औरों से जुदा बीमार शह-ए-अबरार की हालत होती है
औरों से जुदा बीमार शह-ए-अबरार की हालत होती है
आराम में कुल्फ़त होती है तकलीफ़ में राहत होती है
उस बाब-ए-हरीम-ए-नाज़ पे जब मुश्ताक़ निगाहें फिरती हैं
हर सुब्ह करम फ़रमाते हैं हर शाम 'इनायत होती है
हम अहल-ए-मता-ए’-शौक़ के घर क्या चीज़ नहीं ऐ अहल-ए-ख़िरद
अनवार की ने'मत होती है दीदार की जन्नत होती है
जज़्बात की तूफ़ाँ-ख़ेज़ी भी फ़ुर्क़त के घनेरे बादल भी
आँखों की सुनहरी रिम-झिम में बरसात की रंगत होती है
जूयान-ए-रुख़-ए-महबूब रुको वा अपनी ज़रा आँखें कर लो
वल्लैल-ओ-ज़ुहा के जल्वों से आरास्ता जन्नत होती है
ऐ उम्मत-ए-हक़ के फ़रज़ंदो ऐ शर-ए-नबी के मतवालो
बे-राह-रवी सुन्नत से मजरूह 'अक़ीदत होती है
जब बज़्म-ए-’अक़ीदत की शाँ में महबूब का नाम आ जाता है
ऐ सल्ले-'अला हर दिल में 'अजब पुर-कैफ़ मसर्रत होती है
जज़्बात की रंग-आमेज़ी में एहसास के फूल निखरते हैं
जब शौक़ जवाँ हो जाता है कुछ और तबी'अत होती है
हो शर्ह-ए-अहद मतलूब अगर तशरीह-ए-मोहम्मद पढ़ जाओ
उन चार मुशर्रह हर्फ़ों से तशर्ह-ए-हक़ीक़त होती है
आईना-ए-हुस्न-ए-तसव्वुर में तशरीफ़ जो वो ले आते हैं
मम्नून 'अक़ीदत होती है मश्कूर मोहब्बत होती है
वो नूर कि रोज़-ए-सुब्ह-ए-अज़ल चमका था सर-ए-'अर्श-ए-आ’ज़म
उस नूर की रौशन किरनों से कौनैन की ज़ीनत होती है
ऐ शौक़ के दामन फैल ज़रा कुछ और वसीअ' कुछ और वसीअ'
जब ज़ौक़-ए-तलब बढ़ जाता है फिर तेरी ज़रूरत होती है
कुछ नज़्र-ए-’अक़ीदत के मोती दामन में सजा लाया हूँ 'सफ़ी'
कुछ उन की तवज्जोह चाहूँगा कुछ अपनी भी हिम्मत होती है
- पुस्तक : Kilk-e-Midhat (पृष्ठ 30)
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