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अनवार-ए-हक़ ’अयाँ हैं ख़्वाजा के आस्ताँ से

हैरत शाह वारसी

अनवार-ए-हक़ ’अयाँ हैं ख़्वाजा के आस्ताँ से

हैरत शाह वारसी

MORE BYहैरत शाह वारसी

    अनवार-ए-हक़ ’अयाँ हैं ख़्वाजा के आस्ताँ से

    इस बे-निशाँ को पाया मैं ने उसी निशाँ में

    रौशन है कुल ज़माना जिस हुस्न-ए-ज़ौ-फ़िशाँ से

    हुस्न-ए-मुई'न-ए-दीं है चमका जो ला-मकाँ से

    ख़्वाजा की बरकतों से ख़्वाजा की रहमतों से

    अजमेर की वो गलियाँ मिलती हैं आसमाँ से

    जूद-ओ-’अता-ओ-बख़्शिश फ़ैज़ान के करम के

    चश्मे उबल रहे हैं ख़्वाजा के आस्ताँ से

    मुहताज-ओ-बे-नवा की अब लाज है तुझी को

    सब कुछ उठूँगा लेकर तेरे ही आस्ताँ से

    तेरी तजल्लियों में गुम हो चुका है हैरत

    पाए निशान अपना हैरत-ज़दा कहाँ से

    स्रोत :
    • पुस्तक : तज़्किरा शो'रा-ए-वारसिया (पृष्ठ 128)
    • प्रकाशन : फ़ाइन बुक्स प्रिंटर्स (1993)

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