें सुलह करा देता। वो कहता कि लाओ, मैं इसी दिरम से तुम सबकी मतलूबा चीज़ ख़रीदता हूँ। अगर तुम शक-ओ-शुबहा छोड़कर अपना दिल मुझे सौंप दो तो यही एक दिरम तुम चारों के काम आ जाए। तुम्हारा एक चार हो जाएगा और चार दुश्मनों को मिला कर एक कर देगा।
- पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 101)
- प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)
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