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समझें मक़ाम-ए-अहल-ए-नज़र ग़ौस-ए-पाक का

कामिल शत्तारी

समझें मक़ाम-ए-अहल-ए-नज़र ग़ौस-ए-पाक का

कामिल शत्तारी

MORE BYकामिल शत्तारी

    रोचक तथ्य

    منقبت درشان غوث پاک شیخ عبدالقادر جیلانی (بغداد۔عراق)

    समझें मक़ाम-ए-अहल-ए-नज़र ग़ौस-ए-पाक का

    तकते हैं मुँह क़ज़ा-ओ-क़द्र ग़ौस-ए-पाक का

    अल्लाह रे नफ़ुज़-ओ-असर ग़ौस-ए-पाक का

    सब कुछ इधर है रुख़ है जिधर ग़ौस-ए-पाक का

    शाहों के सर भी झुकते हैं उस की हुज़ूर में

    जाता है इक ग़ुलाम जिधर ग़ौस-ए-पाक का

    कितने दिलों में घर वो बनाती है क्या कहूँ

    वो दिल कि जिस में हो गया घर ग़ौस-ए-पाक का

    जो कुछ ग़ुलाम का है वो आक़ा की मुलक है

    दिल ग़ौस-ए-पाक का है जिगर ग़ौस-ए-पाक का

    अपनी तो है बस उन की इ'नायत पे ज़िंदगी

    क्या क्या करम है शाम-ओ-सहर ग़ौस-ए-पाक का

    अल्लाह एक ऐसी नज़र चाहता हूँ में

    आँखे हूँ मेरी ज़ौक़-ए-नज़र ग़ौस-ए-पाक का

    होती है जिस को होती है निस्बत हुज़ूर से

    खुलता है जिस पे खुलता है दर ग़ौस-ए-पाक का

    सब कुछ है मेरे वास्ते 'कामिल' ख़ुदा गवाह

    बस इक ज़रा करम है अगर ग़ौस-ए-पाक का

    स्रोत :
    • पुस्तक : वारदात-ए-कामिल (पृष्ठ 14)

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