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हुस्न की ख़्वाबीदा महफ़िल को जगा देता हूँ मैं

माहिरउल क़ादरी

हुस्न की ख़्वाबीदा महफ़िल को जगा देता हूँ मैं

माहिरउल क़ादरी

MORE BYमाहिरउल क़ादरी

    हुस्न की ख़्वाबीदा महफ़िल को जगा देता हूँ मैं

    किस बुलंदी से ख़ुदा जाने सदा देता हूँ मैं

    दर्द-ए-दिल का नाम सुन कर मुस्कुरा देता हूँ मैं

    अपनी बर्बादी का अफ़्साना सुना देता हूँ मैं

    मा-सिवा के हर तसव्वुर को मिटा देता हूँ मैं

    आरज़ू को ख़ाक में ख़ुद ही मिला देता हूँ मैं

    अल्लाह अल्लाह मेरे दस्त-ए-शौक़ की गुस्ताख़ियाँ

    उन की बज़्म के पर्दे उठा देता हूँ मैं

    क्या ख़बर दुज़्दीदा नज़रों से वो क्या फ़रमा गए

    रोज़ एक उम्मीद की महफ़िल सजा देता हूँ मैं

    मुब्तला-ए-कश्मकश है कब से क़ल्ब-ए-ना-तवाँ

    एक चिंगारी को मुद्दत से हवा देता हूँ मैं

    रहम खाती हैं ख़ुदाई पर मिरी मायूसियाँ

    वलवले उठने नहीं पाते दबा देता हूँ मैं

    आज भी क़ाइम हूँ अपनी वज़्अ पर तेरे लिए

    अब भी तेरी राह में आँखे बिछा देता हूँ मैं

    इस तिरे रौशन तबस्सुम का फ़साना छेड़ कर

    महफ़िलों में हुस्न की शम्अ' जला देता हूँ मैं

    जब कभी होता है दिल आमादा-ए-इज़हार-ए-ग़म

    सुनने वालों के कलेजों को हिला देता हूँ मैं

    क्या ग़रज़ मुझ को किसी से मुझ को तो मतलूब है

    राह-ए-उल्फ़त से हरम को भी हटा देता हूँ मैं

    चाहता हूँ देखना जब ज़ोहद की महफ़िल का रंग

    ख़ुद को इ'स्याँ की बुलंदी से गिरा देता हूँ मैं

    मेरे ज़ौक़-ए-सरफ़रोशी को ख़ुदा पूरा करे

    नाम से कर तेग़ का गर्दन झुका देता हूँ मैं

    अब मैं उन के जोर का शिकवा भी कर सकता नहीं

    वो ये कहते हैं तुझे दाद-ए-वफ़ा देता हूँ मैं

    और कुछ मसरूफ़ नहीं 'माहिर' मिरे अशआ'र का

    दर्द से लबरेज़ इक नग़्मा सुना देता हूँ मैं

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