हिकायत-ए-मोबिद-ए-हिन्दु कि मा'रिफ़त याफ़्त
मोबिदे अज़ किश्वर-ए-हिन्दोस्ताँ
रहगुज़रे कर्द सू-ए-बोस्ताँ
भारतवर्ष में, एक दिन एक पारसा मनुष्य बाग़ की तरफ़ घूमने निकल गया।
मरहल:-ए-दीद मुनक़्क़श रूबात
मुम्लिकते याफ़्त मुज़व्वर बिसात
उसे वहाँ बहुत ही सुन्दर स्थान दिखलाई दिया। उसमें धास का सुन्दर फ़र्श बिछा हुआ था।
ग़ुंचः ब-ख़ूँ बस्तः चु गर्दूं कमर
लाल:-ए-कम-उम्र ज़े-ख़ुद बे-ख़बर
और मनोहर कलियाँ चित्त को आकर्षित कर रही थीं। लाला के पुष्प मस्ती में झूम रहे थे।
मोहलत-ए-शाँ ता नफ़से बेश न
हेच कसे आक़िबत अंदेश न
परन्तु उसका जीवन कुछ ही दिनों का था। इस तरफ़ किसी का भी ध्यान नहीं जाता था।
पीर चू जाँ रौज़:-ए-मीनू गुज़श्त
बाद-ए-मह-ए-चन्द बदांसू गुज़श्त
वृद्ध भक्त उस स्थान से अपने घर को लौट गया और उसके कुछ ही महीने बा’द पुन: उधर ही आ निकला।
जाँ गुल-ओ-बुलबुल कि दराँ बाग़ दीद
नाल:-ए-मुश्ते ज़ग़न-ओ-ज़ाग़ दीद
उसने उस उपवन में पुष्प खिले हुए देखे थे और बुलबुलों का राग सुना था। अब वहाँ पर चील-कौओ का जमघट देखा।
दोज़ख़े उफ़्ताद बजाने बहिश्त
कै़सर-ए-क़स्र शुदः दर कुनिश्त
स्वर्ग, नर्क में परिणत हो गया था। उस सुन्दर उपवन की शोभा अथोत् पुष्प किनारा कर गया था।
सब्ज़ः ब-तहलील ब-ख़ारे शुदः
दस्तः-ए-गुल पुशत:-ए-ख़़ारे शुदः
और घास जल कर पीली पड़ गई थी। पुष्पों के गुच्छों के स्थान पर अब कंटक ही कंटक दिखलाई पड़ते थे।
पीर दराँ तेज़ रवाँ बिनिगरीस्त
बर हम: खन्दीद ब-ख़ुद बरगिरीस्त
वृद्ध शीघ्रता से इन सब वस्तुओं को देख गया। फिर वह इन सब पर हँसा और अपने ऊपर आँसू गिराए।
गुफ़्त कि हंगाम-ए-नुमाइंदगी
हेच नदारद सर-ए-पाबंदगी
उसने अपने मनमें सोचा कि आख़िर, दिखावे का कोई मूल्य नहीं होता है।
हर-चे सर अज़ ख़ाक-ओ-आब कशद
आक़िबशत सर ब-ख़राबी कशद
मिट्टी और पानी के संयोग से जो वस्तु उत्पन्न हुई है, वह नाश होकर ही रहती है।
ब ज़े-ख़राबी चू दिगर कुए नीस्त
जुज़ ब-ख़राबी शुदनम रूए नीस्त
जब विनाश का मार्ग ही सर्वोत्तम है फिर उसे छोड़ कर मुझे और किस तरफ़ जाना चाहिये।
चूँ नज़र अज़ बीनिश-ए-तौफ़ीक़ साख़्त
आरिफ़-ए-ख़ुद-गश्त-ओ-ख़ुदा रा शनाख़्त
जब उसमें ज्ञान उत्पन्न हुआ तब उसने अपने स्वरूप को समझा औ र ईश्वर को पहचान लिया।
सैरफ़े गौहर-ए-आँ राज़ शुद
ता ब-अदम सू-ए-गोहर बाज़ शुद
अब वह इस रहस्य को पहचानने वाला हो गया और ईश्वर के मूल्य को समझ कर उसी तरफ़ बढ़ गया।
ऐ के मुसलमानी-ओ-गबरीत नीस्त
चश्म-ए-तोरा क़त्र:-ए-अबरीत नीस्त
मूर्ख! न तो तू धर्म का ही कुछ ज्ञान रखता है और न ईश्वर को समझने की शक्ति। तू तो नितान्त निर्लज्ज है।
कमतर अज़ाँ मोबिद-ए-हिन्दू म-बाश
तर्क-ए-जहाँ-गीर-ओ-जहाँ-जू म-बाश
उस हिन्दू ब्राह्मण से पीछे मत रह जा। इस संसार की खोज मत कर, इसका त्याग कर देना ही उत्तम है।
ख़ेज-ओ-रहा कुन कमर-ए-कुल ज़े-दस्त
कू कमर-ए-ख़्वेश ब-ख़ून-ए-तू बस्त
इन सांसारिक प्रलोभनों में मत पड़, वह तुझे मिटा डालने पर तैयार हैं।
चंद चू गुल ख़ीरा-सरी साख़्तन
सर ब-कुलाह-ओ-कमर अफ़्राख़़्तन
एक पुष्प के समान अपने रंग और रूप पर कब तक गर्व करता रहेगा। टोपी और पटके पर ग़ुरूर करता रहेगा।
हस्त कुलाह-ओ-कमर आफ़त-ए-इश्क़
हर-दो रहा कुन ब-ख़राबात-ए-इश्क़
टोपी और पटका प्रेम के लिये आफ़तें हैं। प्रेम के मार्ग में इनका त्याग अवश्य है।
गह कुलहत ख़ाजगी-ए-गिल देहद
गह कमरत बन्दगी-ए-दिल देहद
कभी यह ताज तुझे पुष्प के समान इस उपवन का सम्राट् बना देता है और कभी यह पटका तुझे इच्छाओं का दास बना देता है।
कोश कजीं ख़्वाजः ग़ुलामी रही
ता चू 'निज़ामी' ज़े-निज़ामी रही
प्रयत्न कर कि दास के स्थान पर स्वामी होकर रहे और फिर “निज़ामी के समान अपनत्व को मिटा कर स्वतंत्र हो जावे।
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