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जल्वा-गर फिर से अगर नूर-ए-पयम्बर हो जाए

अख़्तर महमूद वारसी

जल्वा-गर फिर से अगर नूर-ए-पयम्बर हो जाए

अख़्तर महमूद वारसी

MORE BYअख़्तर महमूद वारसी

    जल्वा-गर फिर से अगर नूर-ए-पयम्बर हो जाए

    रूनुमा फिर तो वही सूरत-ए-हैदर हो जाए

    गर अदा नुत्क़ से मद्ह-ए-शह-ए-सफ़दर हो जाए

    वो भी मिन-जुमला-ए-औसाफ़-ए-पयम्बर हो जाए

    जिस को हासिल है जबीं-साई-ए-दरगाह-ए-नजफ़

    क़ाबिल-ए-रश्क क्यूँ उस का मुक़द्दर हो जाए

    अल्लाह अल्लाह सबा लाई वो पैग़ाम-ए-तरब

    जिस से ताज़ा चमन-ए-दीन-ए-पयम्बर हो जाए

    मर्हबा सल्ले-अ'ला चमन-आरा-ए-हयात

    कुफ़्र ईमाँ से तिरे दीन का जौहर हो जाए

    ज़ुल्मत-ए-कुफ़्र मिटाने को जहाँ से या-रब

    फिर वही जल्वा-नुमा सूरत-ए-हैदर हो जाए

    शब-ए-मे'राज के लहजे में जो तू बात करे

    सुनने वाला तिरी आवाज़ का शश्दर हो जाए

    उस के 'इरफ़ान-ए-हक़ीक़त की मंज़िल पूछो

    जिस का हर एक नफ़स नफ़्स-ए-पयम्बर हो जाए

    मुद्दई' तन के कहीं आए अगर हुस्न तमाम

    मर्कज़-ए-अहल-ए-नज़र जल्वा-ए-हैदर हो जाए

    कुछ तो बख़्शिश का वसीला सर-ए-महशर हो जाए

    और एक मतला मद्ह-ए-शह-ए-सफ़दर हो जाए

    या 'अली आप के असमा-ए-मुबारक की क़सम

    नाम लेते ही सुकूँ दिल को मुयस्सर हो जाए

    देख ले जो तिरी मस्ती भरी आँखों का सुरूर

    क्यूँ वो बे-ख़बर बादा-ए-साग़र हो जाए

    शर्बत-ए-दीद का तालिब है अज़ल से 'अख़्तर'

    इस तरफ़ भी करम साक़ी-ए-कौसर हो जाए

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