हो नज़र हम पे अजमेर वाले हम मँगते हैं तेरी गली के
हो नज़र हम पे अजमेर वाले हम मँगते हैं तेरी गली के
अ'ब्दुल सत्तार नियाज़ी
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रोचक तथ्य
منقبت درشان غریب نواز خواجہ معین الدین چشتی (اجمیر۔راجستھان)
हो नज़र हम पे अजमेर वाले हम मँगते हैं तेरी गली के
तेरे लुत्फ़-ओ-करम के सहारे बीत जाएँगे दिन ज़िंदगी के
दर सलामत रहे साक़ी दौर चलते-चलते मय-कशी के
ख़ैर हो चिश्त के मय-कदे की जाम हम को भी दे ख़्वाजगी के
कर करम सदक़ा-ए-ख़्वाजा ’उसमाँ भर दे फ़क़ीरों का दामाँ
तेरे दर के भिकारी हैं ख़्वाजा हम नहीं हैं गदा हर किसी के
बा'द मुद्दत हुई दीद है तेरी देखते ही हुई 'ईद मेरी
सामने तुम रहो यूँही बैठे आ रहे हैं मज़े बंदगी के
तेरे दर से सवाली न जाएँ जो भी आए हैं ख़ाली न जाएँ
ये जहाँ वाले हम को वगर्ना ता'ने देंगे तिरी दोस्ती के
आज रखना न महरूम ख़्वाजा है तिरे फ़ैज़ की धूम ख़्वाजा
तेरी महफ़िल में आए हैं हम भी शोहरे सुन कर तुम्हारी छटी के
है दिलों पर तिरी हुक्मरानी औलिया तेरा भरते हैं पानी
शान-ओ-शौकत झुकी तेरे दर पर ऐ मैं सदक़े तिरी सादगी के
ग़म के मारों की है ये तमन्ना तेरे दर पे रहे आना जाना
फिर भी हो हाज़िरी तेरे दर की आएँ लम्हे ये फिर भी ख़ुशी के
कोई है शम्स कोई क़मर है कुत्बुद्दीन कोई गंज-ए-शकर है
मेरे ख़्वाजा ने कैसे दिए हैं चिश्तियों को दिये रौशनी के
हों 'नियाज़ी' पे तेरी 'अताएँ चल पड़ीं फिर करम की हवाएँ
सदक़ा ख़्वाजा तुम्हारी छटी का सर से बादल छटें अब ग़मी के
- पुस्तक : कुल्लियात-ए-नियाज़ी (पृष्ठ 67)
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