जल्वा-गर फिर से अगर नूर-ए-पयम्बर हो जाए
जल्वा-गर फिर से अगर नूर-ए-पयम्बर हो जाए
रूनुमा फिर तो वही सूरत-ए-हैदर हो जाए
गर अदा नुत्क़ से मद्ह-ए-शह-ए-सफ़दर हो जाए
वो भी मिन-जुमला-ए-औसाफ़-ए-पयम्बर हो जाए
जिस को हासिल है जबीं-साई-ए-दरगाह-ए-नजफ़
क़ाबिल-ए-रश्क न क्यूँ उस का मुक़द्दर हो जाए
अल्लाह अल्लाह सबा लाई वो पैग़ाम-ए-तरब
जिस से ताज़ा चमन-ए-दीन-ए-पयम्बर हो जाए
मर्हबा सल्ले-अ'ला ऐ चमन-आरा-ए-हयात
कुफ़्र ईमाँ से तिरे दीन का जौहर हो जाए
ज़ुल्मत-ए-कुफ़्र मिटाने को जहाँ से या-रब
फिर वही जल्वा-नुमा सूरत-ए-हैदर हो जाए
शब-ए-मे'राज के लहजे में जो तू बात करे
सुनने वाला तिरी आवाज़ का शश्दर हो जाए
उस के 'इरफ़ान-ए-हक़ीक़त की न मंज़िल पूछो
जिस का हर एक नफ़स नफ़्स-ए-पयम्बर हो जाए
मुद्दई' तन के कहीं आए अगर हुस्न तमाम
मर्कज़-ए-अहल-ए-नज़र जल्वा-ए-हैदर हो जाए
कुछ तो बख़्शिश का वसीला सर-ए-महशर हो जाए
और एक मतला मद्ह-ए-शह-ए-सफ़दर हो जाए
या 'अली आप के असमा-ए-मुबारक की क़सम
नाम लेते ही सुकूँ दिल को मुयस्सर हो जाए
देख ले जो तिरी मस्ती भरी आँखों का सुरूर
क्यूँ न वो बे-ख़बर बादा-ए-साग़र हो जाए
शर्बत-ए-दीद का तालिब है अज़ल से 'अख़्तर'
इस तरफ़ भी करम ऐ साक़ी-ए-कौसर हो जाए
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