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वाह क्या मर्तबा ऐ ग़ौस है बाला तेरा

अहमद रज़ा ख़ान

वाह क्या मर्तबा ऐ ग़ौस है बाला तेरा

अहमद रज़ा ख़ान

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    रोचक तथ्य

    منقبت درشان حضرت شیخ عبدالقادر جیلانی (بغداد۔عراق)

    वाह क्या मर्तबा ग़ौस है बाला तेरा

    ऊँचे ऊंचों के सरों से है क़दम आ'ला तेरा

    सर भला क्या कोई जाने कि है कैसा तेरा

    औलिया मलते हैं आँखें वो है तलवा तेरा

    क्या दबे जिस पर हिमायत का हो पंजा तेरा

    शेर को ख़तरे में लाता नहीं कुत्ता तेरा

    तू हुसैनी हसनी क्यूँ मुहीउद्दींं हो

    ख़िज़र मज्म'-ए-बहरीन है चश्मा तेरा

    क़स्में दे दे के खिलाता है पिलाता है तुझे

    प्यारा अल्लाह तेरा चाहने वाला तेरा

    मुस्तफ़ा के तन-ए-बे-साया का साया देखा

    जिस ने देखा मेरी जाँ जल्वा-ए-ज़ेबा तेरा

    इब्न-ए-ज़हरा को मुबारक हो 'उरूस-ए-क़ुदरत

    क़ादरी पाएँ तसद्दुक़ मिरे दूल्हा तेरा

    क्यूँ क़ासिम हो कि तू इब्न-ए-अबिल-क़ासिम है

    क्यूँ क़ादिर हो कि मुख़्तार है बाबा तेरा

    नबवी मेंह ’अल्वी फ़सल बुतूली गुलशन

    हसनी फूल हुसैनी है महकना तेरा

    नबवी ज़िल ’अल्वी बुर्ज बुतूली मंज़िल

    हसनी चाँद हुसैनी है उजाला तेरा

    नबवी ख़ौर ’अल्वी कोह बुतूली मा'दन

    हसनी ला'ल हुसैनी है तजल्ला तेरा

    बहर-ओ-बर शहर-ओ-क़ुरा सहल-ओ-ख़ज़न दश्त-ओ-चमन

    कौन से चक पे पहुँचता नहीं दावा तेरा

    हुस्न-ए-नियत हो ख़ता फिर कभी करता ही नहीं

    आज़माया है यगाना है दोगाना तेरा

    ’अर्ज़-ए-अहवाल की प्यासों में कहाँ ताब मगर

    आँखें अब्र-ए-करम तकती हैं रस्ता तेरा

    मौत नज़दीक गुनाहों की तहें मैल के ख़ोल

    बरस जा कि नहा धोले ये प्यासा तेरा

    आब आमद वो कहे और मैं तयम्मुम बरख़ास्त

    मुश्त-ए-ख़ाक अपनी हो और नूर का हाला तेरा

    जान तो जाते ही जाएगी क़ियामत क़ियामत ये है

    कि यहाँ मरने पे ठहरा है नज़ारा तेरा

    तुझ से दर दर से सग और सग से है मुझ को निस्बत

    मेरी गर्दन में भी है दूर का डोरा तेरा

    इस निशानी के जो सग हैं नहीं मारे जाते

    हश्र तक मेरे गले में रहे पट्टा तेरा

    मेरी क़िस्मत की क़सम खाएँ सगान-ए-बग़दाद

    हिन्द में भी हूँ तो देता रहूँ पहरा तेरा

    तेरी ’इज़्ज़त के निसार मरे ग़ैरत वाले

    आह सद आह कि यूँ ख़ार हो बरदा तेरा

    बद सही चोर सही मुजरिम-ओ-नाकारा सही

    वो कैसा ही सही है तो करीमा तेरा

    मुझ को रुस्वा भी अगर कोई कहेगा तो यूँ ही

    कि वही ना वो 'रज़ा' बंदा-ए-रुस्वा तेरा

    'रज़ा' यूँ बिलक तू नहीं जय्यद तो हो

    सय्यद जय्यद हर दहर है मौला तेरा

    फ़ख़्र-ए-आक़ा में 'रज़ा' और भी इक नज़्म-ए-रफ़ी’

    चल लिखा लाएँ सना-ख़्वानों में चेहरा तेरा

    स्रोत :
    • पुस्तक : हदाएक़-ए-बख़्शिश (पृष्ठ 4)
    • रचनाकार : आला हज़रत मौलाना अहमद रज़ा ख़ाँ

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