कहानी -8-ज़िन्दगी- गुलिस्तान-ए-सा’दी
जो कमज़ोर दुश्मन तेरे क़ब्ज़े में ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाता है और तेरा दोस्त बनना चाहता है उसका मतलब सिवा इसके और कुछ नहीं होता कि यह ताक़त पाकर ज़ियादा दुश्मनी करेगा। अ’क़्लमन्द लोगों ने कहा है कि जब दोस्त की दोस्ती पर भरोसा नहीं, तो दुश्मनों की चापलूसी से क्या मिलेगा?
जो छोटे दुश्मन को कम समझे उसकी तुलना उस मूर्ख से करनी चाहिए जो थोड़ी-सी आग को अपने सामान के पास पड़ी रहने दे। मगर तू बुझा सकता है तो आग को अभी बुझा दे। कल जब वह बढ़ जाएगी तो दुनिया को जला डालेगी।
जिस दुश्मन को तू तीर से अभी ज़ख़्मी सकता है, उसे इतना मौक़ा’ क्यों देता है कि वह अपनी कमान पर डोरी खींच ले?
दो दुश्मनों के बीच इस तरह बात करनी चाहिए कि अगर वे बा’द में दोस्ती कर लें तो तुझे शर्मिन्दगी न उठानी पड़े। दो आदमियों के बीच की लड़ाई आग की तरह है और बद-नसीब चुग़ल-ख़ोर र्इंधन डालने वाला है। दोनों लड़ने वाले तो कभी न कभी दोस्ती कर लेते हैं और साथ-साथ हंसी-ख़ुशी बैठने लगते हैं, लेकिन चुग़ल-ख़ोर शर्मिन्दा होता है और बद-नसीबी का शिकार बनता है।
दो आदमियों के बीच आग भड़काना और ख़ुद को बीच में, जला लेना अ’क़्ल की बात नहीं है। दोस्तों के साथ आहिस्ता-आहिस्ता बात कर। ऐसा न हो कि ख़ूँख़्वार दुश्मन सुन ले। दीवारों के भी कान हो सकते हैं। इसलिए दीवार के पास जो भी तू कहे, सोच-समझकर कह।
जो दुश्मनों के साथ सुल्ह कर लेता है, वह दोस्तों को सताने का इरादा रखता है। ऐ अ’क़्लमन्द! उस दोस्त की दोस्ती से हाथ धो ले, जिसका उठना-बैठना तेरे दुश्मनों के साथ हो।
जब तुझे किसी काम की चिन्ता लगी हुई हो, तो ऐसा उपाय कर कि तेरा काम बिना तकलीफ़ उठाए हो जाए।
लोगों से नम्रता से बात कर, सख़्ती न कर। जो तुझसे सलाह करना चाहता है उससे न झगड़।
जब तक रुपये-पैसे से काम निकले, जान को ख़तरे में नहीं डालना चाहिए। अ’रब वालों का कौल है कि 'तलवार केवल आख़िरी उपाय हुआ करती है। जब सब तदबीरें बे-कार हो जाएँ तो तलवार उठाना ही मुनासिब है।'
दुश्मन यदि नम्रता दिखाए तो तू उस पर रहम न कर। यदि उसे ताक़त मिल गई तो वह तुझे मु’आफ़ नहीं करेगा।
जब तू दुश्मन को कमज़ोर देखे तो शैख़ी से अपनी मूछें न मरोड़, क्योंकि हर हड्डी में गूदा होता है और हर लिबास में बहादुर आदमी छिपा हुआ हो सकता है।
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