आज इक अजनबी से निगाहें मिलीं सिर्फ़ इक लम्हा-ए-मुख़्तसर के लिए
आज इक अजनबी से निगाहें मिलीं सिर्फ़ इक लम्हा-ए-मुख़्तसर के लिए
शकील बदायूनी
MORE BYशकील बदायूनी
आज इक अजनबी से निगाहें मिलीं सिर्फ़ इक लम्हा-ए-मुख़्तसर के लिए
दिल कुछ इस तरह से मुतमइन हो गया जैसे कुछ पा लिया 'उम्र-भर के लिए
हर-क़दम कश्मकश हर-नफ़स उलझनें ज़िंदगी वक़्फ़ है दर्द-ए-सर के लिए
पहले अपने ही दरमाँ का ग़म था हमें अब दवा चाहिए चारा-गर के लिए
मैं ने बख़्शी है तारीकियों को ज़िया और ख़ुद इक तजल्ली का मुहताज हूँ
रौशनी देने वाले को भी कम से कम इक दिया चाहिए अपने घर के लिए
ऐ 'शकील' उन की महफ़िल में भी क्या मिला और कुछ बढ़ गईं दिल की बे-ताबियाँ
सब की जानिब रही वो निगाह-ए-करम हम तरसते रहे इक नज़र के लिए
- पुस्तक : सुरूद-ए-रूहानी (पृष्ठ 315)
- संस्करण : Second
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