इस तरफ़ भी करम ऐ रश्क-ए-मसीहा करना
इस तरफ़ भी करम ऐ रश्क-ए-मसीहा करना
कि तुम्हें आता है बीमार का अच्छा करना
बे-ख़ुद जल्वा से कहता है ये जल्वा उन का
लुत्फ़-ए-नज़ारा उठा होश सँभाला करना
ऐ जुनूँ क्यूँ लिए जाता है बयाबाँ में मुझे
जब तुझे आता है घर को मिरे सहरा करना
जब ब-जुज़ तेरे कोई दूसरा नहीं मौजूद
फिर समझ में नहीं आता तेरा पर्दा करना
यही वो काम हैं नाकाम मोहब्बत के लिए
कभी उन का कभी तक़दीर का शिक्वा करना
हम भी देखें तिरे आईना-ए-रुख़ को लेकिन
शाक़ है गर्द-ए-नज़र से उसे धुँदला करना
कोई जा हो दैर-ओ-हरम हो के सनम-ख़ाना हो
हम को नक़्श-ए-क़दम यार पे सज्दा करना
देख ले जा के वो दरिया पे तमाशा-ए-हबाब
जिस को मंज़ूर हो नज़ारा-ए-दुनिया करना
पर्दा-ए-हस्ती-ए-मौहूम हटा लो पहले
फिर जहाँ चाहो वहाँ यार को देखा करना
शिकवा और शिकवा-ए-महबूब इलाही तौबा
कुफ़्र है मज़हब-ए-उ'श्शाक़ में शिकवा करना
एक तुम हो कि तुम्हें बात का कुछ पास नहीं
और इक हम कि हमें मुँह से जो कहना करना
वो मेरे अश्क को दामन पे जगह देते हैं
या'नी मंज़ूर है उस क़तरे को दरिया करना
ऐसी आँखों के तसद्दुक़ मिरी आँखें 'बेदम'
कि जिन्हें आता है अग़्यार को अपना करना
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