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अगर आँ तुर्क-ए-शीराज़ी ब-दस्त आरद दिल-ए-मा रा

हाफ़िज़

अगर आँ तुर्क-ए-शीराज़ी ब-दस्त आरद दिल-ए-मा रा

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    रोचक तथ्य

    अनुवाद: शंकर महेशवरी

    अगर आँ तुर्क-ए-शीराज़ी ब-दस्त आरद दिल-ए-मा रा

    ब-ख़ाल-ए-हिंदुवश बख़्शम समरक़ंद-ओ-बुख़ारा रा

    अगर वो शीराज़ी मा’शूक़ हमारा दिल थाम ले

    तो उस के दिल-फ़रेब तिल के इ’वज़ में समरक़ंद और बुख़ारा बख़्श दूँ

    ब-देह साक़ी मय-ए-बाक़ी कि दर जन्नत न-ख़्वाही याफ़्त

    कनार-ए-आब-ए-रुकनाबाद-ओ-गुल-गश्त-ए-मुसल्ला रा

    साक़ी बाक़ी शराब भी दे दे, इसलिए कि तू जन्नत में पा सकेगा रुक्नबाद की नहर का किनारा, और मुसल्ला की सैर-गाह

    फ़ुग़ाँ कीं लूलियान-ए-शोख़ शीरीं-कार शहर-आशोब

    चुनाँ बुरदंद सब्र अज़ दिल कि तुर्काँ-ख़्वान-ए-यग़्मा रा

    फ़र्याद के ये शरीर, शीरीं कार शहर को फ़ित्ना में मुब्तला करने वाला मा’शूक़ दिल से सब्र को इस तरह लूट ले गए जैसा कि माल-ए-ग़नीमत के ख़वान, डाकू

    ज़े इ'श्क़-ए-ना-तमाम-ए-मा जमाल-ए-यार मुसतग़नीस्त

    ब-आब-ओ-रंग-ओ-ख़ाल-ओ-ख़त चे हाजत रू-ए-ज़ेबा रा

    हमारे नाक़िस इ’श्क़ से, यार का हुस्न बे-नयाज़ है

    हसीन चेहरे को आब-ओ-रंग और तिल और ख़त की क्या ज़रूरत है

    मन अज़ आँ हुस्न-ए-रोज़-अफ़्ज़ूँ कि यूसुफ़ दाश्त दानिस्तम

    कि इ'श्क़ अज़ पर्दः-ए-इ'स्मत बरूँ आरद ज़ुलेख़ा रा

    मैं उस, रोज़-ब-रोज़ बढ़ने वाले हुस्न से, जो कि यूसुफ़ रखते थे जान गया था कि इ’श्क़ ज़ुलेख़ा को, पाकी के पर्दे से बाहर निकाल लाएगा

    हदीस अज़ मुत्रिब-ओ-मय गोय-ओ-राज़-ए-दहर कमतर जू

    कि कस न-गुशूद-ओ-न-गुशायद ब-हिकमत ईं मुअ’म्मा रा

    गवय्ये और शराब की बात कर, और ज़माना का राज़ कम तलाश कर

    इसलिए कि दानाई से किसी ने ये मुअ’म्मा खोला है, वो खोले

    नसीहत गोश कुन जानाँ कि अज़ जाँ दोस्त-तर दारंद

    जवानान-ए-सआ'दत-मंद पंद-ए-पीर-ए-दाना रा

    प्यारे! नसीहत सुन ले, इसलिए कि जान से ज़्यादा प्यारा रखते हैं

    सआ’दत-मंद नौजवान, बूढ़े समझदार की नसीहत को

    बदम गुफ़्ती-ओ-ख़ुर्सनदम अ’फ़ाकल्लाह निको गुफ़्ती

    जवाब-ए-तल्ख़ मी-ज़ेबद लब-ए-ला'ल-ए-शक्कर-ख़ा रा

    तूने मुझे बुरा कहा, और मैं ख़ुश हूँ ख़ुदा तुझे मुआ’फ़ करे तूने अच्छा कहा लाल जैसे, शकर चबाने वाले होंटों को कड़वा जवाब जे़ब नहीं देता है

    ग़ज़ल गुफ़्ती-ओ-दुर्र सुफ़्ती बिया-ओ-ख़ुश ब-ख़्वाँ 'हाफ़िज़'

    कि बर नज़्म-ए-तू अफ़्शानद फ़लक अ’क़्द-ए-सुरय्या रा

    ‘हाफ़िज़’ तूने ग़ज़ल कही और मोती पिरोए,आ और ख़ुश-अल्हानी से पढ़

    इसलिए कि आसमान तेरी नज़्म पर, सुरय्या के, हार निछावर करेगा

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