मंज़िल-ए-इ’श्क़ अज़ मकाने दीगरस्त
मंज़िल-ए-इ’श्क़ अज़ मकाने दीगरस्त
मर्द-ए-मा'नी रा निशाने दीगरस्त
इ’श्क़ की मंज़िल का पता किसी और जगह से मिलता है
ज्ञानी का निशान कुछ और ही होता है
अ'क़्ल कै दानद कि ईं रम्ज़ अज़ कुजास्त
कीं जमाअ’त रा निशाने दीगरस्त
अक़्ल को क्या मा’लूम कि ये राज़ क्या है
इस जमाअ’त का निशान तो कुछ और ही है
आँ फ़क़ीराने कि ईं जामे रवंद
हर-यके साहिब-क़िराने दीगरस्त
वो फ़क़ीर जो यहाँ से जा रहे हैं
उन में से हर एक सात मुल्कों का बादशाह है
दिल चे मी-बंदी दरीं फ़ानी जहाँ
कीं जहाँ रा हम जहाने दीगरस्त
इस दुनिया से दिल क्यों लगाते हो
इस दुनिया के अ’लावा भी एक दुनिया है
दर दिल-ए-मिस्कीन-ए-हर-बेचारः-ए
शाह रा गंजे निहाने दीगरस्त
हर बीमार और दरिद्र दिल में बादशाह
के लिए एक और छुपा ख़ज़ाना है
बर-सर-ए-बाज़ार-ए-सर्राफ़ान-ए-इ’श्क़
ज़ेर-ए-हर-दारे जवाने दीगरस्त
इ’श्क़ की दीवानगी रखने वाले के लिए बाज़ार में
हर सूली के नीचे एक जवान और है
कुश्तगान-ए-ख़ंजर-ए-तस्लीम रा
हर ज़माँ अज़ ग़ैब जाने दीगरस्त
इ’श्क़ के ख़ंजर से मक़्तूलों (जिन की हत्या की गई हो)
को ग़ैब से हर पल एक नई जान प्रदान होती है
दिल खुरद ज़ख्मे ज़े दीद: ख़ूँ चकद
ईं चुनीं ज़ख़्म अज़ कमाने दीगरस्त
दिल ज़ख़्म खाए जा रहा है आँखों से ख़ून जारी है
ऐसा ज़ख़्म तो कि सी और कमान से ही लग सकता है
इ'श्क़ रा दर मदरसः ता'लीम नीस्त
काँ चुनाँ इ’ल्म अज़ बयाने दीगरस्त
इ’श्क़ की ता’लीम मदरसे में नहीं दी जाती
इस तरह का इ’ल्म कोई और नहीं सिखा सकता है
'अहमदा' ता गुम न-कर्दी होश-दार
कीं जरस अज़ कारवाने दीगरस्त
ऐ ‘अहमद’ होश्यार रहो ताकि तुम गुमराह न हो
इसलिए कि ये जरस (क़ाफ़िले की घंटी) किसी और क़ाफ़िले का है
- पुस्तक : नग़्मात-ए-सिमा (पृष्ठ 50)
- रचनाकार : सय्यद नुरुलहसन मौदूदी साबिरी फ़ज़्ल रहमानी
- प्रकाशन : सय्यद नुरुलहसन मौदूदी साबिरी फ़ज़्ल रहमानी (1935)
- पुस्तक : नग़मातुल उंस फ़ी मजालिसिल क़ुदस (पृष्ठ 153)
- रचनाकार :शाह हिलाल अहमद क़ादरी
- प्रकाशन : दारुल एशा'अत ख़ानक़ाह मुजीबिया (2016)
- संस्करण : First
- पुस्तक : दीवान-ए-हज़रत अहमद जाम ज़िंदः पील (पृष्ठ 41)
- रचनाकार : शैख़ अहमद जाम
- प्रकाशन : मतबा मुंशी नवल किशोर
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