इस क़दर आँखें मिरी महव-ए-तमाशा हो गईं
रोचक तथ्य
مرادآباد کی مشہور گائیکہ چھمنی جان نے اس غزل پر اپنی آواز دی ہے جس کی خبر ’’ارمانِ وصل‘‘ نامی گلدستہ سے ملتی ہے۔
इस क़दर आँखें मिरी महव-ए-तमाशा हो गईं
पुतलियाँ पथरा के आख़िर संग-ए-मूसा हो गईं
रू-ए-रंगीं से भी वो गेसू-ए-ख़त है दिल-फ़रेब
बूईयाँ भी इस गुलिस्ताँ की तमाशा हो गईं
बाग़ को सरसब्ज़ बारान-ए-बहारी ने किया
शाइकों के वास्ते तस्बीह ये पैदा हो गईं
सूरत-ए-काफ़ूर बोवें उस की अब उड़ती तो हैं
चश्मा-ए-ख़ुर्शीद तक पहुँचीं तो दरिया हो गईं
जिस तरफ़ सौदे में उन ज़ुल्फ़ों के मैं वहशी हुआ
उस तरफ़ से दो बलाएँ मेरे पैदा हो गईं
क़ाफ़ में भी सिक्का बैठा हुस्न-ए-आलमगीर का
'आतिश' अपने यार की परियाँ भी शैदा हो गईं
- पुस्तक : Arman-e-Wasl (पृष्ठ 3)
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