दलील-उल-आरिफ़ीन, मजलिस (4)
रोचक तथ्य
मल्फ़ूज़ात : ख़्वाजा मुइनुद्दिन चिश्ती जामे : क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी
रोज़ दो शम्बः सआदत-ए-क़दम-बोसी मयस्सर हुई।
इस रोज़ शेख़ शहाबुद्दीन उमर ख़्वाजः अजल शीराज़ी और शेख़ सैफ़ुद्दीन बाख़ज़री वास्ते मुलाक़ात के तशरीफ़ लाए थे। गुफ़्तगु इस बारे में हुई कि सादिक़ मुहब्बत में कौन है। आपने इरशाद फ़रमाया सादिक़ मुहब्बत में वो है कि जब बला दोस्त की जानिब से आवे उसे निहायत ख़ुशी से क़बूल करे। बाद उसके शेख़ शहाबुद्दीन उमर सुहरवर्दी ने कहा कि आलिम शौक़-ओ-इश्तियाक़ का उस पर इस तरह से ग़ालिब हो कि हज़ारहा तेग़ उसके सर पर मारें तो ख़बर न हो। इसके बाद ख़्वाजः अजल शीराज़ी ने फ़रमाया सादिक़ दोसती-ए-मौला में वो है कि अगर ज़र्रा ज़र्रा करके जलाया जावे यहाँ तक कि राख हो जावे और दम न मारे वही सादिक़ है। बाद उसके शेख़ शेख़ सैफ़ुद्दीन बाख़ज़री ने फ़रमाया सादिक़ दोसती-ए-मौला में वो है कि हमेशा उसे ख़बरें पहुँचती रहें और मुशाहिदः-ए-दोस्त में सबको भूला रहे और कोई असर उस पर पैदा ना हो। इसके बाद हज़रत ख़्वाजः बुज़ुर्ग इदामुल्लाह तक़वाह ने इरशाद फ़रमाया कि ये क़ौल आख़िरी शेख़ शेख़ सैफ़ुद्दीन बाख़ज़री का मुशाबेह ब-क़ौल-ए-दोम शेख़ शहाबुद्दीन है क्योंकि मैंने आसार-ए-औलिया में लिखा देखा है कि एक मर्तबः राबियः बसरी और हसन बसरी और मालिक बन दीनार और ख़्वाजः शफ़ीक़ बलख़ी बसरा में एक जा मुतमक्किन थे और यही ज़िक्र हो रहा था। हज़रत मालिक बन दीनार ने फ़रमाया सादिक़ दोस्ती-ए-मौला में वो है जो बला और जफ़ा दोस्त की तरफ़ से पहुँचे वो उस में राज़ी रहे। राबियः बसरी ने फ़रमाया इससे ज़्यादा और होना चाहीए तब ख़्वाजः शफ़ीक़ बलख़ी ने फ़रमाया कि दोस्ती-ए-मौला में सादिक़ वो शख़्स है अगर उसे मारें और ज़र्रा ज़र्रा कर डालें तो भी उसे ख़बर ना हो। फिर हज़रत हसन बसरी ने फ़रमाया कि सादिक़ दोसती-ए-मौला में वो है कि जब उसे दुख या दर्द पहुँचे वो इस पर सब्र करे। राबियः बसरी ने फ़रमाया ऐ ख़्वाजः इससे बू-ए-मिन्नीआती है। बाद उसके हज़रत राबियः बसरी ने फ़रमाया दोसती-ए-मौला में सादिक़ वो है जब उसे दुख या दर्द पहुँचे वो इसमें भी उसे न भूले बड़ा सादिक़ है, तब ख़्वाजः हसन ने फ़रमाया मुझे भी यही इक़रार है। और शेख़ सैफ़ुद्दीन बाख़ज़री ने कहा सुख़न मुहब्बत में यही है। उसके बाद गुफ़्तगु ख़ंदः करने के बारे में वाक़े’ हुई। आपने इरशाद फ़रमाया कि असल ख़ंदः क़हक़हा है कि एक गुनाहान-ए-कबीरः में से है और दरमियान-ए-अहल-ए-सुलूक के ख़ंदः क़हक़हा को कहते हैं। इसके बाद आपने इरशाद फ़रमाया अव्वल बाज़ी ख़ंदः और क़हक़हा है और क़ब्रिस्तान में हँसना मना आया है कि वो जगह इबरत की है न कि खेल और कूद की। पैग़म्बर-ए-ख़ुदा सलअम ने फ़रमाया है, जब आदमी का गुज़र क़ब्रिस्तान में होता है मुर्दे ज़बान-ए-हाल से कहते हैं कि ऐ ग़ाफ़िल अगर तुझे वो बात मालूम होती जो हम पर गुज़री और तुझ पर पेश आने वाली है हर आईनः-ए-गोश्त-ओ-पोस्त तेरा पिघल जाता। इसके बाद आपने इरशाद फ़रमाया कि एक वक़्त में मुल्क-ए-किरमान में शेख़ ओहदुद्दीन किरमानी के हमराह मुसाफ़िरत में था। एक बुज़ुर्ग को देखा जो बड़े साहिब-ए-नेअमत और मशग़ूल थे। मैंने ऐसा मशग़ूल किसी और को नहीं देखा। अल-ग़र्ज़ हम उनके पास गए, सलाम अर्ज़ किया। देखा तो उनके बदन में सिर्फ रूह ही बाक़ी थी। गोश्त-ओ-पोस्त बिलकुल न था। वो बातें बहुत कम करते थे। हमने इरादा किया कि उनसे दरयाफ़त-ए-हाल करें कि ऐसा हाल क्यों हुआ है। उन्होंने रौशन-ज़मीरी से हमारा इरादः दरयाफ़त किया और हमारे सवाल करने से पहले अपना हाल बयान करना शुरू किया कि ऐ दरवेश एक रोज़ मैं मा-अपने एक दोस्त के क़ब्रिस्तान में गया। मैं और वो मुत्तसिल एक क़ब्र के ठहरे। क़ज़ा-रा उस जवान से कोई बात लहव-ओ-ला’ब की सरज़द हुई, मुझे हँसी आई। ब-मुजर्रद हँसने के उस क़ब्र में से जिस पर बैठा था आवाज़ आई कि ऐ ग़ाफ़िल जिसको ऐसा सख़्त मकान दरपेश हो और जिसका हरीफ़ मलिक-उल-मौत हो और इस ख़ाक में जिसमें साँप और अज़दहे उसका घर हों उसे हँसने से क्या सरोकार। ज्यूँ ही मैंने ये बात सुनी आहिस्तः से उठा और अपने दोस्त को विदा’ किया। वो अपने घर गया, मैं इस ग़ार में आया और सुकूनत इख़्तियार की। उस रोज़ से मुझे बड़ी हैबत है और इस ख़ौफ़ से मेरी जान घुली जाती है। आज चालीस बरस हुए कि न मैं हँसा हूँ और न शर्मिंदगी से सर उठा कर आसमान देखा है, कल रोज़-ए-क़यामत होगा वहाँ क्युँकर मुँह दिखलाऊँगा। इसके बाद फ़रमाया एक बुज़ुर्ग अता सल्लमी नाम के थे। चालीस बरस उन्होंने भी आसमान न देखा था। शब-ओ-रोज़ ज़ार-ओ-क़तार रोते थे। लोगों ने सबब इस क़दर रोने का दरयाफ़त किया। आपने जवाब दिया क़ब्र और क़यामत के डर से मेरा ये हाल है। उसके बाद पूछा आसमान क्यों नहीं देखते। फ़रमाया मुझे शर्म आती है। मैंने गुनाह बहुत किए और मजालिस में क़हक़हा बहुत मारे हैं, इस सबब से आसमान नहीं देखा। उसके बाद आपने हज़रत ख़्वाजः फ़तह मूसली की हिकायत बयान फ़रमाई कि वो बड़े बुज़ुर्ग अल्लामः-ए-दह्र थे। आठ साल से इस क़दर रोते थे कि गोश्त उनके रुख़्सारों का बह गया था। जब उन्होंने इंतिक़ाल फ़रमाया लोगों ने ख़्वाब में देखा। पूछा ख़ुदा-ए-तआला ने तुम्हारे साथ क्या सुलूक किया, फ़रमाया मुझे बख़्श दिया। जिस वक़्त मुझे ऊपर अर्श के तले ले गए मैंने निहायत अदब से डरते और काँपते हुए सज्दः किया। ख़िताब हुआ ऐ फ़तह मूसली इतना क्यों रोता था, क्या मुझे ग़फ़्फ़ार न जानता था। मैंने फिर सज्दः किया और अर्ज़ किया कि ऐ बार-ए-इलाही वो कौन शख़्स है जो तुझे ग़फ़्फ़ार न जानता हो। मगर मैं ज़ग़्तः-ए-गोर-ओ-हैबत क़ब्र और सुख़न-ए-मलक-उल-मौत की वजह से रोता था कि इस तंग गढ़े में न मालूम मेरा क्या हाल होगा। इसके बाद हक़-सुब्हानहु-व-तआ’ला का फ़रमान हुआ कि जब तू इन उमूर से डरा हमने तुझे सब ख़ौफ़ के मुक़ामात से पनाह दी। उसके बाद इरशाद फ़रमाया कि बीच मुल्क-ए-सयुस्तान के हम-राही हज़रत ख़्वाजः उसमान हरोनी के मुसाफ़िरत में था। एक रोज़ हम एक सौमा’ में पहुँचे। इसमें शेख़ सदरद्दीन मुहम्मद अहमद सयुस्तानी रहते थे। हद से ज़्यादः मशग़ूल थे। मैं कई रोज़ उनकी ख़िदमत में आया जो कोई उनके सौम’ में आता महरूम न जाता। आप अंदर तशरीफ़ ले जाकर कोई शय लाकर देते और फ़रमाते कि मेरे हक़ में दुआ-ए-ख़ैर करो कि ईमान अपना ब-सलामत गोर में ले जाऊँ। अल-ग़र्ज़ वो बुज़ुर्ग-वार जब हाल सख़्ती-ए-क़ब्र व मौत का सुनते बेद के मुवाफ़िक़ काँपते और आँखों से ख़ून रवाँ होने लगता, गोया चशमः पानी का है। आपका गिर्यः देखकर सात रात-दिन बंद न होता। आप आसमान को देख देखकर रोते थे। उनके रोने से रोना आता था। जब रोने से फ़ारिग़ हुए और सुकून पकड़ा मेरी तरफ़ मुतवज्जः हुए और फ़रमाया ऐ अज़ीज़ जिसको मौत आने वाली हो और हरीफ़ उसका मानिंद-ए-मलक-उल-मौत के हो उसे सोने, हँसने, ख़ुश-दिल रहने से क्या काम। इसके बाद इरशाद फ़रमाया कि ऐ अज़ीज़ अगर तुम्हें हाल उन लोगों का जो ज़ेर-ए-ख़ाक सोए हैं और ऐसी कोठरी जिसमें साँप बिच्छू भरे हुए हैं, और वो इसमें क़ैद हैं, मालूम हो जावे तो उसके दरयाफ़त करते ही ऐसे पिघल जाओगे जिस तरह नमक पानी में घुल जाता है। इसके बाद इरशाद फ़रमाया एक वक़्त में और एक बुज़ुर्ग-ए-कामिल शहर बसरा के क़ब्रिस्तान में बैठे थे। हमारे मुत्तसिल एक मुर्दः को सख़्त अज़ाब-ए-गोर हो रहा था। उस बुज़ुर्ग ने जब ये हाल देखा ज़ोर से नारः मार कर ज़मीन पर गिर पड़े। हमने उठाना चाहा मालूम हुआ कि जान क़ालिब से परवाज़ कर गई है। फिर थोड़ी देर में बदन उनका पानी हो कर ना-पैदा हो गया। मैंने जैसा ख़ौफ़ उनमें देखा था किसी और में नहीं देखा और न सुना। इसके बाद इरशाद फ़रमाया मुझे भी उस रोज़ से सख़्त ख़ौफ़ और दहश्त दामन-गीर है। ये हिकायत तीस बरस के बाद तुम लोगों से बयान की। ऐ अज़ीज़ों दुनिया से इतना मशग़ूल मत हो कि हक़ से बाज़ रहो। जब ये फ़र्मा चुके दो ख़ुर्मः जो आपके सामने थे मुझे इनायत फ़रमाए और आप रोने लगे। जब हैबत का ग़लबः ज़्यादा हुआ हज़रत ख़्वाजः बुज़ुर्ग ने चींखें मार कर रोना शुरू किया। उसके बाद इरशाद फ़रमाया ये मुआमला निहायत सख़्त है, जो बचा! बचा उसके बाद इरशाद फ़रमाया क़ब्रिस्तान में क़सदन रोटी खाना या पानी पीना या किसी किस्म का फ़्वाकह खाना गुनाह-ए-कबीरः है। इसके बाद आपने अमर-ए-मज़कूरः के मुताबिक़ हिकायत बयान फ़रमाई कि किताब-ए-रौज़ः मुसन्निफ़ः हज़रत इमाम यहिया हसन ज़न्दोसी में लिखा है कि पैग़म्बर सलअम ने फ़रमाया है मन अकल्ला फ़ील-मक़ाबिरो तआमन औ शराबन फ़होवा मलऊना औ मुनाफ़िक़ यानी जिस शख़्स ने खाया क़ब्रिस्तान में खाना या पिया पानी वो मलऊन है या मुनाफ़िक़ है। इसके बाद हज़रत ख़्वाजः हसन बसरी की हिकायत बयान फ़रमाई कि आपने क़ब्रिस्तान में एक ताएफ़ः मुस्लमानों का देखा जो खाना खा रहे थे और पानी पी रहे थे। आप उन के नज़दीक तशरीफ़ ले गए और कहा ऐ लोगों तुम मुनाफ़िक़ हो या मुस्लमान। ये बात उन्हें गिराँ मालूम हुई, चाहा कि आपको ईज़ा पहुँचावें आपने फ़रमाया बात मैंने अपने दिल से नहीं कही। पैग़म्बर-ए-ख़ुदा-सलअम ने फ़रमाया है जो शख़्स क़ब्रिस्तान में खाना खावे या पानी पीवे वो मुनाफ़िक़ है किस वास्ते कि क़ब्रिस्तान मक़ाम-ए-हैबत-ओ-इबरत है। इस ख़ाक में कितने मिस्ल तुम्हारे और कितने तुमसे अफ़ज़ल मदफ़ून हैं। चिंटियों ने उन्हें खा लिया है उनकी ख़ूबसूरती ख़ाक में ख़ाक से यकसाँ हो गई है। ये वो लोग हैं कि हम तुम ज़िंदों ने अपने हाथ से ज़मीन में सौंपा है फिर तुम्हारा दिल क्युँकर गवारा करता है कि ऐसी जगह में खाओ पियो। आप ये फ़रमाकर ख़ामोश हो रहे। इन बातों का असर उन लोगों के दिलों पर कुछ ऐसा पड़ा कि फ़ीलफ़ौर तौबः की और गुस्ताख़ी माफ़ कराई और मुद्दतुल-उम्र अपनी तौबः पर साबित रहे। इसके बाद दूसरी हिकायत मुतज़म्मिन इसी मअनी के बयान फ़रमाई कि किताब-ए-रिययाहीन में लिखा कि एक मर्तबा पैगम्बर (PBUH) का गुज़र ऐसी क़ौम पर हुआ जो हँसी और ठट्ठा में मशग़ूल थी। पीग़म्बर (PBUH) ने तवक़्क़ुफ़ फ़रमाया और सलाम किया। वो लोग आपको देखते ही वास्ते ताज़ीम के खड़े हो गए। आपने उनसे फ़रमाया कि ऐ भाईओ! क्या तुम मौत से निडर हो गए हो। सबने मुत्तफ़िक़-उल-लफ़्ज़ हो कर बयान किया, ख़ैर या-रसूलल्लाह! मौत से कौन निडर हो सकता है। आपने फ़रमाया जो मौत से डरे उसे हँसने और क़हक़हः मारने से क्या काम। ये नसीहत रिसालत-पनाह की उन लोगों पर ऐसी कारगर हुई कि आइंदा किसी ने उनको हँसते न देखा। इसके बाद हज़रत ख़्वाजः-ए-बज़रग ने बयान फ़रमाया कि इस क़दर अम्बिया और औलिया जो दुनिया को हेच जाना उस पर लानत की, इसका सबब ये है कि हैबत-ए-गोर और ख़ौफ़-ए-मर्ग उन पर तारी था। इसके बाद इरशाद फ़रमाया तीसरा मर्तबा जिसको अहल-ए-सलूक गुनाह-ए-कबीरः तहरीर फ़रमाते हैं एक भाई मुस्लमान को एज़ा पहुँचाना है। इससे बढ़कर और कोई गुनाह नहीं। चुनाँचे क़ुरआन शरीफ़ में हक़-तआला फ़रमाता है वल्लज़ीना यऊदून-अल-मुमेनीना वल-मुमेनात बे-ग़ैरिम्मकतसबु फ़क़देहतमेलु बुहतानव व इसमम मुबीना यानी जो लोग ईज़ा देते हैं मुस्लमानों को नाहक़ पस-ए-तहक़ीक़ वो बाँधते हैं बोहतान और गुनाह बड़ा बोहतान बाँधना यानी बिला-वज्ह एज़ा-दही भाई मुस्लमान को मूजिब-ए-सख़्त नाराज़गी ख़ुदा का है। इसके बाद आपने इरशाद फ़रमाया एक बादशाह ने दरवाज़ा ज़ुल्म और तइद्दी का बंदगान-ए-ख़ुदा पर खोला था, यहाँ तक कि बिला-वज्ह हलाक करता और अज़ाब देता। मुद्दत-बाद वही बादशाह ज़ालिम मस्जिद-कंकरी वाक़ा बग़दाद के मुत्तसिल नज़र पड़ा सर के बाल बिखरे, ख़ाक उनमें पड़ी, दौलत-ओ-हशमत बिलकुल इससे बर्गशतः थी। एक शख़्स ने उसको पहचान कर पूछा क्या तू वही बादशाह है जो मक्का शरीफ़ में लोगों पर ज़ुल्म-ओ-सितम करता था। उसने शर्मिंदा हो कर कहा हाँ में वही हूँ। तुमने मुझे क्युँकर पहचाना। जवाब दिया मैंने तुझे उस वक़्त हालत-ए-दौलत-ओ-ने’मत में देखा था उस वक़्त तूने दरवाज़ा ज़ुलम-ओ-तअद्दी का लोगों पर खोल रखा था, ख़ुदा का ख़ौफ़ मुतलक़ न करता था। मलिक ने जवाब दिया बेशक में उस वक़्त बे-मूजिब बंदगान-ए-ख़ुदा को सताता था और उन पर ज़ुलम रवा रखता था। ये उसी ज़ुलम की सज़ा है। उसके बाद आपने हिकायत बयान फ़रमाई कि जिस वक़्त मैं बुग़दा में था दज्लः के किनारे एक सौमअ: में गया। इसमें एक बुज़ुर्ग मुक़ीम थे। मैंने सलाम किया। उन्होंने इशारा से जवाब दिया। बैठ जाने को इरशाद फ़रमाया। मेरे बैठ जाने पर थोड़ी देर बाद मुझसे मुख़ातब हुए और फ़रमाया मुझे पचास साल हुए कि ख़ल्क़ से तन्हाई इख़्तियार करके यहाँ बैठा हूँ, जैसे तुम मुसाफ़िरत करते फिरते हो इस तरह मैं मुसाफ़िरी करता था। असना-ए-मुसाफ़िरत में मेरा गुज़र एक शहर में हुआ। एक मालदार शख़्स को देखा बाज़ारों में खड़ा हुआ ख़ल्क़ से भाव-ताव करता था और निहायत सख़्त-गीरी अमल में लाता था और अपने ग्राहकों को बहुत तकलीफ़ देता था। मैं उस पर से गुज़रा, ख़ामोश चला गया। उसे कुछ न कहा। हातिफ़-ए-ग़ैब ने आवाज़ दी क्या हो जाता अगर तू ख़ुदा के वास्ते उस को दुनिया-ए-मुर्दार से बाज़ रखता और झिड़क देता कि ऐसा काम न कर। शायद वो तेरा कहा मान जाता और ज़ुल्म से बाज़ आ जाता। जिस रोज़ से मैंने ये आवाज़ सुनी है निहायत शर्मिंदा हूँ और उस सोमअ:’ मैं मस्कन है। कभी इससे बाहर क़दम नहीं निकाला। मुझे इस बात का बड़ा ख़ौफ़ है कि रोज़-ए-हश्र जब उस मुआमला से पूछा जावेगा तो क्या जवाब दूँगा। बस मैंने उस तारीख़ से क़सम खाई कि कहीं न जाउँगा जो मुझे कोई चीज़ नज़र पड़े और मैं उसकी गवाही में पकड़ा जाऊँ। जब शाम हुई ग़ैब से आबख़ूरः और दो जौ की रोटियाँ आईं। ये चीज़ें हमारे सामने हवा में पैदा हुईं। मैंने और उस बुज़ुर्ग ने बाहम बैठ कर इफ़तारी की। जब मैं रवानः होने लगा उस बुज़ुर्ग ने दो सेब मुसल्ले के नीचे से निकाल कर हवाला किए। मैं रवाना हो कर बग़दाद वापस आया। उसके बाद इरशाद फ़रमाया चौथा मर्तबा जिसको अहल-ए-सलूक गुनाह-ए-कबीरा तहरीर फ़रमाते हैं ये है कि जब बंदः नाम-ए-बारी-ए-तआला का सुने या कलामुल्लाह पढ़े और उसका दिल नर्म न हो और ज़्यादती ईमान की उसको हासिल न हो, ऐसा ज़रूर होना चाहीए अगर वो अयाज़न बिल्लाह लहव-ला’ब में मशग़ूल हो तो निहायत दर्जः ख़राबी की बात है। क़ुरआन-ए-मजीद में आया है इन्नमल मुमेनूनल लज़ीना इज़ा ज़ुक्किरललहो वजेलत क़ोलुबहुम व-इज़ा तुलेयत अलयहिम आयातेही ज़ादतहुम ईमानव व रब्बेहिम यतवक्कलून। इमाम ज़ाहिद ने इसकी तफ़सीर में बयान फ़रमाया है कि मुमेनीन हक़ीक़त में वो लोग हैं कि नाम-ए-ख़ुदा सुनकर उनका ईमान ज़्यादा हो जाता है, एतिक़ाद बढ़ता है और जो शख़्स क़ुरआन शरीफ़ पढ़ने में हँसता है उसे तुम तहक़ीक़ जानो कि वो मुनाफ़िक़ है। उसके बाद इरशाद फ़रमाया कि पैग़म्बर-ए-ख़ुदा-सलअ’म ने फ़रमाया कि एक रोज़ मैं एक ताएफ़ा पर गुज़रा। वो ज़िक्र ख़ुदा-ए-तआ’ला का कर रहे थे और हँसते जाते थे। उनका दिल ख़ुदा-ए-ता’ला का नाम सुनने से नर्म न होता था। मैं ठहर गया और कहा ये तीसरा गिरोह मुनाफ़िक़ों का है। उसके बाद इरशाद फ़रमाया ख़्वाजः इब्राहीम ख़व्वास ऐसी जमाअ’त पर गुज़रे जो बैठे हुए ज़िक्र ख़ुदा-ए-ताला का कर रहे थे। आपने नाम ख़ुदा का लिया। ब-मुजर्रद सुनने के ऐसा शौक़ पैदा हुआ कि सात रात-दिन तक वज्द में बेहोश रहे। वजूद की बिलकुल ख़बर न थी। जब होश आता फिर ख़ुदा का नाम मुँह पर लाते यानी ज़बान से कहते और फिर बेहोश हो जाते। सात रात-दिन यही कैफ़ीयत रही। जब होश आया तजदीद-ए-वुज़ू की। दो-गानः नमाज़ पढ़ी। सर सज्दः में रखकर या-अल्लाह कहा और फिर बेहोश हो गए और जाँ-ब-हक़ हुए। ये ज़िक्र फ़रमा कर हज़रत ख़्वाजः भी आँखों में आँसू भर लाए और ये दो बैतें पढ़ीं
आशिक़ ब-हवा-एदोस्त बेहोश बूद
वज़ याद-ए-मोहब्बत-ए-ख़वेश मदहोश बूद
फ़र्दा कि ब-हश्र ख़ल्क़ हैरान माँद
नाम-ए-तू दरान सीना-ओ-गोश बूद
इस के बाद इरशाद फ़रमाया कि ख़ानक़ाह ख़्वाजः नासिरुद्दीन अबी यूसुफ़ चिशती में कई दरवेश साहब-ए-कमाल आए हुए थे। उस ज़माना में मैं भी वहीं था। एक रोज़ मजलिस समा’ में कव्वालों ने इन ही दो बेतों को कहना शुरू किया। मुझे और उन लोगों को सुनते इस रुबाई से ऐसा असर हुआ कि सात रोज़ तक हम सब बेहोश रहे। जब क़व्वाल चाहते कि कुछ और छेड़ें, हम मना करते और यही रुबाई कहलवाते। हंगामः-ए-वज्द में दो दरवेशा उन साहब-ए-कमालों में से ज़मीन पर गिरे ,ख़िरक़ः ज़मीन पर पड़ा रहा और जिस्म उनका ग़ायब हो गया। बाद बयान फ़रमाने इन बे-बहा मोतीयों के हज़रत ख़्वाजः मशग़ूल ब-तलावत हुए। ख़ल्क़ और दुआ-गो अपने अपने मुक़ाम पर वापस गए।
अलहमदुलिल्लाह अला ज़ालिक।
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