जो इस जहान-ए-ख़राब में दिल बुतों से अपना लगा चुके हैं
जो इस जहान-ए-ख़राब में दिल बुतों से अपना लगा चुके हैं
क़ाज़ी उम्राओ अली जमाली
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जो इस जहान-ए-ख़राब में दिल बुतों से अपना लगा चुके हैं
डरेंगे नार-ए-जहीम से क्या कि जान-ओ-तन सब जला चुके हैं
डरे गुनह से बला हमारी अज़ल के दिन से जनाब-ए-बारी
हमारे आक़ा-ए-नामवर को शफ़ीअ'-ए-महशर बना चुके हैं
तुझी को है पास बेकसों का तुझी को है शर्म मुफ़लिसों की
कि नक़्द-ए-मानूस-ओ-नंग अपना तिरी ही रह में लुटा चुके हैं
ज़मीन-ओ-कोह-ओ-मलक भी मिल कर अगर उठाएँ न उठ सकेगा
जो बार उल्फ़त का उस हसीं की हम अपने सर पर उठा चुके हैं
कोई किसी दर पे सर झुकाए जो चाहे दैर-ओ-हरम को जाए
ख़लील तेरी गली को हम तो बस अपना का'बा बना चुके हैं
बुरी बला है ग़म-ए-मोहब्बत ख़ुदा रा इस आसेब से बचाए
हज़ारों हुशियार लाखों सियाने इसी मरज़ में तो जा चुके हैं
ख़ुदा के फ़ज़्ल-ओ-करम से तेरा हुआ न अब तक तो बाल-बेका
'जमाली' तेरे हुसूद क्या क्या न तुझ पे तूफ़ाँ उठा चुके हैं
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