तू सूरत नहीं निहार वह अंड में सारा है
तू सूरत नहीं निहार वह अंड में सारा है
तू हिरदे सोच विचार यह देस हमारा है
सतगुरू दरस होंय जब भाई वह दें तुम को प्रेम चिताई
सूरत-निरत के भेद बताई तब देखे अण्ड कै पारा है
सकल जगत में सत की नगरी चित्त भुलावै बाँकी डगरी
सो पहुँचे चाले बिन पग री ऐसा खेल अपारा है
तु उसकी सूरत अपनी आँखों में बसा ले और देख की सारा ब्रहमाण्ड उसी से भरा हुआ है. तू हृदय में सोच तो मलूम होगा कि यह सारा देश तेरा अपना है. जिस दिन सतगुरू के दर्शन होंगे उस दिन प्रेम जाग जाएगा, सुरत (प्रेम) और निरत (वैराग्य) के सारे रहस्य प्रगट हो जएंगे और तब मालूम होगा कि यह (इस ब्रहमाण्ड में होते हुए भी) ब्रहमाण्ड से परे हैं. सारा जगत सत्य की नगरी है, इसको टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में मन भटक जाता है. यह कैसा अजीब खेल है कि इन मार्गों पर जो पैरों के बिना चलता है वही मंज़िल तक पहुँचता है.
वहाँ की लीला अनंत है और अपार रास-विलास है. यह मिल जाए तो दुनिया का सारा खोना और पाना व्यर्थ है. वही अनंत अपार निर्वाण है. इसी में सारे लोक में सुरति (प्रेम) का अस्तित्व है. सत्तपुरुष ने नया तन धारण किया है, हर रूप में उसी (साहब) कि शक्ल दिखाई दे रही है.
बाग़ महक रहे हैं और फुल्वारियाँ खिली हुई हैं, अमृत की धारा बह रही है. वहाँ हंस (आत्मा) मगन हो कर क्रिड़ा कर रहे हैं और अनहद नाद आकाश में गूँज रहा है.
उसके बीच में वह सिहासन लटका हुआ है जिस पर महापुरुष विराजमान हैं. और उसका दर्शन इतना नयनाभिराम है कि उसके एक बाल की ज्योति से लाखों सूरज शरमा जाते हैं.
पंथ के बिना सत-राज गूँज रहा है जो दिल में उतर जाता है जन्म-जन्म की अमृत-धारा बह रही है और अमृत की फुहार पड़ रही है.
वह जिसे शून्य समझा जाता है वही सबसे बड़ा सत्य है, उसी में सत्य का भंडार है निःतत्व रचना उसी से हुई है, जो सबसे न्यारा है.
लीला सुक्ख अनंत वहाँ की
जहाँ रास-विलास अपारा है
गहन-तजन छूटै यह पाई
फिर नहि पाना सताना है
पद निरवान है अनंत अपारा सुरति-मूरति लोक पसारा
सत्त पुरुष नूतन तन धारा साहिब सकल रूप सारा है
बाग-बगीचे खिली फुलवारी अमृत लहरै हो रही जारी
हंसा केल करत तहँ भारी जहँ अनहद घूरै अपारा है
ता मध अधर सिहासन गाजै पुरुष महा तहँ अधिक विराजै
कोटिन सुर रोम इक लाजै ऐसा पुरुष दीदारा है
पंथ बिना सतराग उधारैं जो बेधत हिये मंझारा है
जन्म-जन्म का अमृत धारा जहँ अधर-अमृत फुहारा है
सत से सत्त सुन्न कहलाई सत्त भँडार याहि के माँही
निःतत रचना ताहि रचाई जो सबहिन ते न्यारा है
अहद लोक वहाँ है भाई पुरुष अनामी अकह कहाई
जो पहुँचे जानेगे वाही कहन सुनन ते न्यारा है
रूप-सरूप कछु वहँ नाहीं ठौर-ठाँव कछु दीसै नाहीं
अजर-तूल कछु दृष्टि न आई कैसे कहूँ सुमारा है
जापर किरपा करिहैं साईं अनहद मारग गावै ताही
उदभव परलय पावत नाहीं जब पावै दीदारा हो
कहै 'कबीर' मुख कहा न जाई ना कागद पर अंक चढ़ाई
मानों गूँगे-सम गुड़ खाई कैसे बचन उचारा हो
- पुस्तक : कबीर समग्र (पृष्ठ 779)
- रचनाकार :कबीर
- प्रकाशन : हिन्दी प्रचारक पब्लिकेशन प्रा.लि., वाराणसी (2001)
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