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बरतर क़ियास-ओ-फ़िक्र से है ए’तिला-ए-ग़ौस

वासिफ़ रज़ा वासिफ़

बरतर क़ियास-ओ-फ़िक्र से है ए’तिला-ए-ग़ौस

वासिफ़ रज़ा वासिफ़

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    रोचक तथ्य

    منقبت در شان غوث پاک حضرت شیخ عبدالقادر جیلانی (بغداد۔عراق)

    बरतर क़ियास-ओ-फ़िक्र से है ए’तिला-ए-ग़ौस

    फिर छोटे मुँह से कैसे बयाँ हो सुनिए ग़ौस

    तारीकियों का उस से गुज़र हो मुहाल है

    रौशन है कहफ़ ज़ीस्त में शम्अ' विलाय-ए-ग़ौस

    उन के हिसार-ए-लुत्फ़-ओ-करम में वो गया

    जिस शख़्स को भी अपना सना-ख़्वाँ बनाए ग़ौस

    आशक़ान-ए-ग़ौस करो नाज़ बख़्त पर

    साया कुनाँ है तुम पे लो अ’ता-ए-ग़ौस

    चुन लो तवंगरी के सदफ़ तुम भी मुफ़लिसो

    ख़्वाहाँ है ग़ोता-ख़ोरों का बहर-ए-अता-ए-ग़ौस

    जिस की ज़िया से राह-ए-तसव्वुफ़ है नूर-बार

    मिश्कात मा'रिफ़त में दिए वो जलाए ग़ौस

    दीगर किसी लक़ब से मुलक़्क़ब कीजिए

    काफ़ी है मेरे वास्ते अदना गदा-ए-ग़ौस

    तेरी नवाज़िशात ने गिरने नहीं दिया

    जब जब जहाँ भी मेरे क़दम डगमगाए ग़ौस

    वो सर-ज़मीन-ए-मा’दिन-ए-ख़ैर-ए-कसीर है

    जिस ख़ित्ता-ए-ज़मीन पे तशरीफ़ लाए ग़ौस

    नज़रों में जिस के आप का दरबार हो बसा

    दुनिया का हुस्न कैसे उसे फिर लुभाए ग़ौस

    'वासिफ़' बड़े ही नाज़-ओ-तफ़ाख़ुर की बात है

    कुम्बा क़बीला दिल से है तेरा फ़िदाए ग़ौस

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