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भरन फिर अब्र-ए-रहमत लुत्फ़ की बरसाने लगते हैं

अस'अद रब्बानी

भरन फिर अब्र-ए-रहमत लुत्फ़ की बरसाने लगते हैं

अस'अद रब्बानी

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    रोचक तथ्य

    منقبت درشان غوث پاک شیخ عبدالقادر جیلانی (بغداد-عراق)

    भरन फिर अब्र-ए-रहमत लुत्फ़ की बरसाने लगते हैं

    जो हम मुश्किल में नाम-ए-ग़ौस को दोहराने लगते हैं

    शर्फ़ के ताज में वो बे-बहा दुरदाने लगते हैं

    जो ज़र्रे पाँव में ग़ौसुल-वरा के आने लगते हैं

    यहाँ रिंदों के दामन को नहीं छूटी है बद-मस्ती

    वुदूदी मय-कदे में क़ादरी पैमाने लगते हैं

    'अजब जा-ए-सुकूँ है आस्ताना ग़ौस-ए-आ'ज़म का

    जो आएँ साया-ए-दीवार में सुस्ताने लगते हैं

    तरीक़त में दो आँखें हैं हमारी ग़ौस और ख़्वाजा

    जो देखें एक से वो लोग हम को काने लगते हैं

    ख़ुदा ने उन को बख़्शी है कुछ ऐसी शान-ए-महबूबी

    जो दिल आते हैं दर पे ग़ौस के नज़्राने लगते हैं

    ता’ला अल्लाह पा-ए-ग़ौस से पामाल होने को

    सर इतने झुकते हैं 'असअद' ज़मीं से शाने लगते हैं

    स्रोत :
    • पुस्तक : Sukhan Waraan-e-Izzat (पृष्ठ 63)

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