इकट्ठे हो के हुस्न-ओ-'इश्क़ मेरे दिल में रहते हैं
इकट्ठे हो के हुस्न-ओ-'इश्क़ मेरे दिल में रहते हैं
इम्दाद अ'ली उ'ल्वी
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इकट्ठे हो के हुस्न-ओ-'इश्क़ मेरे दिल में रहते हैं
यहाँ लैला-ओ-मजनूँ एक ही महमिल में रहते हैं
किया है क़त्ल तो हम को कहाँ जाते हो देखेंगे
कि क़ातिल बा'द कुश्तन दीदा-ए-बिस्मिल में रहते हैं
समा सकते न थे वो जो ज़मीन-ओ-आसमाँ में भी
ये सिमटे हैं हमारी आँख के जो तिल में रहते हैं
मकाँ से भी उल्फ़त है अगरचे ला-मकाँ हैं वो
पता देते नहीं अपना ये आब-ओ-गिल में रहते हैं
निकल कर जा नहीं सकते कहीं ख़ुर्शीद से ज़र्रे
जो सिमटे शम्स में रहते हैं फैले ज़िल में रहते हैं
हयात-ए-'इश्क़ का मुझ से ठिकाना पूछते क्या हो
वो कर ख़्वार-ओ-रुसवा ज़ालिम-ओ-जाहिल में रहते हैं
वुजूद हुस्न-ए-मु'अल्लक़ से तही-दस्ती नहीं मुम्किन
कभी दस्त-ए-सख़ा में गह यद-ए-साइल में रहते हैं
वो अपने देखने वालों की आँखों में समाय हैं
कि अपना घर बना कर दीदा-ए-मशाग़िल में रहते हैं
नहीं हैं दूर हम इक आन 'उल्वी' अपने मिर्ज़ा से
अगरचे ख़ुद हैं नाक़िस पहलु-ए-कामिल में रहते हैं
- पुस्तक : ख़ुमख़ाना-ए-अज़्ली (पृष्ठ 68)
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