इमरोज़ शाह-ए-शाहाँ मेहमाँ शुदस्त मा रा
इमरोज़ शाह-ए-शाहाँ मेहमाँ शुदस्त मा रा
अलाउद्दीन अली अहमद साबिर
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इमरोज़ शाह-ए-शाहाँ मेहमाँ शुदस्त मा रा
जिब्रील बा-मलाएक दर्बाँ शुदस्त मा रा
आज बादशाहों का बादशाह मेरा मेहमान हुआ है
जिब्रईल (फ़रिश्ता )फ़रिश्तों के साथ मेरे घर का दरबान है
दर जल्वा-गाह-ए-वहदत कस्रत कुजा ब-गंजद
हिज्द: हज़ार 'आलम यकसाँ शुदस्त मा रा
वहदत की जलवागाह में अकसरिय्यत की कहां गुंजाइश है, इसलिए अठारह हज़ार आलम हमारे लिए बराबर हैं, यानी वे एक ही में संलग्न हैं।
दर महफ़िल-ए-गदायाँ मुर्सल कुजा ब-गंजद
बे-बर्ग-ओ-बे-नवाई सामाँ शुदस्त मा रा
फकीरों की महफ़िल में मुरसल (क़ासिद) की कहां समाई हो सकती है, जबकि हमारा सामान बे-नवाई और ग़रीबी का शाहिद है।
मा ख़ानः-ए-जहाँ रा बिस्यार सैर कर्दम
ऐ शैख़-ए-बुत-परस्ती ईमाँ शुदस्त मा रा
हमने दुनिया के घर की बहुत सैर की,
अब ऐ शेख! बुत-परस्ती हमारा ईमान हो गया है।
'अहमद' बहिश्त-ओ-दोज़ख़ बर 'आशिक़ाँ हराम अस्त
ईं जा रज़ा-ए-जानाँ रिज़वाँ शुदस्त मारा
‘अहमद’ स्वर्ग और नर्क आ’शिक़ों पर हराम है
महबूब की मर्ज़ी ही हमारे लिए रिज़वान हो चुकी है
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