हो जाते हैं ख़ुद रस्ते हमवार मदीने के
हो जाते हैं ख़ुद रस्ते हमवार मदीने के
बुलवाते हैं जब शाह-ए-अबरार मदीने के
क्यूँ कर न फ़लक को भी इस शहर पे रश्क आए
बस्ते हैं मदीने में मुख़्तार मदीने के
आँखों को 'अता होगा सुर्मा-ए-बीनाई
बख़्शेंगे जिला दिल को अनवार मदीने के
बरसों की 'इबादत का हासिल है हर इक लम्हा
सौ साल पे भारी हैं दिन चार मदीने के
उस दौर-ए-मुक़द्दस की यादों के तसव्वुर में
देखेंगे ज़रा चल कर बाज़ार मदीने के
ऐ बख़्त-ए-रसा ख़ुश हो बख़्शिश की घड़ी आई
वो देख नज़र आए मीनार मदीने के
बेहतर है किसी गुल से काँटा रह-ए-तैबा का
जन्नत से हसीं-तर हैं गुलज़ार मदीने के
अपनों का मुक़द्दर है इ'रफ़ान की ये दौलत
ग़ैरों पे नहीं खुलते असरार मदीने के
तुम लाख मिटा डालो धरती से इन्हें लेकिन
महफ़ूज़ हैं ज़ेहनों में आसार मदीने के
आक़ा की सनाओं में कट जाए सफ़र अच्छा
मिल जाएँ अगर साथी दो-चार मदीने के
ऐ देव-ए-हवस मुझ पर क्या ज़ोर चले तेरा
रहते हैं मिरे दिल में दिलदार मदीने के
फिर उस को नहीं रहती हसरत किसी मंज़र की
हो जाएँ जिसे हासिल दीदार मदीने के
है तुर्फ़ा-मिज़ाज इन का दीदार ’इलाज इन का
’ईसा से न अच्छे हों बीमार मदीने के
ये आब-ए-नजिस उठवा ये जाम-ओ-सुबू ले जा
पीते हैं मदीने की मय-ख़्वार मदीने के
इस आस पे बैठा हूँ मुद्दत से 'नसीर' अब तक
शायद कभी बुलवा लें सरकार मदीने के
- पुस्तक : कुल्लियात-ए-नसीर गिलानी (पृष्ठ 1178)
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