दामनों का न पता है न गरेबानों का
दामनों का न पता है न गरेबानों का
हश्र कहते हैं जिसे शहर है उ'र्यानों का
घर है अल्लाह का घर बे-सर-ओ-सामानों का
पासबानों का यहाँ काम न दरबानों का
ख़ातिर-ए-रंज-ओ-ग़म-ओ-दौर से फ़ुर्सत ही नहीं
मेज़बाँ हो के हुआ मैं उन्हीं मेहमानों का
कब किसी और की जम सकती है उस पर पटरी
तौसन-ए-नाज़ है ख़ुद-कर्दा तिरी रानों का
गोर-ए-किसरा-ओ-फ़रीदूँ पे जो पहुँचूँ पूछूँ
तुम यहाँ सोते हो क्या हाल है ऐवानों का
उन के हुक्मों की हो ता'मील कहाँ तक मुझ से
ढेर सक़्क़ों का है अम्बार है परवानों का
कौन गुल चेहरा-ए-रंगीं का नहीं दीवाना
बाग़ ग़ुंचा है तिरे चाक गरेबानों का
क़हत-ए-रोज़ी ये जहाँ में है कि कहते हैं हुनूद
रमज़ाँ ख़ूब महीना है मुसलमानों का
क्या लिखें यार को नामा को नक़ाहत से यहाँ
फ़ास्ला ख़ामा-ओ-काग़ज़ में है मैदानों का
माने' बादा-कशी मुझ को हैं ना-हक़ वाइ'ज़
ख़र्च क्या होता है उन हल्क़ के दरबानों का
सब्ज़ा ख़त ने घटा दी तिरे आ'रिज़ की बहार
था जो लाले का चमन खेत है अब धानों का
हश्र में क़ुफ़्ल भी रिज़वाँ ने न खोला था अभी
जा पड़ा ख़ुल्द में डाका मिरे अरमानों का
मौजें दरिया में जो उठती हुई देखीं समझा
ये भी मजमा' है तिरे चाक-गरेबानों का
सुनने वालों के न किस तरह फँसें ताइर-ए-दिल
दाम सय्याद का लच्छा है तिरी तानों का
अ'र्सा-ए-हस्ती-ओ-तूल-ए-शब-ए-गोर-ओ-मह्शर
बो'द है बंदा-ओ-रब में अभी मैदानों का
तीर पर तीर लगाता है कमाँदार-ए-फ़लक
ख़ाना-ए-दिल में हुजूम आज है मेहमानों का
दर-ए-जानाँ से निकल कर मैं फँसा ज़िंदाँ में
गर्द हल्क़ा पै इनआ'म है दरबानों का
इ'श्क़-ए-रुख़्सार में इक़बाल-ए-सिकंदर पाया
आईना दस्त नगर है तिरे हैरानों का
लाल मूबाफ़ सनम गेसू-ए-शब-गूँ में न डाल
ख़ून हो जाएगा दो चार मुसलमानों का
तोड़ कर बाल-ओ-पर उस के जो बनाया है चँवर
है हवा ख़्वाह हुमा तेरे मगस-रानों का
बिस्मिलों की दम-ए-रुख़्सत है मुदारात ज़रूर
ज़ोहरा पानी हुआ जाता है नमक-दानों का
आदमी ग़ैरों के इग़वा ने न रखा उन को
खेल सारा है बिगाड़ा उन्हीं शैतानों का
बे-ख़ुदी आठ पहर गुम ये मुझे रखती है
दिन को शब रात को हूँ ख़्वाब निगहबानों का
मेरे आ'ज़ा ने फँसाया है मुझे इ'स्याँ में
शिक्वा आँखों का करूँ या मैं गिला कानों का
क़दर-दाँ चाहिए दीवान हमारा है 'अमीर'
मुंतख़ब 'मुसहफ़ी'-ओ-'मीर' के दीवानों का
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