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तसव्वुर में जो फूलों का समाँ है

माहिरउल क़ादरी

तसव्वुर में जो फूलों का समाँ है

माहिरउल क़ादरी

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    तसव्वुर में जो फूलों का समाँ है

    क़फ़स की शाम सुब्ह गुलिस्ताँ है

    जिगर का ख़ून आँखों से रवाँ है

    मोहब्बत एक रंगीं दास्ताँ है

    मिरी फ़रियाद दिल की दास्ताँ है

    मिरा नाला मोहब्बत की ज़बाँ है

    तसव्वुर ऐ'श का राहत-निशाँ है

    मगर इतनी मुझे फ़ुर्सत कहाँ है

    तकल्लुम है कि मौजों की रवानी

    तबस्सुम है कि सुब्ह-ए-गुलसिताँ है

    जवानी और फिर तेरी जवानी

    तिरे सदक़े में इक दुनिया जवाँ है

    झुकी पड़ती हैं सज्दे में जबीनें

    ख़ुदा जाने ये किस का आस्ताँ है

    वो शाख़ें जिन पे मेरा आशियाँ था

    वहाँ अब बिजलियों का आशियाँ है

    बहुत से दहर में क़ातिल अदा हैं

    तुम्हीं से क्यूँ ज़माना बद-गुमाँ है

    पूछो शाम-ए-तन्हाई का आ'लम

    तुम्हारी याद भी दामन-कशाँ है

    तिरी बेदाद का शिकवा नहीं है

    मिरी फ़ितरत ही मजबूर-ए-फ़ुग़ाँ है

    ख़ुदा वो दिन लाए जो कहूँ मैं

    गुनाहों में भी अब लज़्ज़त कहाँ है

    अरे इक साग़र-ए-सहबा का आ'लम

    अभी मय-कश कहाँ था और कहाँ है

    मिरा अफ़साना-ए-पुर-दर्द 'माहिर'

    ब-’उनवान-ए-हदीस-ए-दीगराँ है

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