सफ़र कर्दम बहर शहरे दवीदम
चू शहर-ए-'इश्क़-ए-मन शहरे न-दीदम
मैंने बहुत सफ़र किया और शहर-शहर का चक्कर लगाया
’इश्क़ के शहर की तरह मैंने कोई शहर नहीं देखा
न-दानिस्तम ज़ अव्वल क़द्र-ए-आँ शहर
ज़ नादानी बसे ग़ुर्बत कशीदम
मुझे पहले उस शहर के मर्तबे का ’इल्म नहीं हुआ
मैंने नादानी में अजनबिय्यत की ज़िंदगी गुज़ारी
बग़ैर अज़ 'इश्क़ आवाज़-ए-दुहुल बूद
हर आवाज़े कि दर 'आलम शनीदम
मैं दुनिया में जो भी आवाज़ सुनी वो मुझे
बग़ैर ’इश्क़ के ढोल की आवाज़ लगी
बसे गुफ़्तम कि मन आँ-जा न-ख़्वाहम
बसे नालीदम-ओ-जामः दरीदम
मैंने बहुत कहा कि मैं उस जगह जाना नहीं चाहता
मैंने बहुत गिर्या-ओ-ज़ारी की और कपड़े फाड़े
फ़ुसून-ए-ऊ जहाँ रा बर जहानद
कि बाशम मन कि मन बस ना-पदीदम
उस का जादू पूरी दुनिया पर हावी है
मेरी क्या हैसियत, मैं कुछ भी नहीं हूँ
ब-गोयम जाँ ब-रौ हर जा कि ख़्वाही
क़लम ब-शिकस्त चूँ ईं जा रसीदम
मैं कहता हूँ मेरी जाँ तुझे जहाँ जाना हो जाओ
मैं जब इस बात पर पहुँचा तो क़लम टूट गया
- पुस्तक : कुल्लियात-ए-शम्स तबरेज़ी (पृष्ठ 505)
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