दलील-उल-आरिफ़ीन, मज्लिस (19)
रोचक तथ्य
मल्फ़ूज़ात : ख़्वाजा मुइनुद्दिन चिश्ती जामे : क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी
दौलत-ए-क़दम-बोसी मुयस्सर हुई।
शैख़ अहद किरमानी और वाहिद बुरहान ग़ज़नवी और ख़्वाजा सुलैमान और शैख़ अबदुर्रहमान और बहुत से सुफ़िया-ए-इज़ाम हाज़िर-ए-ख़िदमत थे। गुफ़्तुगू सुलूक में वाक़े' हुई। आप ने इरशाद फ़रमाया बा'ज़ मशाएख़ ने सुलूक के सौ दर्जा रखे हैं। इस में सत्तर दर्जा तय करने के बाद मर्तबा कश्फ़-ओ-करामात का है ।जो शख़्स आप को इस दर्जा में ज़ाहिर ना करेगा वो तिरासी मर्तबा और तय कर जावेगा ।पस सालिक को लाज़िम है कि अपनी ज़ात को मर्तबा-ए-हफ़्दहुम में ना छोड़े ।पूरे सौ दर्जा हासिल करे। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया बा’ज़ों के नज़दीक सुलूक के पंद्रह दर्जा में पांचवाँ दर्जा कश्फ़-ओ-करामत का है। हमारे मशाएख़ ने वसीयत की है कि सालिक को लाज़िम नहीं कि वो अपनी ज़ात को मर्तबा-ए-पंजुम में रखे बल्कि उसे लाज़िम है कि पूरे पंद्रह दर्जा हासिल करे बा’दहु अपनी ज़ात को ज़ाहिर करे तो कुछ मुज़ायक़ा नहीं है। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया एक दफ़अ’ चंद लोगों ने मुज्तमा’ हो कर हज़रत ख़्वाजा जुनैद बग़्दादी से पूछा कि आप ख़ुदा-ए-ता’ला से कोई चीज़ तलब क्यों नहीं करते अगर तलब करें हर-आईना ख़ुदा-ए-बुज़ुर्ग आप को इनायत फ़रमावे ।आप ने जवाब दिया मैं सब चीज़ चाहता हूँ मगर एक चीज़ नहीं चाहता और वो चीज़ यह है कि हज़रत-ए-मूसा अलैहिस-सलाम ने चाहा वो उन्हें रोज़ी ना हुई और हज़रत मुहम्मद मस्तफ़ा को बुला तलब-ए-रोज़ी हुई ।बंदा को मांगने और तलब करने से क्या काम अगर वो लायक़ उस के हो गया है ख़ुदा-ए-ता’ला बे-तलब इनायत करता है, मांगने की कोई ज़रूरत नहीं। बा’द उस के गुफ़्तुगू दर-बारा-ए-इश्क़ हुई ।आप ने इरशाद फ़रमाया दिल आशिक़ का आतिश-कदा-ए-मोहब्बत है जो चीज़ इस में पड़ेगी वो जल जावेगी। किसी क़िस्म की आँच आतिश-ए-मोहब्बत से ज़्यादा तेज़ नहीं है। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया हज़रत बा-यज़ीद बुस्तामी को दर्जा-ए-क़ुर्ब हासिल हुआ ।हातिफ़ ने आवाज़ दी मांग क्या मांगता है। आज जो माँगेगा वही तुझे इनायत होगा। आप ने सर सज्दा में रखा और अ’र्ज़ किया बंदा को मांगने से क्या सरोकार जो कुछ बारगाह-ए-इलाही से इनायत हो, वही ब-सर-ओ-चश्म मंज़ूर है। आवाज़ आई ऐ बायज़ीद हम ने आख़िरत तुझे बख़्शी। हज़रत ने अ’र्ज़ किया कि आख़िरत ज़िंदान-ख़ाना-ए-दोस्ताँ है मुझे नहीं चाहिए। फिर आवाज़ आई ऐ बायज़ीद अगर तू इस पर राज़ी नहीं है हम ने बहिश्त, दोज़ख़ ,अ’र्श और कुर्सी जो कुछ हमारे यद-ए-क़ुदरत में है इनायत फ़रमाई, जवाब दिया ख़ैरुन। फिर हातिफ़ ने आवाज़ दी मक़्सूद तुम्हारा क्या है जो तुम्हें दिया जावे ।आप ने अ’र्ज़ किया ख़ुदावंदा तू जानता है जो मेरा मक़्सूद है। आवाज़ आई ऐ बायज़ीद क्या तू हम को तलब करता है। अगर हम तुझे तलब करें फिर तू क्या करे। जब ये जवाब मिला हज़रत बायज़ीद ने क़सम खाई कि मुझे तेरे इज़्ज़-ओ-जलाल की क़सम है अगर तू मुझ को तलब करे कल के रोज़-ए-क़यामत में आग-ए-दोज़ख़ के आगे खड़ा हो कर ऐसी आह करूँगा कि तमाम दोज़ख़ की आँच सर्द हो जावेगी और कुछ बाक़ी ना रहेगी क्योंकि वो आग आतिश-ए-मोहब्बत के आगे कुछ बुनियाद नहीं रखती। जूंही बायज़ीद ने ये फ़रमाया हातिफ़ ने आवाज़ दी ऐ बायज़ीद जो तेरा मक़्सद था हासिल किया। उस के बाद फ़रमाया एक शब हज़रत राबिआ’ बस्री पर आलम-ए-शौक़-ओ-इश्तियाक़ का बहुत ग़लबा हुआ। आप बे-ताब हो गईं और ज़ोर ज़ोर से आवाज़ लगाई अल-हरीक़ अल-हरीक़ । अहल-ए-बस्रा ने जब ये आवाज़ सुनी पानी मटके ले-ले कर दौड़े ताकि वो आग बुझावें ।एक बुज़ुर्ग उन के दरमयान में थे। उन्हों ने कहा क्या ना-दानी करते हो। राबिआ’ की आग आतिश-ए-दुनिया नहीं है जो पानी से सर्द हो जावे उसे आतिश-ए-इश्क़-ए-ख़ुदा है जिसने उस के दिल में क़रार पकड़ा है। इस वक़्त उसे ज़ब्त की ताक़त ना रही जो फ़रियाद अल-हरीक़ अल-हरीक़ की और ये विसाल-ए-दोस्त होने पर फ़िरो हो जाएगी। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया मंसूर हल्लाज से पूछा गया कि कमालात-ए-इश्क़ क्या है। आप ने जवाब दिया जब मा’शूक़ ज़ुल्म-ओ-सितम पर कमर कसे और आशिक़ तमाम बलाऐं सहता रहे और उस हाल में भी अपने क़ायदा-ए-क़दीम पर क़ायम हो और हमेशा रज़ाए-ए-माशूक़ चाहे और उस के मुशाहिदा में हद दर्जा मुस्तग़्रक़ हो कि अगर वो उसे खोले,बाँधे और मारे तो भी उसे ख़बर ना हो तो कहा जावेगा कि उसे कमालियत-ए-इश्क़ हासिल है। उस के बा’द हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग आँखों में आँसू भर लाए और ये शे’र पढ़ा।
ख़ूबरूयाँ चू ब-निदा बर-गीरन्द
आशिक़ान पेश शाँ चुनीं मीरन्द
उस के बा’द इरशाद फ़रमाया बग़दाद में क़ुब्बा-ए-बाज़ार पर एक आशिक़ को बाँधा और हज़ार कोड़े लगवाए। उस ने हंगाम कोड़ा मारने के अपने हाथ और पैरों को ना मारा। उस से इस का सबब दरयाफ़्त किया जवाब दिया, मैं मुशाहिदा-ए-जमाल-ए-दोस्त में मसरूफ़ था। मुझे ज़र्ब की कुछ ख़बर नहीं हुई। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया इमाम मुहम्मद ग़ज़ाली ने अपनी किसी किताब में तहरीर किया है कि एक मर्तबा एक अ’य्यार को बाज़ार-ए-बग़दाद में देखा कि उस के हाथ और पांव बाँधे और क़त्अ कर डाले और वो मुतलक़ ना रोया बल्कि हँसता रहा। एक आदमी ने दरयाफ़्त किया तुझे इस चोट का दर्द महसूस नहीं होता। ब-वक़्त-ए-तकलीफ़ हँसने का क्या काम है ।उसने जवाब दिया कि मैं उस वक़्त दीदार-ए- दोस्त में मह्व हो रहा था ।मुझे दर्द- तकलीफ़ महसूस नहीं हुआ। ख़्वाजा बुज़ुर्ग ये ब्यान फ़रमा कर रोने लगे और यह बैत ज़बान-ए-मुबारक से इरशाद फ़रमाया
ऊ दर पय-ए-क़त्ल-ओ-मन दर ऊ हैरानम
काँ रान्दन ब-तअय्युश चिह् निको मी-आयद
उस के बाद गुफ़्तुगू अहल-ए-सुलूक और आरिफ़ान-ए-इलाही के बारे में वाक़ेअ’ हुई। आप ने इरशाद फ़रमाया एक दफ़्अ’ हज़रत बायज़ीद बुस्तामी मुनाजात में मशग़ूल थे। नागाह उन की ज़बान-ए-मुबारक से ये कलिमात निकले कैफ़ अल सुलूकु इलैका ।हातिफ़ ने आवाज़ दी कि ऐ बायज़ीद तल्लिक़ नफ़्सका सलासन सुम्मा क़ुल हू अल्लाह यानी तलाक़ दे अपने नफ़्स को तीन मर्तबा और बा’द अज़ाँ मेरा ब्यान और मेरी तलब कर। उस के बाद आपने इरशाद फ़रमाया तरीक़त के राह चलने वाले को लाज़िम है कि अव्वल दुनिया को और बा’द उस के उस चीज़ को जो इस दुनिया में है सुम्मा ज़ालिक अपने नफ़्स को तलाक़ दे ,तब अहल-ए-सलूक के रास्ता में क़दम रखे ,वर्ना झूटा है। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया एक बुज़ुर्ग अहल-ए-तरीक़त और साहिब-ए-इश्क़ थे। एक दफ़अ’ मुनाजात में गिड़गिड़ा कर ये कहने लगे इलाही अगर तू मुझ से हिसाब मेरी उम्र का जो सत्तर बरस की है तलब करेगा मैं तुझ से हिसाब सत्तर बरस रोज़-ए-अलस्त का चाहूँगा। ये जो कुछ हो रहा है उसी अलस्तु बिरब्बिकुम की वजह से है...................उस का जवाब फ़ौरन हातिफ़ से सुना। तुम्हारी ख़्वाहिश से जवाब दिया जाता है ।मैं सात उम्मतों से सब के ज़र्रे ज़र्रे करूँगा और हर ज़र्रा को दिखलाऊँगा। हिसाब सत्तर हज़ार बरस का किनारा रख दिया है। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया ,एक आरिफ़ हर-रोज़ ये सुख़न कहा करता था हर कोई अपने काम में मशग़ूल है मुझे कोई काम नहीं, मुझ से अब तक ये ना हो सका कि अपनी ज़ात को फ़िदा-ए-हक़ सुब्हानाहु करता मगर ये मैं कभी अपनी ख़्वाहिश से ना करूँगा। अगर मैं चाहूँ सातों ज़मीनों को उलट दूं ,उस के बा’द फ़रमाया एक बुज़ुर्ग ग़लबात-ए-शौक़ में कहते थे, उस ने मुझे देखना चाहा देख लिया। मैं ने कभी ये ना चाहा कि उसे देखूं क्योंकि बंदा को चाहने से क्या काम ।एक दफ़अ’ एक बुज़ुर्ग फ़रमा रहा थे मांगने से कुछ नहीं मिलता। जब आदमी इस लायक़ हो जावे मिल जाता है । पैक-ए-हक़ फ़ौरन पहुंचा देता है। उस के बाद इरशाद फ़रमाया एक बुज़ुर्ग फ़रमाते थे कि जब आदमी आपे से बाहर हुआ, ग़ौर कर देखा इश्क़ ,आशिक़ और माशूक़ सब एक हैं। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया बंदा जब कामिल हो जाता है मक़ामात-ए-सुलूक उस से तय हो जाते हैं। वो अपना काम बहुत करने लगता है। अगर उस ने कुल मक़ामात तय किए राह पर एक मक़ाम-ए-हैरत है वहाँ रह जाता है। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया कि ख़्वाजा बायज़ीद फ़रमाते हैं कि तीस बरस तक मैं हक़ के साथ रहा और हक़ मेरे साथ ।अब मैं अपनी ज़िल्लत का आईना हूँ या’नी जो कुछ मैं था नहीं रहा। तमाम किब्र-ओ-मिन्नी उठ गई अब जब कि मैं ही नहीं हक़-ता’ला ख़ुद आईना-ए-ज़ात-ए- ख़्वेश है। जो कुछ मैं कहता हूँ आईना-ए-ख़वेश हूँ यानी हक़-ता’ला मुझ से कहलवाता है। मैं अपनी जानिब से कुछ नहीं कहता। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया ख़्वाजा बायज़ीद बुस्तामी फ़रमाते हैं मैं मुद्दतों तक मुजाविर-ए-बारगाह रहा कुछ हासिल ना हुआ। अब जो यहाँ पहुंचा हूँ कोई ज़हमत नहीं ।अहल-ए-दुनिया दुनिया के काम में मशग़ूल, अहल-ए-आख़िरत आख़िरत के सर-अंजाम में मसरूफ़ ,मुद्दई अपने दा’वे में मालूफ़ ,साहिब-ए-तक़्वा तक़्वे में गिरफ़्तार, बहुत से लोग खाने-पीने राग-नाच में गिरफ़्तार, मगर वो क़ौम जो आगे शाहंशाह के है दरिया-ए-इज्ज़ में डूबी हुई है। उस के बा’द यह हिकायत ब्यान फ़रमाई कि हज़रत बायज़ीद बुस्तामी फ़रमाते हैं मुद्दत से मैं गिर्द ख़ाना का’बा के तवाफ़ कर रहा हूँ । उस के बा’द इरशाद फ़रमाया कि ख़्वाजा बायज़ीद फ़रमाते हैं जब मैं वासिल ब-हक़ हुआ एक रात अ’र्ज़ किया बायज़ीद दिल-ए-सादिक़ तलब करता है सुब्ह के वक़्त आवाज़ आई ऐ बायज़ीद मेरे सिवा दूसरी चीज़ भी तलब करता है अगर मेरी तलब में है तुझे दिल से क्या काम। बा’द उस के इरशाद फ़रमाया अदना दर्जा आ’लम उन का ये है कि इस आ’लम को अपनी दो उंगलीयों के हल्क़ा में देखे। बा’दहु फ़रमाया हज़रत ख़्वाजा बायज़ीद बुस्तामी से पूछा गया कि आपने तरीक़त में कहाँ तक दस्तगाह हासिल की है ।आप ने इरशाद फ़रमाया मेरा रुत्बा यहाँ तक पहुंचा है कि इस दुनिया को अपनी दो उंगलीयों के हल्क़ा में देखता हूँ। बा’द उस के इरशाद फ़रमाया ,ताअ’त-ए-इलाही में अ’जीब मरातिब हैं। ये उस वक़्त पैदा होते हैं जब ताअ’त करने वाला ताअ’त में शादाँ-ओ-फ़रहाँ रहे। उसे ख़ुश रहने से क़ुर्ब के दर्जे तय होंगे ।उस के बा’द इरशाद फ़रमाया सब से कम-तर दर्जा आरिफ़ों का ये है कि सिफ़ात-ए-इलाही का उन में ज़ुहूर हो । हज़रत राबिआ’ बस्री फ़रमाया करती थीं इलाही अगर ख़ल्क़ मुझे आतिश-ए-सोज़ाँ से सर ता पा जलावे और मैं उस पर सब्र करूँ तो तिरे दावा-ए-मोहब्बत में दरोग़-गो हूँ। अगर तमाम ख़ल्क़ के गुनाह मा’फ़ हो जावें तो ये तेरी रहमत के आगे कुछ माल नहीं। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया ,उज्ब करना अहल-ए-सुलूक के नज़दीक गुनाह-ए-कबीरा है बल्कि गुनाह कबीरा से ज़्यादा बद-तर है। बा’दहु इरशाद फ़रमाया कमाल दर्जा आरिफ़ का मोहब्बत-ए-इलाही में ये है अव्वल अपने दिल में नूर पैदा करे। अगर कोई शख़्स करामत का सवाल करे उसे करामत ब-इज़्न-ए-हक़ दिखलानी चाहिए। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया मैं और ख़्वाजा उसमान हरोनी और शैख़ अहद उद्दीन किरमानी मुसाफ़िरत-ए-मदीना-ए-तय्यबा में हम-सफ़र थे। शहर-ए- दमिशक़ में पहुंचे।जामा मस्जिद दमिशक़ के आगे बारह हज़ार पैग़म्बरों का रौज़ा है, ज़ियारत की । चंद रोज़ ठहरे । मस्जिद में हज़रत ख़्वाजा मोहम्मद आरिफ़ नाम एक बुज़ुर्ग-ए-कामिल रहते थे। एक रोज़ हम उनकी मज्लिस में बैठे थे। हिकायत इस अम्र में हुई कि जब कोई किसी ख़ैर का दा’वा करे और इज़हार उस का ना करे कौन तअ’य्युन करेगा। उस के बा’द ख़्वाजा मोहम्मद आरिफ़ ने फ़रमाया बरोज़-ए-क़यामत हज़रात–ए-सूफ़िया उज़्र करेंगे और तवंगर और दीगर लोगों को अज़ाब-ओ-इक़ाब होगा। इस मक़ूला में ख़्वाजा मोहम्मद आरिफ़ और किसी दूसरे शख़्स से बहस हुई। उस ने दरयाफ़्त क्या ये बात किस किताब में लिखी है। ख़्वाजा आरिफ़ को नाम किताब का याद ना था।थोड़ी देर सो जा। उस मर्द ने कहा जब तक मुझे किताब में लिखा ना दिखाओगे मैं यक़ीन नहीं करूँगा। आप ने सर आसमान की जानिब उठाया और कहा मुझे नाम किताब का याद नहीं रहा। बार-ए-इलाहा उसे वो नविश्ता किताब दिखला दे। फ़ील-फ़ौर फ़रिश्तों को हुक्म हुआ। फ़रिश्तों ने वो किताब जिस में वो नविश्ता था खोल कर और वो मक़ाम जहाँ वो बात लिखी थी निकाल कर दिखा दिया। जवान अपने एतराज़ करने से बहुत नादिम हो कर हज़रत ख़्वाजा आरिफ़ के क़दमों पर गिरा और मुरीद हुआ। बा’द उस के ख़्वाजा आरिफ़ ने फ़रमाया जो वासिल इलल्लाह इस मज्लिस में हो उसे लाज़िम है कोई करामत दिखलाए। फ़ील-फ़ौर हज़रत मख़दूमुना–ओ-मख़दूमुल कुल ख़्वाजा उसमान हरोनी उठे और हाथ ज़ेर-ए-मुसल्ला डाल कर कई अशर्फ़ियाँ निकालीं। एक फ़क़ीर हाज़िर था, उस से कहा ये अशर्फ़ियाँ ले जाओ और दरवेशों के वास्ते नान-ओ-शोरबा लाओ।जब ख़्वाजा उसमान हरोनी करामत दिखला चुके हज़रत-ए-शैख़ अहदउद्दीन किरमानी खड़े हुए ।आप के मुत्तसिल चोब-ए-ख़ुशक खड़ी थी गड़ी हुई। आप ने उस पर हाथ मारा।ब-मुजर्रद हाथ मारने के वो ख़ालिस सोने की हो गई जब हर दो हज़रात करामात दिखला चुके सिर्फ मैं (जामे मलफ़ूज़ात क़ुतुब उद्दीन बख़्तियार अपनी ज़ात से मुराद लेते हैं) बाक़ी रह गया। मैं ने पीर के आदाब से ये ना चाहा कि इज़हार-ए-करामत किया जावे। हज़रत–ए-मुरशदी फ़ौरन मेरी जानिब मुतवज्जिह हुए और फ़रमाया तुम क्यों ख़ामोश हो वहाँ एक भूका फ़क़ीर बैठा हुआ था। मैं ने अपने ख़िर्क़ा में हाथ डाला और चार रोटियाँ निकालीं और फ़क़ीर को दीं हालाँकि मेरे कम्बल में एक भी रोटी ना थी। वो दरवेश और ख़्वाजा मुहम्मद आरिफ़ कहने लगे जब तक दरवेश को इस क़दर इस्तिताअ’त ना हो उसे दरवेश ना कहना चाहिए। उस के बाद फ़रमाया एक बुज़ुर्ग थे। वो कहा करते थे जैसे मैं ने दुनिया को दुश्मन समझा उस से किनारा किया और ख़ुदा-ए-ता’ला की तरफ़ रुजूअ’ किया इस क़द्र मोहब्बत मुझ पर मुस्तवल्ली हुई कि मुझे अपने वजूद से भी दुश्मनी हो गई और मौत को दरमयान से उठा दिया। या’नी इस हदीस ‘मूतू क़बला अन तमूतू’ पर अ’मल कर के उन्स-ए-बक़ा और लुतफ़-ए-हक़ हासिल किया। बा’द उस के इरशाद फ़रमाया,क़यामत के रोज़ आशिक़ों के एक गिरोह को हुक्म होगा बहिश्त में जाओ। वो अ'र्ज़ करेंगे या इलाही हम बहिश्त का क्या करें। बहिश्त उस को अ'ता फ़र्मा जिसने तेरी इबादत बहिश्त के वास्ते की हो। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया जो आशिक़-ए-ज़ात-ए-इलाही है उसे बहिश्त से क्या काम । बा’द उस के इरशाद फ़रमाया गुनाह से इस क़दर तुम को नुक़्सान ना पहुँचेगा जितना एक मुसलमान भाई को ख़्वार और बे-हुर्मत करने से पहुँचेगा। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया एक बुज़ुर्ग कहा करते थे अहल-ए-दुनिया मा’ज़ूर और अहल-ए-आख़िरत दरमयान दोस्ती हक़ के मसरूर हैं और अहल-ए-मारिफ़त का क्या कहना है वो तो नूरू अला नूर हैं। इस रम्ज़ को अहल-ए-सुलूक ख़ूब जानते हैं और इबादत अहल-ए-मारिफ़त की पास-ए-अन्फ़ास है। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया आरिफ़ होने से मुराद ये है कि वो ख़ुदा-ए-बुज़ुर्ग की तरफ़ रुजूअ’ कर रहा है। जब आँख बंद करेगा तलब-ए-हक़ में यहाँ तक मशग़ूल रहेगा कि सूर-ए-इसराफ़ील फूंके जाने से उसे ख़बर ना होगी। बा’द उस के इरशाद फ़रमाया ख़्वाजा ज़ुन्नून मिस्री ने फ़रमाया है कि अ’लामत शनाख़्त-ए-हक़ की ये है कि दुनिया से भागे और ख़ामोशी इख़्तियार करे ।जब वो ख़ुदा को पहचानेगा उसे ख़ल्क़ से नफ़रत आवेगी ।बा’द उस के इरशाद हुआ जो यह दा’वे करे कि मुझे मारिफ़त-ए-हक़ हासिल हुई और उस ने दुनिया से तन्हाई हासिल ना की जानो कि वो झूटा है। बा’द उस के इरशाद फ़रमाया आरिफ़ वो होता है जो दिल से मासिवा अल्लाह को बाहर निकाले और हिस्से बेगाना हो। बा’द उस के इरशाद फ़रमाया कमालियत आरिफ़ की ये है कि राह-ए-दोस्त में जल बुझे । बा’द उस के इरशाद फ़रमाया आरिफ़ उसी क़दर सुख़नान-ए-मारिफ़त कह सकता है जिस क़दर उस को उबूर है। बा’द उस के इरशाद फ़रमाया सोज़ और फ़रियाद अहल-ए-इश्क़ की उस वक़्त तक रहती है जब तक विसाल माशूक़ का ना हो जावे।आरिफ़ को कुछ सोज़ वग़ैरा नहीं होता क्योंकि मारिफ़त उसे हासिल हो चुकी है। और फ़रमाने लगे जिस तौर दरिया-ए-रवाँ के पानी में बहने की आवाज़ आती है और जब उस दरिया का पानी दूसरे दरिया में मिल जाता है उसे फ़रियाद से सरोकार नहीं रहता। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया कि मैं ने ज़बानी हज़रत ख़्वाजा उसमान हरोनी के सुना है कि दुनिया में किस क़दर मुहिब्बान-ए-इलाही ऐसे होते हैं जिस के सबब से वजूद इस आ’लम का है। अगर वो ना हो दीन-ए-आ’लम नापैद हो जावे और अहल-ए-आ’लम इबादत ना करें। बा’द उस के इरशाद फ़रमाया, एक-बार ख़्वाजा अबदुल्लाह ख़फ़ीफ़ भूले से कार-ए-दुनिया में मसरूफ़ हो गए। फ़ौरन याद आया ये बात ख़िलाफ़-ए-वा’दा-ए-दोस्त है। उस के बाद क़सम खाई जब तक जियूँगा कोई काम दुनिया का ना करूँगा। उस के बा’द पच्चास बरस तक ज़िंदा रहे और कोई काम दुनिया का ना किया। बा’द उस के वलवला-ए-इश्क़-ए-हज़रत बायज़ीद बुस्तामी की हिकायत की कि हर-रोज़ बा’द नमाज़-ए-सुब्ह एक पांव से खड़े होते और फ़रियाद करते। एक वक़्त ये आवाज़ आई ‘यौमा तुबद्दलुल –अर्ज़ा’ या’नी याद कर वो वक़्त जब कि इस ज़मीन को लपेटेंगे और दूसरी ज़मीन लावेंगे और फ़िराक़ विसाल से बदल होगा। उस के बा’द इस तरह की दूसरी रिवायत ब्यान फ़रमाई कि एक दफ़अ’ हज़रत बायज़ीद बुस्तामी ने सहरा-ए-बुस्ताम में वुज़ू किया और फ़रियाद करने लगे जहाँ तक मुझे दिखता है मा’लूम होता है कि इस सहरा में इश्क़ बरसा है। हर-चंद मैं क़दम बाहर निकालना चाहता हूँ नहीं निकलता। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया इश्क़ और मोहब्बत की राह जुदागाना है जो कोई इस रास्ता में आया गुमनाम हुआ और फ़रमाया अहल-ए-इर्फ़ान की ज़बान से सिवाए ज़िक्र-ए-हक़ के दूसरी बात नहीं निकल सकती। बा’द उस के इरशाद फ़रमाया कम-तर दर्जा आरिफ़ों का ये है कि जो कुछ उन्हें माल-ओ-मताअ’ से पहुंचे सब पर तबर्रा करें। ये फ़रमा कर हज़रत ख़्वाजा आब-दीदा हुए और फ़रमाया कि कमतर दर्जा आरिफ़ों का ये है अगर वो दोनों जहानों से उन चीज़ों को जो उन्हें हासिल हो बज़्ल-ए-हक़ करें तो भी थोड़ा है।बा’द उस के इरशाद फ़रमाया अहल-ए-मोहब्बत अगरचे महजूर हैं मगर काम उनका और तरह का है।अगर वो सोए हैं या जागते हैं तालिब-ओ-मतलूब हैं और तलबगारी और दोस्त-दारी अपने से फ़ारिग़ हैं और मुशाहिदा में मशग़ूल हैं। उस के बाद इरशाद हुआ ख़्वाजा समनून मुहिब्ब ने फ़रमाया है कि औलियाओं के दिल मुत्तलाअ’ हैं दिलहा-ए-दीद से कि उन्होंने बार-ए-मोहब्बत को उठाने में कोताही ना की दुनिया से बा’ज़ रहे और मशग़ूल इबादत में हुए। पस बार ख़ास अम्र का नहीं उठा सकता कि मलाल मुजाहिदात और रियाज़ात का होता है।
उस के बा’द इरशाद फ़रमाया आरिफ़ वो है जो कि कोशिश कर के एक दम हासिल करे और आरिफ़-ए-दम वो है कि ज़िक्र-ए-ख़ुदा-ए-ताला करे और अपनी तमाम उम्र फ़िदा उस दम की करे अगर ऐसा दम पाया जावे क्या कहना है बरसों ज़मीन –ओ-समान में ढूँढने से ऐसा दम हासिल होना मुश्किल है। उस के बा’द इरशाद फ़रमाया मैं ने ज़बानी अपने पीर हज़रत ख़्वाजा उसमान हरोनी के सुना है कि जो शख़्स मुंदरजा ज़ैल तीन ख़स्लतें रखता हो, ख़ुदा-ए-ता’ला उसे दोस्त रखता है ।अव्वल सख़ावत मानिंद दरिया के ,दोउम शफ़क़त मानिंद आफ़्ताब के, सेउम तवाज़ोअ’ मिस्ल ज़मीन के। बा’दहु फ़रमाया दरमयान अहल-ए-सुलूक के ऐसा इल्म है अगर हज़ारहा आ’लिम जानना चाहें उन्हें उस इल्म से ज़र्रा के बराबर वाक़फ़ियत नहीं हो सकती और ज़ोह्द एक ताअ’त है उस से ज़ाहिदों को भी ख़बर नहीं बिल्कुल बेख़बरे और ग़ाफ़िल हैं और ये असरार-ए-इलाही उन को सिवाए अहल-ए-मोहब्बत और अहल-ए-इश्क़ के और कोई नहीं जानता और ये सिर्र दोनों आ’लम से बाहर हैं। बा’दहु इरशाद फ़रमाया जो शख़्स इन दोनों आ’लम में साबित रहा उन्हें जानेगा। फ़क़त
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