ज़ाहिर शुदन-ए-’इज्ज़-ए-हकीमान अज़ मु’आलिजः-ए-कनीज़क बर बादशाह-ओ-रू-ए-आवर्दन-ए-बादशाह ब-दरगाह-ए-ख़ुदा-ओ-ख़्वाब दीदन-ए-शाह वली रा
तबीबों का 'इलाज से ‘आजिज़ आ जाना और बादशाह को मा’लूम हो जाना और हक़ीक़ी बादशाह की तरफ़ उसका रुख़ करना
शह चु 'इज्ज़-ए-आँ हकीमाँ रा ब-दीद
पा बरहनः जानिब-ए-मस्जिद दवीद
बादशाह ने जब तबीबों की बे-बसी देखी
नंगे-पाँव मस्जिद की जानिब भागा
रफ़्त दर मस्जिद सू-ए-मेहराब शुद
सज्दः-गाह अज़ अश्क-ए-शह पुर-आब शुद
मस्जिद में गया, मेहराब की जानिब हुआ
बादशाह के आँसुओं से सज्दे की जगह तर हो गई
चुँ ब-ख़ेश आमद ज़े ग़र्क़ाब-ए-फ़ना
ख़ुश-ज़बाँ ब-गुशाद दर मद्ह-ओ-सना
जब वो फ़ना की गहराई से निकल कर आपे में आया
मद्ह-ओ-सना में ख़ूब ज़बान खोली
कए कमीनः बख़्शिशत मुल्क-ए-जहाँ
मन चे गोयम चुँ तू मी-दानी निहाँ
ऐ वो कि दुनिया की सल्तनत तेरी मा’मूली बख़्शिश है
मैं क्या कहूँ? तू ख़ुद पोशीदा बात जानता है
ऐ हमेशः हाजत-ए-मा रा पनाह
बार-ए-दीगर मा ग़लत करदेम राह
ऐ! वो कि हमेशा हमारी हाजत की पनाह है
रास्ता से हम फिर भटक गए
लैक गुफ़्ती गरचे मी-दानम सिर्रत
ज़ूद हम पैदा कुनिश बर ज़ाहिरत
लेकिन तूने कहा है, अगरचे मैं तेरा भेद जानता हूँ
तू भी जल्द उसको अपनी ज़ाहिरी हालत के मुताबिक़ बयाँ कर दे
चुँ बर आवुर्द अज़ मियान-ए-जाँ ख़रोश
अंदर आमद बहर-ए-बख़्शायश ब-जोश
जब उसने तह-ए-दिल से फ़रियाद की
उसकी बख़्शिश का दरिया जोश में आ गया
दरमियान-ए-गिर्या ख़्वाबश दर रुबूद
दीद दर ख़्वाब ऊ कि पीर-ए-रू नुमूद
रोते-रोते उसको नींद आ गई
उसने ख़्वाब में देखा कि एक बुज़ुर्ग ज़ाहिर हुए
गुफ़्त ऐ शह मुज़्दः हाजातत रवास्त
गर ग़रीबे आयदत फ़र्दा ज़े-मास्त
बोले, ऐ बादशाह ! बशारत है, तेरी हाजतें पूरी हुईं
अगर कल को कोई अजनबी शख़्स आए तो वो हमारी तरफ़ से है
चूँकि आयद ऊ हकीम-ए-हाज़िक़स्त
सादिक़श दाँ कू अमीन-ओ-सादिक़स्त
जब वो आए तो माहिर तबीब है
उसको सच्चा जान, वो सच्चा और अमानत-दार है
दर 'इलाजश सेह्र-ए-मुत्लक़ रा ब-बीं
दर मिज़ाजश क़ुद्रत-ए-हक़ रा ब-बीं
उसके ‘इलाज में पूरा जादू देखना
उसके मिज़ाज में ख़ुदा की क़ुद्रत देखना
चुँ रसीद आँ वा'दः-गाह-ओ-रोज़ शुद
आफ़ताब अज़ शर्क़ अख़्तर सोज़ शुद
जब वा’दा का वक़्त आ गया और दिन हो गया
सूरज मश्रिक़ से, सितारों को ख़त्म करने वाला हो गया
बूद अंदर मंज़रः शह मुंतज़िर
ता ब-बीनद आँ चे ब-नमूदंद सर
बादशाह झरोका में, मुंतज़िर था
ताकि उस भेद को देख ले जो उस पर ज़ाहिर किया है
दीद शख़्से फ़ाज़िले पुर-मायः-ई
आफ़्ताबे दरमियान-ए-सायः-ई
उसने एक शख़्स-ए-कामिल और पुर-हुनर देखा
जो अँधेरे में सूरज था
मी-रसीद अज़ दूर मानिंद-ए-हिलाल
नीस्त बूद-ओ-हस्त बर शक्ल-ए-ख़याल
दूर से, चाँद जैसा आ रहा था
मा’दूम और मौजूद था ख़याल की तरह
नीस्त वश बाशद ख़याल अंदर रवाँ
तू जहाने बर ख़याले बीं रवाँ
दुनिया में ख़याल, मा’दूम की तरह होता है
तू दुनिया को भी ख़याल की तरह चलती-फिरती चीज़ समझ
बर ख़याले सुल्ह-ए-शाँ-ओ-जंग-ए-शाँ
वज़ ख़याले फ़ख़्र-ए-शान-ओ-नंग-ए-शाँ
उनकी सुल्ह और लड़ाई ख़याल के मुताबिक़ होती है
उनका फ़ख़्र और ज़िल्लत ख़याल ही से है
आँ ख़यालाते कि दाम-ए-औलियास्त
'अक्स-ए-मह रूयान-ए-बुस्तान-ए-ख़ुदासत
वो ख़यालात, जो औलिया के जाल हैं
ख़ुदा के बाग़ के हसीनों का ‘अक्स हैं
आँ ख़याले कि शह अंदर ख़्वाब दीद
दर रुख़-ए-मेहमाँ हमी आमद पदीद
वो ख़याल जो बादशाह ने ख़्वाब में देखा
मेहमान के चेहरे पर ज़ाहिर हुआ
शह ब-जा-ए-हा-जबाँ फ़ा-पेश-रफ़्त
पेश-ए-आँ मेहमान-ए-ग़ैब-ए-ख़ेश-रफ़्त
बादशाह, दरबानों के बजाय आगे बढ़ा
अपने ग़ैबी मेहमान के सामने आया
हर दो बहरी आश्ना आमोख़्तः
हर दो जाँ बे-दोख़्तन बर दोख़़्त:
दोनों समुंद्री, तैरना सीखे हुए
दोनों जामें बिला सिए, पहने हुए
गुफ़्त मा'शूक़म तू बोदस्ती न आँ
लैक कार अज़ कार खेज़द दर जहाँ
उसने कहा, मेरा मा’शूक़ तू था न वो
लेकिन इस दुनिया में काम से काम निकलता है
ऐ मरा तू मुस्तफ़ा मन चूँ 'उमर
अज़ बरा-ए-ख़िदमतत बंदम कमर
ऐ! तू मेरा मुस्तफ़ा है, मैं ’उमर की तरह हूँ
तेरी ख़िदमत-गारी के लिए मैं कमर-बस्ता हूँ
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