क़ौमी यक-जेहती
ख़ार-ओ-ख़स ग़ुंचा-ओ-गुल बर्ग-ओ-शजर शाख़-ओ-समर
सब गुलिस्ताँ के लिए हुस्न का गंजीना हैं
पए तस्कीन-ए-नज़र दीदा-ए-बीना के लिए
मुख़्तलिफ़ रूप का ये एक ही आईना हैं
एक दिल एक तड़प एक नज़र एक ख़याल
आज हर बज़्म में इन लफ़्ज़ों को समझा जाये
ज़ाविए कुछ भी हों ता'मीर असर हो लेकिन
कोई महफ़िल हो उसी ढंग से सोचा जाये
अब किसी ख़ार को भी ख़ार न समझा जाये
उस को मजबूर करो फूल की फ़ितरत सीखे
नाज़-ओ-अंदाज़ करे और मोहब्बत सीखे
इक़तिज़ा वक़्त का ये है न हो मज़हब का सवाल
और ये भी है ज़रूरी न हो बोली तक़्सीम
आज हासिल करे हर शख़्स मुसावात का दर्स
या'नी फैलाए शब-ओ-रोज़ वफ़ा की ता'लीम
एक मय-ख़ाना हो एक साक़ी हो और एक ही जाम
शर्त इतनी है कि मय-ख़्वारों को भरपूर मिले
वो परस्तार किसी के हों किसी के महबूब
सब हों मय-नोश तो सब को मय-ए-अंगूर मिले
फ़र्ज़ इमरोज़ ही मफ़्हूम है इन शे'रों का
मैं हूँ फ़नकार तो मुझ पर भी है ज़िम्मेदारी
इतनी यक-जेहती हो आपस में बढ़े इतना प्यार
अब किसी को भी किसी से न रहे बे-ज़ारी
जो भी इस मुल्क में रहता है ये मुल्क उस का है
साफ़ लिक्खा है ये जम्हूर की पेशानी पर
सब बराबर हैं यहाँ सब को यहीं रहना है
हम को अब नाज़ है ख़ुद अपनी निगहबानी पर
हम अगर एक हैं ये मुल्क भी पाइंदा है
हम अगर एक हैं ये मुल्क भी ताबिंदा है
हम अगर एक हैं ये मुल्क भी ख़ुरसंदा है
हम अगर एक हैं ये मुलक भी रख़्शंदा है
ये हों जज़्बात तो फिर फ़िरक़ा-परस्ती कैसी
बज़्म-ए-याराँ का हर इक रुक्न हो बे-मिस्ल 'अ'ज़ीज़'
काश ऐसा ही ज़माना रहे सदियों क़ाएम
न कोई फ़र्क़ रहे और न रहे कोई तमीज़
- पुस्तक : कुल्लीयात-ए-अज़ीज़ (पृष्ठ 133)
- रचनाकार : अज़ीज़ वारसी
- प्रकाशन : मर्कज़ी पिंटरज़, चूड़ीवालान, दिल्ली (1993)
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