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कहैं ‘कबीर’ सुनो हो साधो अमृत-बचन हमार

कबीर

कहैं ‘कबीर’ सुनो हो साधो अमृत-बचन हमार

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    कहैं 'कबीर' सुनो हो साधो अमृत-बचन हमार

    जो भल चाहो आपनौंं परखो करो बिचार

    जे करता तैं ऊपजै तासों परि गायो बीच

    अपनी बुद्धि विवेक बिन सहज बिसाही मीच

    यहि मेते सब मत चलै यही चल्यौ उपदेस

    निश्चै गहि निर्भा रहो सुन परम तत्त सन्देस

    कोहि गावौ कोहि धावहू छोड़ो सकल धमार

    यह हिरदे सब को बसे क्यूँ सेवो सुन्न-उजाड़

    दूर हि करता थापि कै करी दूर की आस

    जो करता थापि कै करि दूर की आस

    जो करता दूरै हुते तो को जग सिरजै आन

    जो जानो यँह है नहीं तो तुम धोवो दूर

    दूर से दूर भ्रमि भ्रमि निष्फल मरो बिसूर

    दुरलभ दरसन दूर के नियर सदा सुख-बास

    कहैं 'कबीर' मोहिं व्यापिया मत दुख पावै दास

    आप अपनपौ चीन्हहू नख-सिख सहित 'कबीर'

    आनंद-मंगल गावहु होही अपनपौ वीर

    सुनो! साधु, कबीर कहते हैं कि हमारा वचन अमृत है. अगर भला चाहते हो तो हमारे वचन को परखो और उस पर विचार करो. तुम अपने कर्ता (रचयिता, सृजक) से अलग हो गए हो. तुमने अपनी बुद्धि खो दी है और सहज ही मौत को मोल ले लिया है. सारे मत यहाँ से चलते हैं, सारे उपदेश यहीं से निकलते हैं. मन में निश्चय पैदा करो और भय त्याग दो और परम सत्य का संदेश मुझसे सुनो. तुम किसके गीत गाते हो, किसका ध्यान करते हो. अरे साकार के इस भ्रम से बाहर निकलो. वह तो सबके हृदय में बसता है फिर उजाड़ और निर्जन स्थानों में मारे-मारे फिरने से क्या फायदा. अगर तुमने सृष्ट को दूर रखा है तो स्पष्ट है कि तुम दूरी की पूजा कर रहे हो. अगर कर्ता (ईश्वर) सचमुच दूर है तो फिर इस आस-पास की दुनिया को किसने पैदा किया है. अगत तुमने उसको दूर समझ लिया है तो तुम दूर से दूर उसकी खोज में जाओगे, लेकिन वह रोने-बिसूरने और आँसू बहाने से भी नहीं मिल सकता. जब वह दूर है तो उसका दर्शन भी दूर है. जब वह पास है तो सदा सुख ही सुख है. ‘कबीर’ कहते हैं कि बंदे, क्यों दुख उठाता है, वो तो तेरे अस्तित्व में व्याप्त है. अपने आपको पहचानो, ‘कबीर’ वस सर से पाँ तक तुम में बसा हुआ है. आनंद-मंगल गाओ और अपने मन को स्थिर रखो.

    (अनुवाद: सरदार जाफ़री)

    स्रोत :
    • पुस्तक : कबीर समग्र (पृष्ठ 781)
    • रचनाकार :कबीर
    • प्रकाशन : हिन्दी प्रचारक पब्लिकेशन प्रा.लि., वाराणसी (2001)

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