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आप को पाता नहीं जब आप को पाता हूँ मैं

कामिल शत्तारी

आप को पाता नहीं जब आप को पाता हूँ मैं

कामिल शत्तारी

MORE BYकामिल शत्तारी

    आप को पाता नहीं जब आप को पाता हूँ मैं

    या तो खो जाता हूँ या फिर खो दिया जाता हूँ मैं

    आईन: बन कर मुक़ाबिल उस के जब आता हूँ मैं

    बंदगी में भी ख़ुदाई की झलक पाता हूँ मैं

    कुछ तड़प जाता हूँ कुछ तड़पा दिया जाता हूँ मैं

    क्या मोहब्बत जुर्म है जिस की सज़ा पाता हूँ मैं

    हद से बढ़ जाती है जब कैफ़ियत-ए-वारफ़्तगी

    हर क़दम पर इक फ़रेब-ए-आरज़ू खाता हूँ मैं

    काम बन जाते हैं इस दीवानगी में सैकड़ों

    कुछ बनाया जा रहा हूँ कुछ बना जाता हूँ मैं

    कुछ मक़ाम ऐसे भी आते हैं सुलूक-ए-इश्क़ में

    एक गुम-दर-गुम हक़ीक़त बन के रह जाता हूँ मैं

    एक धुन ऐसी भी होती है किसी की याद में

    जागता हूँ दिल से और आँखों से सो जाता हूँ मैं

    पंजः-ए-दस्त-ए-दुआ से भी ख़लासी मिल गई

    उस की मर्ज़ी जब से अपना मुद्दआ पाता हूँ मैं

    तोहमत-ए-मरकज़-गुरेज़ी से बचाया इशक ने

    उस के दर से हर जगह वाबस्तगी पाता हूँ मैं

    फ़िक्र-ए-उक़्बा कर के नाहक़ वक़्त क्यूँ ज़ाएअ' करूँ

    उस को ख़ुद ही लाज होगी जिस का कहलाता हूँ मैं

    जाने क्यूँ वो और भी कुछ दूर आते हैं नज़र

    फ़िक्र की मंज़िल में जितनी दूर भी जाता हूँ मैं

    उस की शान-ए-दस्त-गीरी से कुछ ऐसा इशक़ है

    एहतिरामन बिल-अमद भी ठोकरें खाता हूँ मैं

    लुट गई 'कामिल' जहाँ सारी मता-ए-ज़िंदगी

    क्या तमाशा है वहीं से ज़िंदगी पाता हूँ मैं

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    अब्दुल्लाह मंज़ूर नियाज़ी

    अब्दुल्लाह मंज़ूर नियाज़ी

    स्रोत :
    • पुस्तक : वारदात-ए-कामिल दीवान-ए-कामिल (पृष्ठ 121)
    • रचनाकार : कामिल शत्तारी
    • प्रकाशन : कामिल अकादमी (1962)
    • संस्करण : 4th

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