ऐ ब-ऐ'न-ए-हक़ीक़त अंदर ऐन
बाज़ कर्द: ज़े-बह्र-ए-दीदन ऐन
तुम उस स्थान तक पहुँच गये हो, जहाँ पर ईश्वरीय वास्तविकता प्रकट हो जाती है, और फिर भी उसे देखने के लिये भरसक प्रयत्न कर रहे हो।
पेश-ए-ऐ'न-ए-तू ऐ'न-ए-दोस्त अयाँ
तू रसीदः ब-ऐ'न व गोई ईं
तुम ईश्वर के भेदों को जानते हो। वह तुम्हारी दृष्टि के सम्मुख है। परन्तु इस पर भी यह पूछ रहे हो कि वह क्या है।
चूँ तू आयद ज़े-ऐ'न-ए-तू हम: तू
ईस्तादा चू सद्द-ए-ज़ुलक़रनैन
जब तुमको अपने ही अन्दर अपना वास्तविक स्वरूप दिखलाई देने लगेगा तो तुम्हारा अभिमान तुम्हारे सामने ऐसा ही खड़ा रहेगा जैसा कि सिकन्दर के सामने दरवाज़े की चौखट।
ता तू गोई तू आँ न तू तू तुई
आँ तू अज़ तू दरोग़ बाशद-ओ-म-ईन
जिस समय तक तुम्हारे हृदय से 'मैं' और 'तू' का भेद-भाव दूर नहीं होगा, उस समय तक तुम्हारी स्वार्थ भावनाएँ भी दूर नहीं हो सकती हैं। इसके अतिरिक्त 'तू' शब्द का मुख से निकालना भी तुम्हारे लिए ठीक नहीं होगा।
के मुसल्लम बुवद तुरा तौहीद
चूँ कि इसबात मी-कुनी इसनैन
जब कि तुम 'मैं' और 'तू' को दो सिद्ध कर रहे हो और उनमें अन्तर समझते हो तो फिर ईश्वरीय मार्ग में आगे बढ़ने के योग्य तुम नहीं हो।
पेश-ए-तू ज़ाँ मियाँ ब-बातिल-ओ-हक़
चंद गोई तफ़ावुत माबैन
तुम स्वयम् इस बात को समझ सकते हो कि ऐसा विचार रखते हुए ईश्वर तक पहुँचना और उसके भेदों को समझना तुम्हारे लिए कितना कठिन है।
दर यके हाल मुस्तहील बुवद
इज्तिमा-ए-वुजूद-ए-मुख़्तलिफ़ैन
एक ही अवस्था और एक ही समय में दो प्रतिकूल बातों का एकत्रित होना असम्भव है, और बिल्कुल असम्भव है।
अव्वल अज़ ख़्वेश पेश न क़दमी
ता जुदा गर्दद अस्ल-ए-माल अज़ दैन
दोनों बातें इकट्ठी हो ही नहीं सकती, सब से पहले इस बात का प्रयत्न करो कि तुम्हारा सारा अहंकार मिट जावे, जिससे कि तुम्हारी वास्तविकता, धर्म से पृथक् हो जावे।
नज़र अज़ ग़ैर मुंक़ता' कुन ज़ाँ कि
शाहिद-ए-ग़ैर दर दिल आमद ऐन
दूसरों की तरफ़ से 'अपनी दृष्टि फेर लो। कारण कि यदि उनकी तरफ़ देखोगे तो तुम्हारे हृदय में बुराई उत्पन्न होगी।
चंद गोई ज़े-हाल-ए-ग़ैर कि क़ाल
क़ाल-ए-बे-हाल आर बाशद-ओ-शैन
अपना वर्णन कब तक रहेगा। इससे किसी प्रकार के लाभ की सम्भावना नहीं है। इन मौखिक बातों से और दा’वों से तुम्हें लज्जित होना पड़ेगा और बद-नामी उठानी पड़ेगी।
चूँ 'सनाई' ज़े-ख़ुद न-मुंक़तई
चे हिकायत कुनी ज़े-हाल-ए-हुसैन
सनाई का कहना है कि यदि तुम अपने अपनत्व का परित्याग नहीं करते हो तो फिर 'हुसैन' का क्या वर्णन करते हो?
- पुस्तक : दीवान-ए-सनाई ग़ज़नवी (पृष्ठ 551)
- रचनाकार : हकीम सनाई
- प्रकाशन : इंतिशारात-ए-सनाई, ईरान (1983)
- संस्करण : 7th
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