रसूलुल्लाह के रुख़ के बराबर हो नहीं सकता
रसूलुल्लाह के रुख़ के बराबर हो नहीं सकता
वो चमके लाख पर इतना मुनव्वर हो नहीं सकता
वहाँ ख़ुश्बू है फूलों की यहाँ हज़रत की इ’त्रिय्यत
इरम का बाग़ तैबा के बराबर हो नहीं सकता
कहा जो आप ने ख़ालिक़ ने वो मंज़ूर फ़रमाया
कोई महबूब-ए-हक़ हज़रत से बढ़ कर हो नहीं सकता
न देखी सूरत-ए-हक़्क़ी किसी ने ग़ैर हक़ तेरी
कोई तुझ सा हसीं अल्लाहु-अकबर हो नहीं सकता
जमाल-ए-हज़रत-ए-हक़ आप ने बे-पर्दा देखा है
किसी को क़ुर्ब-ए-ख़ास ऐसा मयस्सर हो नहीं सकता
मदीना की ज़मीं को अ'र्श-ए-आ'ज़म पर फ़ज़ीलत है
चलूँ सर से न याँ ऐ जान-ए-मुज़्तर हो नहीं सकता
कहूँ क्या आब-ए-जाँ बख़्श मदीना की हलावत में
लतीफ़ ऐसा तो हरगिज़ आब-ए-कौसर हो नहीं सकता
निगाहों में है अब तक पर्दा-ए-क़स्र-ए-नबी 'अकबर'
ये जल्वा हश्र तक आँखों से बाहर हो नहीं सकता
- पुस्तक : जज़्बात ए अकबर (पृष्ठ 40)
- रचनाकार :शाह अकबर दानापुरी
- प्रकाशन : आगरा अख़बार प्रेस, आगरा (1915)
- संस्करण : First
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