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ऐ मुनव्वर-ए-हर-दो-आ'लम ज़े-आफ़ताब-ए-रू-ए-तू

असीरी लाहिजी

ऐ मुनव्वर-ए-हर-दो-आ'लम ज़े-आफ़ताब-ए-रू-ए-तू

असीरी लाहिजी

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    मुनव्वर-ए-हर-दो-आ'लम ज़े-आफ़ताब-ए-रू-ए-तू

    वय मोअ'त्तर-ए-मुल्क-ए-जाँ अज़ ज़ुल्फ़-ए-अंबर बू-ए-तू

    आपके सूर्य-समान मुखमंडल से दोनों लोक आलोकित हैं, आपकी सुगंधित केश-राशि की महक से देश-देशांतर सुवासित है।

    हर कसे रा मैल-ए-दिल बाशद ब-सू-ए-ईन-ओ-आँ

    मैल-ए-जान-ए-मा ब-आ'लम नीस्त इल्ला सू-ए-तू

    सबकी हृदय-आकांक्षा कभी इस वस्तु की होती है, कभी उस वस्तु की, किन्तु हमारे मन की अभिलाषा तो संसार है, ही कोई और केवल आप ही हैं।

    हाजियाँ रा दिल तवाफ़-ए-का'बः मी-ख़्वाहद वले

    दाइयः-ए-जानम न-बाशद ग़ैर-ए-तौफ़-ए-कू-ए-तू

    हाजियों का हृदय तो काबे के तवाफ़ (परिक्रमा करना) का आकांक्षी होता है, पर मेरी आत्मा केवल आपके आँगन की परिक्रमा करना चाहती है।

    मी-बुर्द अज़ आशिक़ाँ हर-दम ब-तर्रारी-ओ-फ़न

    अक़्ल-ओ-होश-ओ-दीन-ओ-दिल आँ नर्गीस-ए-जादू-ए-तू

    आपकी नर्गिस-नयनों का जादू हर क्षण प्रेमियों की चेतना, हृदय और धर्म को बड़े कौशल से छीन ले जाता है।

    चूँ 'असीरी' के कुनद मंज़िल ब-मावा-ए-दो-कौन

    गर ब-याबद जा दिल-ए-दीवानः अंदर कू-ए-तू

    असीरी क्यों चाहे अपना ठिकाना दोनों लोकों में बनाना, जब उसके उन्मत्त हृदय को आपके ही आँगन के भीतर स्थान मिल जाये।

    स्रोत :
    • पुस्तक : नग़्मात-ए-सिमा (पृष्ठ 317)
    • प्रकाशन : नूरुलहसन मौदूदी साबरी (1935)

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