बोलता क़ुरआन
ख़ाक पर नूर-ए-ख़ुदा जिस्म में ढल कर उतरा
एक क़ुरआन-ए-ख़द-ओ-ख़ाल भी हम पर उतरा
नए रंगों से मुरत्तब सहर-ओ-शाम हुए
चश्म-ए-कौनैन में बीनाई का पैकर उतरा
किस क़दर आजिज़-ओ-मिस्कीं थी बुलंदी उस की
कुर्सी-ए-अर्श लिए ग़ार के अंदर उतरा
इतनी ऊँचाइयों पे नक़्श-ए-क़दम हैं किस के
इतनी गहराइयों में कौन शिनावर उतरा
यूँ हुई रूह को महसूस मोहब्बत उस की
जैसे आग़ोश में दरिया के समुंदर उतरा
जब कभी तन की मुंडेरों से उड़ाया है उसे
ताइर-ए-दिल इसी दीवार के ऊपर उतरा
रहमतें आएँगी सौ रंग छिड़कने के लिए
मेरी तौब: का जो चेहरः सर-ए-महशर उतरा
उस के क़दमों से तसव्वुर भी हुआ दूर अगर
यूँ लगा तख़्त से जिस तर्ह 'मुज़फ़्फ़र' उतरा
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