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आदि पुरूष निराधार की याद कर

एकनाथ

आदि पुरूष निराधार की याद कर

एकनाथ

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    आदि पुरूष निर्गुण निराधार की याद कर

    मेरे गुरु परवरदिगार की याद कर

    जिनने माया अजब बनाई

    उस वस्ताद की याद कर

    गैबी खजीना हम ने दिया

    उस साहेब की याद कर

    संत महंत की याद कर

    गुणी गुनवन्त की याद कर

    जोग जुगत का बाँधा तोड़ा

    शम दम का सीर पर जमला छोड़ा

    समता जो ही सुहावे तुरा

    गुरु गारुड़ी बीर पुरा

    नैन चीर के पैनही मुद्रा

    कान फाड़ के खाये निद्रा

    अणहद ध्वनि धुनक बाजे

    नाग-सुर धुनुक गरजे

    चल चल चल

    निरंजन जंगल के जिवड़े

    खेलना होय तो उलट दृष्टि से खेल

    आबी करूँगा तेरा तमाशा

    पैल तेरी मुंडी काटूँगा

    साप सब भुले बिचु किड़े

    प्रपंच के कोठरी में आके पड़े

    बड़े-बड़े जानवर पाले

    हरे लाल सफेत

    उजले काले पिले भले बे भला हाँडी बाग

    अभिमान जिवड़े झुट मुट चिपीच लढ़े

    नहिँ कहूँ तो ब्रह्मांड काटने दौरे

    देखो मिया हाय हाय-हाय

    डंख मारा बे डंख मारा

    सो बड़ बड़े कु नहीं उतारा

    जब गुरु ज्ञान का लगाया मोहरा

    ज़हर उतारा

    देखो मिया बाजेगिरी विद्या खेल

    हॉड़ीबाग बड़ा अलबेला

    हात हलावे पाँव हालावे

    भाले भोले लोक भुलावे

    बे हाँडी बाग

    बाप बड़ा क्या बेटा बड़ा

    बेटे आगे बाप खड़ा

    गुरु बड़ा क्या चेला बड़ा

    चेले आगे गुरु खड़ा

    चेला तो प्रेम म्हेल पर चढ़ा

    धनि बड़ा क्या चाकर बड़ा

    चाकर आगे धनी खड़ा

    सास बड़ी क्या बहू बड़ी

    बहु आगे सास खड़ी

    बीबी बड़ी क्या बाँदी बड़ी

    बाँदी आगे बीबी खड़ी

    निराधार की ले कर छड़ी

    बीबी खसम की छाती पर चढ़ी

    तैं बड़ा क्या मैं बड़ा

    मेरे आगे तैं खड़ा

    मैं नहीं मैं नहीं

    आलम छाया मेरे गुरु

    ज्ञानी कूँ ज्ञान लगाऊँ

    लोभे आँधे कू उड़ाऊँ

    फुंक मारू तो जा जा जा

    बोध के पहाड़ पर जा

    बच्या जाहाँ आता नहीं ताहाँ ज्या

    मेरे सद्गुरू दाता कू शरण ज्या

    मेरे सद्गुरू दाता इतनी सी लकरी

    मूम मंतर हात मो पकरी

    जीदर दौरा ऊदर दौरी

    फेर देखे तो मेरी मेरे सात

    देख अबी करूँगा खबूतर का तमाशा

    बिन पर से उड़ता है कैसा

    खेल खेलते अविद्य के खलिते में घुसा

    बाहेर कैसे आवेगा

    आव बे आव बाहेरे आव

    जिसे नहीं हात ना पाव

    जिसे नही गाँव ठाँव

    जिसे नहीं रूप रेखा गाँव

    भाव ना अभाव कछु नहीं

    धीरे धीरे तेरा बी मंतर बोलूँ

    लिंग देह की गाँठ खोलूँ

    एक बार ऐसा खेल खेलूँ

    कि मेरे बड़े बड़े खेले थे

    हा तो एक एक के दो

    दो के तीन तीन के चार

    चार के पाँच पाँच के पचीस पचीस के छब्बीस

    छब्बीस का एक

    एक बी नहीं तो एका जनार्दन देख

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