मुल्ला नसरुद्दीन- तीसरी दास्तान
पाक है वह जो जीता है और मरता नहीं! - अल्फ़ लैला।
अमीर ख़ोजा नसरुद्दीन पर भरोसा करने लगे थे और उस पर मेहरबान थे। वह हर मुआ’मले में उन का सबसे नज़दीकी सलाहकार बन गया था। ख़ोजा नसरुद्दीन फ़ैसले करता, अमीर उन पर दस्तख़त करते और वज़ीर बख़्तियार सिर्फ़ उन पर पीतल की मुहर लगाता।
सड़कों व पुलों पर से गुज़रने के टैक्स को ख़त्म करने और बाज़ार लगाने पर टैक्स कम करने का अमीर का हुक्म पढ़ते हुए बख़्तियार तअ’ज्जुब से सोचने लगाः ऐ रहीम! ऐ अल्लाह! वाक़ई हमारी सल्तनत में इन्तिहा हो रही है। जल्द ही ख़ज़ाना ख़ाली हो जाएगा! इस नये आलिम ने- ख़ुदा करे इस के पेट में कीड़े पड़े- एक हफ़्ते में वह सब ख़त्म कर दिया, जो मैं ने दस बरसों में बनाया था!
एक दिन उसने अपना यह शुबहा अमीर पर ज़ाहिर करने की हिम्मत की।
उन्हों ने जवाब दियाः ऐ नाकारा इंसान! तू जानता क्या है? तू समझता ही क्या है ? इन हुक्मों से, जिन से ख़ज़ाना ख़ाली हो जायगा, हम कम ग़मज़दा नहीं है। लेकिन अगर सितारों का यही हुक्म है, तो हम कर ही क्या सकते हैं? सब्र कर, बख़्तियार! यह थोड़े ही दिनों की बात है। सितारों को नेक होने दे। मौलाना हुसैन! ज़रा इसे समझाओ तो।
ख़ोजा नसरुद्दीन वज़ीर-ए-आज़म को एक तरफ़ ले गया। उसे गद्दे पर बैठाया और तफ़्सील से उसे समझाया कि लुहारों, तांबागरों और छिपिलगरों पर लगे नये टैक्स फ़ौरन ख़त्म होने क्यों ज़रुरी हैं।
सितारा अल-अव्वा संबुला (कन्या) के बुर्ज में है और सितारा अल्-बल्द क़ौस के बुर्ज में है, ये दोनों सितारे दल्ब (कुम्भ) के बुर्ज में बैठे सितारे सादबुला के मुख़ालिफ़ है। आप समझ रहे हैं न वज़ीर साहब? ये सितारे मुख़ालिफ़ हैं और क़ेरान (योग) में नहीं है!
तो क्या हुआ? बख़्तियार ने जवाब दिया। क्या हुआ अगर के मुख़ालिफ़ है? पहले भी तो वे मुख़ालिफ़ थे। लेकिन इस से लगातार टैक्स वसूल करते रहने में कोई रुकावट नहीं पड़ी।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहाः लेकिन आप सौर (वृष) की रास में बैठे सितारे अल-दबारां को भूल रहे हैं! ऐ वज़ीर! ज़रा आसमान की तरफ़ नज़र उठाओ। तुम्हें यह ख़ुद दिखायी दे जायगा।
वज़ीर ज़िद में बोलता रहाः मैं आसमान को क्यों देखूं? मेरा फ़र्ज़ तो ख़ज़ाने को देखना है! उस में इज़ाफ़ा करना और उस की हिफ़ाज़त करना है। और मैं देख रहा हूं कि जब से तुम महल में आये हो, ख़ज़ाने की आमदनी कम हो गयी है। टैक्सों की वसूली भी कम हो गयी है। शहरी कारीगरों से टैक्स वसूल करने का यही वक़्त है। मुझे बताओ कि हम टैक्स क्यों न वसूल करें?
ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्लायाः क्यों...? अरे पिछले एक घंटे से मैं तुम्हें बता क्या रहा हूं? क्या अब भी तुम्हारी समझ में नहीं आता कि हर रास के लिए चांद के दो अंदाज़ होते है और एक तिहाई..
लेकिन मुझे तो टैक्स वसूल करना है। वज़ीर ने टोका। टैक्स! क्या तुम समझ नहीं पा रहे हो मौलाना साहब?
ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहाः सब्र से काम लो भाई, सब्र से। मैं ने अभी तुम्हें सितारे अस्-सुरैया और आठ सितारों अन्-नाएम...
ख़ोजा नसरुद्दीन ने इतनी पेचीदा और लम्बी बात शुरू कर दी कि वज़ीर के कान बजने लगे और नज़र धुंधली पड़ने लगी। वह उठा और लड़खड़ाता हुआ बाहर निकल गया। ख़ोजा नसरुद्दीन अमीर की तरफ़ मुख़ातिब हुआ और बोलाः ऐ मेरे आक़ा! उम्र ने भले ही उस के सर पर चांदी बिखेर दी हो, लेकिन यह सजावट सिर्फ़ बाहरी है, उसके सर के भीतर जो कुछ है उम्र ने उसे नहीं बदला। वह मेरे इल्म को समझ ही नहीं पाया। ऐ मेरे आक़ा! वह कुछ नहीं समझा। काश, उसे अमीर की ज़हानत और अक़्ल का- जो ख़ुद लुक़मान को भी मात करते हैं- हज़ारवां हिस्सा भी मिला होता।
इत्मिनान और मेहरबानी से अमीर मुस्करा दिये। कई दिन से लगातार ख़ोजा नसरुद्दीन अमीर को समझा रहा था कि उनकी दानाई की कोई मिसाल नहीं। इस में वह पूरी कामयाबी भी हासिल कर चुका था। इसलिए अब जब भी वह कोई बात अमीर को समझाता तो वह बहुत ग़ौर से सारी बात सुनते और इस डर से बहस न करते कि कहीं उनके इल्म की असली गहराई का पता न लग जाय।
...अगले दिन बख़्तियार ने कई दरबारियों के सामने अपने दिल का बोझ हलका कियाः यह नया आलिम तो हम लोगों को बर्बाद कर के छोड़ेगा। जिस दिन टैक्सों की वसूली होती है उसी दिन हम लोगों को अमीर के ख़ज़ाने में आनेवाले रुपयों के सैलाब का कुछ फ़ायदा उठाने और दौलत इकट्ठी करने का मौक़ा मिलता है। लेकिन अब, जब इस सैलाब से कुछ फ़ायदा उठाने का मौक़ा आया है, तब यह मौलाना हुसैन रास्ते में हायल हो गया है। यह फ़ौरन सितारों की कैफ़ियत बताने लगता है। क्या कभी किसी ने यह भी सुना है कि अल्लाह के हुक्म से चलनेवाले सितारे आला शख़्सियतों और बड़े लोगों के लिए तो बदशुगुनी के हों, लेकिन कुछ गुमनाम कारीगरों के लिए, जो मुझे यक़ीन है कि इस वक़्त अपनी कमाई हड़प किये जा रहे हैं और हमें नहीं दे रहे, मुबारक हों? सितारों की ऐसी कैफ़ियत भला सुनी है किसी ने? यह बात किसी किताब में तो लिखी हो नहीं सकती, क्योंकि ऐसी किताब फ़ौरन जला दी गयी होती और उसे लिखने वाले को ला’नत देकर, काफ़िर व मुजरिम बताकर मार डाला जाता।
दरबारी कुछ बोले नहीं, क्योंकि वे समझ नहीं पा रहे थे कि किस का साथ देने में फ़ायदा है- बख़्तियार का या नये आलिम का।
बख़्तियार कहता गयाः टैक्सों की वसूली दिनों-दिन गिरती जा रही है। अब क्या होगा? इस मौलाना हुसैन ने अमीर को यह समझाकर भटका दिया है कि टैक्स वसूली सिर्फ़ थोड़े से दिनों के लिए टाली गयी है, बाद मे ये टैक्स लगाये, बल्कि बढ़ाये भी जा सकते हैं। अमीर उसकी बात का यक़ीन करते है। हम जानते है कि टैक्स मंसूख़ करना आसान है, लेकिन नया टैक्स लगाना बड़ा मुश्किल है। किसी शख़्स को कोई रक़म जब दूसरों की समझने की आ’दत पड़ जाती है, तो आसानी से वह अपनी कमाई उसे दे देता है। लेकिन एक मर्तबा वह ख़ुद उस रक़म को अपने ऊपर ख़र्च करने लगे, तो वह यही चाहेगा कि दुबारा-तिबारा भी यह रक़म अपने ऊपर ही ख़र्च करे।
ख़ज़ाना ख़ाली हो जायगा और अमीर के हम दरबारी बर्बाद हो जायेगे। ज़री सी पोशाक पहनने के बजाय हमें सादा मोटा कपड़ा पहनना पड़ेगा। चार बीवियां रखने बजाय दो बीवियों पर ही गुज़र करनी पड़ेगी। चांदी के बर्तननों की जगह, मिट्टी की रकाबियों में खाना खाना पड़ेगा। मुलायम मेमने की जगह पुलाव में गाय का सख़्त गोश्त खाना पड़ेगा, जो सिर्फ़ कुत्तों और कारीगरों के लायक़ होता है। ये ही वे बातें है जो नया आलिम हमारी क़िस्मत में लिखवा रहा है। जो शख़्स यह न देखे- समझे, वह अन्धा है उस पर ख़ुदा की मार!
नये आलिम के ख़िलाफ़ दरबारियों को उभारने के लिए बख़्तियार इसी तरह बोलता रहा। लेकिन उसकी कोशिश नाकाम रही। अपने नये ओहदे पर मौलाना हुसैन एक के बाद एक कामयाबी हासिल करता गया। तारीफ़ के दिन' तो वह ख़ास तौर पर चमक गया। एक पुरानी रस्म के मुताबिक़ हर महीने अमीर के सामने एक दिन सभी वज़ीर, ओहदेदार, आलिम व शायर इकट्ठे होते थे और उनकी तारीफ़ करने में होड़ करते थे। इस में जो अव्वल आता, उसे इनआ’म मिलता। उस दिन हर एक ने अपना-अपना क़सीदा पढ़ा, लेकिन अमीर को तसल्ली नहीं हुयी। वह बोलेः
पिछली दफ़ा भी तुम लोगों ने ये ही बातें कही थीं। हम देखते है कि तारीफ़ करने में तुम लोग माहिर और मुकम्मल नहीं हो। तुम लोग अपने दिमाग़ों पर ज़ोर डालने को तैयार नहीं हो। लेकिन, आज हम तुम से काम लेकर मानेंगे। हम सवाल करेंगे और तुम्हें इस तरह जवाब देना होगा कि हमारी तारीफ़ भी हो और जवाब में सच्चाई का पुट भी रहे।
ग़ौर से सुनो! हमारा पहला सवाल यहा हैः अगर बुख़ारा के अमीर-ए-आज़म, माबदौलत, बहुत ताक़तवर, और जैसा कि तुम लोगों का दा’वा है, नाक़ाबिल-ए-फ़तह है तो अभी तक पड़ोस के मुस्लिम देशों के सुल्तानों ने हमारी शहंशाहियत को मा नकर अपनी उम्दा सौग़ातें क्यों नहीं भेजीं? हम तुम्हारे जावाबों का इंतिज़ार कर रहे हैं।
दरबारी परेशानी में डूब गये। सीधा जवाब न देकर वे भिनभिनाने लगे। अकेला ख़ोजा नसरुद्दीन बिना ज़रा भी घबड़ाये बैठा रहा। उसकी बारी आयी तो वह बोलाः
अमीर-ए-आज़म मेरे हक़ीर लफ़्ज़ोँ को सुनने की मेहरबानी अ’ता फ़रमाएं। हमारे शहंशाह के सवाल का जवाब बहुत आसान है। पड़ोंस के सभी मुल्कों के सुल्तान हमारे आक़ा की ताक़त के डर से हमेशा कांपते रहते है। वे सोचते है कि 'अगर हम बढ़िया सौग़ात भेजेंगे तो बुख़ारा के ताक़तवर, अज़ीमुश्शान अमीर समझेंगे कि हमारा मुल्क रईस है, जिस से उन्हें फ़ौज लेकर यहां आने और हमारे मुल्क पर कब्ज़ा करने का लालच होगा। लेकिन अगर हम उन्हें मा'मूली सौग़ात भेजें तो वह नाराज़ होकर अपनी फ़ौजें भेज देंगे। बुख़ारा के अमीर बड़े हैं, ताक़तवर है, अज़ीमुश्शान है। सो, हिफ़ाज़त इसी में है कि अपनी नाचीज़ हस्ती की उन्हें याद ही न दिलायी जाय।'
दूसरे सुल्तानों के दिमाग़ों में भी इसी तरह के ख़याल आते हैं। बढ़िया सौग़ात लेकर अपने सफ़ीर बुख़ारा न भेजने की वजह उन लोगों के लगातार डर और अन्देशे की हालत में ढूंढनी होगी जो हमारे शहंशाह की ताक़त ने पैदा कर दी है।
ख़ोजा नसरुद्दीन के जवाब में जो तारीफ़ थी, उस से ख़ुश हो कर अमीर चिल्ला उठेः वाह! अमीर के सवालों का इसी तरह जवाब दिया जाना चाहिए! सुना तुम लोगों ने? ओ बेवक़ूफ़ों और कुन्दज़हनो! इन से सीखो! वाक़ई, इल्म में मौलाना हुसैन तुम सब से दस गुने बड़े हैं। माबदौलत तुम्हारा शाही तौर पर शुक्रिया अदा करते है, मौलाना साहब! दौड़ कर मीर बकावल ख़ोजा नसरुद्दीन के पास पहुंचा और उस के मुंह में मिठाइयां और हलवा ठूंस दिया। ख़ोजा नसरुद्दीन के गाल फूल गए उस का दम घूटने लगा। गहरी चाशनी उस की ठुड्डी तक बहने लगी।
अमीर ने उलझन भरे कई और सवाल किये। हर बार ख़ोजा नसरुद्दीन का जवाब सब से बेहतर साबित हुआ।
दरबारी का सबसे पहला फ़र्ज़ क्या है? अमीर ने पूछा।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब दियाः ऐ अज़ीमुश्शान बादशाह! दरबारी का पहला फ़र्ज़ रोज़ाना अपनी रीढ़ को कसरत कराना है। जिस से उसमें ज़रुरी लोच रहे, जिसके बिना वह वफ़ादारी और आदाब का इज़हार कर ही नहीं सकता। दरबारी की रीढ़ को आसानी से हर तरफ़ मुड़ और घूम सकना चाहिए। मा’मूली इंसान की अकड़ी हुई रीढ़ की तरह उसे नहीं होना चाहिए, जो ठीक से झुक कर सलाम करना भी नहीं जानता।
बहुत ख़ुश होकर अमीर बोलेः बहुत ख़ूब! बिल्कुल सही! रीढ़ की रोज़ाना कसरत! वाह, वाह! हम दूसरी बार मौलाना हुसैन के शाही शुक्रिये का ऐ'लान करते हैं।
एक बार फिर ख़ोजा नसरुद्दीन के मुहं में गर्म मिठाइयां और हलवा ठूंस दिया गया। उस दिन से बहुत से दरबारियों ने बख़्तियार की जगह ख़ोजा नसरुद्दीन की वफ़ादारी शुरू कर दी। उसी दिन बख़्तियार ने अर्सलां बेग को अपने घर दा’वत दी। नया आलिम दोनों के लिए एक-सा ख़तरनाक था और उसे बर्बाद करने के लिए दोनों ने कुछ दिनों के लिए आपसी अ’दावत ताक़ पर रख दी थी।
उसके पुलाव में कुछ मिला देना ठीक रहेगा, अर्सलां बेग ने कहा। वह इस फ़न में माहिर था।
बख़्तियार बोलाः लेकिन अमीर हमारे सिर क़लम करवा देंगे। नहीं, अर्सलां बेग साहब, हमें कोई दूसरा तरीक़ा सोचना होगा। हमें हर तरह मौलाना हुसैन के इल्म और अक़्ल की तारीफ़ कर के उसे आसमान पर चढ़ा देना चाहिए, ताकि अमीर के दिल में शुबहा पैदा हो जाय कि कहीं दरबारी लोग मौलाना हुसैन की अक़्ल को अमीर की अक़्ल से भी बढ़कर तो नहीं समझने लगे। हमें लगातार मौलाना हुसैन की तारीफ़ के पुल बांधने चाहिए। तब जल्द ही वह दिन आएगा, जब अमीर को उस से जलन होगे लगेगी। वह दिन मौलाना हुसैन की बड़ाई का आख़िरी और गिरावट का पहला दिन होगा। लेकिन तक़दीर ख़ोजा नसरुद्दीन के साथ थी और उसकी बड़ी से बड़ी ग़लती का नतीजा भी उसी के हक़ में होता।
अर्सलां बेग और बख़्तियार जब मौलाना हुसैन की तारीफ़ें कर के अपनी तिकड़म में कामयाब हो रहे थे और अमीर के दिल में हसद की पहली चिनगारी जला रहे थे- गो यह चिनगारी अभी छिपी हुई थी- तभी हुआ यह कि ख़ोजा नसरुद्दीन एक भारी भूल कर बैठा।
एक दिन अमीर के साथ वह बाग़ में फूलों की महक लेता और चिड़ियों के गाने सुनता टहल रहा था। अमीर ख़ामोश थे। इस ख़ामोशी में ख़ोजा नसरुद्दीन को अ’दावत की छिपी झलक महसूस हुई। लेकिन वह इस अ’दावत की वजह नहीं समझ पा रहा था।
अमीर ने पूछाः उस बुड्ढे- तुम्हारे क़ैदी- का क्या हाल है? क्या तुमने उसका असली नाम और बुख़ारा आने का सबब जान लिया?
ख़ोजा नसरुद्दीन के ख़यालों में इस वक़्त बसी हुई थी गुलजान। सो उसने अनमने ढंग से जवाब दियाः ऐ बादशाह सलामत! इस नाचीज़ ग़ुलाम की ख़ता मुआ’फ़ फ़रमाएं। अभी तक मैं उस बुड्ढे से एक लफ़्ज़ भी नहीं क़ुबूलवा पाया हूं। वह तो मछली की तरह एकदम गूंगा है।
क्या तुम ने उसे तकलीफ़ें देने की कोशिश की ?
जी हां, आक़ा-ए-नामदार ! परसों मैं ने उसकी गांठों को उमेठा। कल दिन भर गर्म चिमटे से मैं उसके दांत हिलाता रहा।
अमीर ने ताईद करते हुए कहाः दांत ढीले करना तो अच्छी सज़ा है। तअ’ज्जुब है कि वह तब भी ख़ामोश रहा। तुम्हारी मदद के लिए किसी तजरबा-कार, होशियार जल्लाद को भेजूं!
नहीं, हुज़ूर! आप अपने आप को ऐसी फ़िक्रों से परेशान न करें। कल मैं उसे एक नये ढंग की सज़ा दूंगा। बूढ़े की ज़बान और मसूड़ों में मैं जलता हुआ बरमा घुसेडूंगा।
ठहरो ! ठहरो! अमीर चिल्लाये। उस का चेहरा ख़ुशी से दमक रहा था। अगर तुम उस की ज़बान जलते हुए बरमे से छेद दोगे, तो वह अपना नाम कैसे बतायेगा? मौलाना हुसैन! तुम ने इस बात पर ग़ौर किया ही नहीं, या किया था? देखो न, अमीर-ए-आज़म, माबदौलत, ने फ़ौरन इस बात पर ग़ौर किया और तुम्हें एक बहुत बड़ी ग़लती करने से रोक लिया। इस से साबित है कि हालांकि तुम एक लासानी आ'लिम हो, तो भी हमारी दानाई तुम से बढ़-चढ़कर है। तुमने अभी-अभी यह बात देखी है न?
बेहद ख़ुश अमीर ने दमकते चेहरे से हुक्म दिया कि दरबारी फ़ौरन बुलाये जाये। दरबार लग गया। अमीर ने पहुंच कर ऐ’लान किया कि आज के दिन उन्हों ने मौलाना हुसैन से ज़ियादा दानाई दिखायी है और एक ऐसी ग़लती करने से उन्हें रोक लिया है, जो वह करने ही वाले थे। दरबार के मुहर्रिर ने बड़ी मेहनत से अमीर के बयान का एक-एक लफ़्ज़ दर्ज किया ताकि आगे आने-वाली नस्लें उन्हें भूल न जायें।
उस दिन के बाद से अमीर के दिल में जलन पैदा नहीं हुई। इस तरह, इस इत्तिफ़ाक़िया ग़लती से ख़ोजा नसरुद्दीन ने दुश्मनों की काइयां तिकड़मों को बेकार कर दिया।
तब भी दुविधा में पड़े ख़ोजा नसरुद्दीन को, लम्बे, और परेशान करनेवाले घंटों में रोज़-ब-रोज़ ज़ियादा तकलीफ़ होती। बुख़ारा शहर के आसमान पर पूरा चांद अपनी छटा बिखेर रहा था। अनगिनत मीनारों पर पालिशदार खपरैलें चमक रही थीं। बुनियादों के बड़े-बड़े पत्थर नीले कुहासे से ढंके थे। हल्की हवा हौले-हौले चल रही थी। ऊपर छतों पर ठंडक थी। लेकिन नीचे, जहां ज़मीन और धूप से तपी दीवारों को रात की हवा में ठंडा होने का वक़्त न मिला था, दम घोटनेवाली गर्मी थी। महल, मस्जिदों व झोंपड़ों में- हर तरफ़- नींद छायी थी। महज़ उल्लू अपनी तीखी आवाज़ों से पाक शहर के गर्म आराम में ख़लल डाल रहे थे।
ख़ोजा नसरुद्दीन खुली खिड़की में बैठा था। उस के दिल को यक़ीन था कि गुलजान अभी सोयी नहीं है, कि वह जाग रही है और उसी के बारे में सोच रही है। शायद , इस घड़ी वे दोनों एक ही मीनार को ताक रहे हों, मगर एक-दूसरे को न देख पा रहे हों, क्योंकि उन के बीच दीवारों, लोहे के सीख़चोंवाली जालियों, ज़नखों, पहरेदारों और बूढ़ी औरतों की रोकें थीं। ख़ोजा नसरुद्दीन को महल में घुसने का मौक़ा तो मिल गया था, लेकिन हरम में पहुंचने का अब भी कोई रास्ता नहीं था। कोई इत्तिफ़ाक़ी वाक़िआ ही उसे वहां पहुंचाने का रास्ता बता सकता था। लगातार वह ऐसे ही मौक़े की तलाश में था, लेकिन बेकार। गुलजान तक कोई ख़बर भिजवाने में अब तक वह कामयाब न हुआ था। झरोके में बैठे-बैठे हवा को चूम कर उस ने कहाः ऐ हवा! तेरे ले यह काम बहुत आसान है। एक लम्हे के लिए गुलजान की खिड़की से होकर भीतर चली जा, उस के होंठ और कान छू। उसे मेरा प्यार दे और मेरा संदेशा उस से कह। उस से कह कि मैं उसे भूला नहीं हूं। उस से कह कि मैं आऊंगा, ज़रूर आऊंगा और तुझे छुड़ा लूंगा।
हवा तेज़ी से निकल गयी। ग़मज़दा ख़ोजा नसरुद्दीन को वह जहां का तहां छोड़ गयी। परेशानियों व मुसीबतों के दिन एक के पीछे एक इसी तरह गुज़रते रहे। रोज़ ही ख़ोजा नसरुद्दीन को दरबार-ए-आ’म में पहुंच कर अमीर का इंतिज़ार करना पड़ता, दरबारियों की चापलूसी सुननी पड़ती, बख़्तियार की काइयां साज़िशों की असलियत समझनी पड़ती और ज़हर से बुझी उस की नज़र देखनी पड़ती। फिर, अमीर के सामने बन्दगी करनी पड़ती, उनकी तारीफ़ें गानी पड़तीं और दिल में नफ़रत छिपाये घंटों उन का ऐ’याश और थलथल चेहरा देखते रहना पड़ता, कैफ़ियत समझानी पड़ती। ख़ोजा नसरुद्दीन इन सब से इतना ऊब गया था और इतना थक गया था कि अब उस ने नयी वजहें ढूंढनी बन्द कर दी थीं। हर बात
को- चाहे अमीर का सिरदर्द हो, चाहे ग़ल्ले की महंगाई- उन्हीं लफ़्ज़ों और क़ेरानों (योगों) के ज़रिये समझाना शुरू कर दिया था।
मक्खी की तरह भनभनाता हुआ वहा कहताः सितारे सा’द-अल-ज़बीह दल्ब (कुम्भ) के बुर्ज (राशि) के मुख़ालिफ़ है और सैयारा मुश्तरी अक़रब (वृश्चिक) के बुर्ज के बायें पर है। कल रात अमीर को नींद न आने की यही वजह थी।
अमीर दोहरातेः सितारे सा’द-अल-ज़बीह सैयारे मुश्तरी के मुख़ालिफ़ है... मुझे यह याद कर लेना चाहिए... फिर से तो कहना, मौलाना हुसैन...।
अमीर की याद-दाश्त बहुत कमज़ोर थी।
अगले दिन फिर वही बातचीत शुरू होतीः पहाड़ियों पर मवेशियों की मौत का सबब यह है कि सितारा सा’द-अल-ज़बीह दल्ब के बुर्ज में है, और सैयारा मुश्तरी अक़रब के बुर्ज के मुख़ालिफ़ है…।
तो सितारे सा’द-अल-ज़बीह ... मुझे यह याद कर लेना चाहिए, अमीर फिर कहते।
थक कर ख़ोजा नसरुद्दीन सोचने लगताः या ख़ुदा! यह कैसा बे-वक़ूफ़ है। यह तो मेरे पिछले मालिक से भी बढ़-चढ़कर बे-वक़ूफ़ निकला। मैं तो इस से ऊब उठा हूं। ऐ अल्लाह, कब मैं इस महल से छुटकारा पाऊंगा!
इस बीच अमीर बातचीत का कोई दूसरा सिलसिला शुरू कर देतेः मौलाना हुसैन! हमारे राज में हर तरफ़ अमन-चैन है, रिआया ख़ुश है। अब बद-मआ’श ख़ोजा नसरुद्दीन का ज़िक्र भी सुनायी नहीं पड़ता। कहां चला गया है वह ? वह ख़ामोश क्यों है? हमें यह बाइये तो सही!
थकान से चूर ख़ोजा नसरुद्दीन वे ही बातें भनभनाना शुरु कर देता जो वह पहले कितनी ही बार दोहरा चुका थाः ऐ बादशाह सलामत! ऐ क़ादिर-ए-मुतलक़! सितारे सा’द-अल-ज़बीह... और इसके अलावा, ऐ अमीर-ए-आज़म, बद-मआ’श ख़ोजा नसरुद्दीन बग़दाद जा चुका है। मेरे इल्म के बारे में उसे ज़रूर जानकारी है। जब उसे पता चला कि मैं बुख़ारा आ गया हूं, तो वह डर और कंपकंपी के मारे फ़ौरन छिप गया, क्योंकि वह जानता था कि मैं उसे कितनी आसानी से गिरफ़्तार कर सकता हूं।
गिरफ़्तार ? यह तो बहुत ही अच्छी बात होगी! लेकिन उसे गिरफ़्तार करोगे कैसे? अमीर पूछते। इस के लिए मैं सितारे सा’द-अल-ज़बीह और सैयारे मुश्तरी के मुबारक बुर्ज में पहुंचने का इंतिज़ार करूंगा।
अमीर दोहरातेः सैयारा मुश्तरी.. मुझे याद रखना चाहिए। मौलाना हुसैन! क्या तुम्हें मा’लूम है कि कल माबदौलत को एक बुहत बढ़िया ख़याल आया। हम ने सोचा कि बख़्तियार को निकाल कर तुम्हें वज़ीर-ए-आज़म बना दिया जाय।
इस पर ख़ोजा नसरुद्दीन को अमीर के सामने ज़मीन पर लेटकर कोर्निश करनी पड़ी, उनकी तारीफ़ें करनी पड़ी, उनका शुक्रिया अदा करना पड़ा और उन्हें समझाना पड़ा कि सितारे सा’द-अल-ज़बीह की कैफ़ियत इस वक़्त वज़ीरों में तब्दीली के लिए बदशुगुनी की है। उस ने मन ही मन सोचा, अब जल्द यहां से भाग निकलने का वक़्त आ गया है।
मौक़े की तलाश में ख़ोजा नसरुद्दीन नाउम्मीदी की कठिन डगर काट रहा था।
उस का दिल बाज़ार, भीड़, चायख़ानों, धुंए-भरी सरायों के लिए ललक उठता। अमीर के बढ़िया से बढ़िया लज़ीज़ खाने को वह बाज़ार के सस्ते पुलाव की कड़ी बोटियों या प्याज़ व चरपरी काली मिर्चोवाली पाये के शोरबे से बदलने को तैयार था।
चापलूसी और तारीफ़ के बदले सादी बातचीत और ज़ोर की दिल-खोल हंसी के लिए वह अपने सोने के लिबास को फ़ौरन दे डालने को तैयार था। लेकिन क़िस्मत ख़ोजा नसरुद्दीन का इम्तिहान ले रही थी और उसे वह मौक़ा नहीं दे रही थी, जिस का वह इतनी बेताबी से इंतिज़ार कर रहा था। इस बीच अमीर लगातार उस से पूछताछ करते रहते कि अपनी नयी दाश्ता का नक़ाब उठाने का मौक़ा कब पायेंगे, या’नी सितारे कब मुबारक होंगे।
।। 2 ।।
अमीर ने ख़ोजा नसरुद्दीन को एक दिन बे-वक़्त बुला भेजा। अभी तड़का था। सारा महल सो रहा था। फ़व्वारे नाच रहे थे। फ़ाख़्ताएँ ग़ुटुर-ग़ू- ग़ुटुर-ग़ू करती हुई पर फड़फड़ा रही थीं। शाही आरामगाह जाते वक़्त लाल और सफ़ेद ज्यराब पत्थर की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन सोचने लगाः अमीर को मुझ से इस वक़्त क्या काम हो सकता है?
रास्ते में उस की मुलाक़ात बख़्तियार से हुई जो आरामगाह से चुपचाप साये की तरह निकला था। बिना रुके उनकी दुआ-सलाम हुई। ख़ोजा नसरुद्दीन को लगा कि कोई साज़िश की गयी है और वह होशियार हो गया। आरामगाह में उसे ख़्वाजा-सरा मिला। अस्मत मआब ख़्वाजा-सरा शाही कौच के सामने पड़ा ज़ोर-ज़ोर से कराह रहा था। उस के पास ही क़ालीन पर सोने की मूठवाले बेंत के टुकड़े बिखरे पड़े थे।
भारी-भरकम मख़मली पर्दे सुब्ह की ताज़ी हवा, सूरज की किरनों और चिड़ियों की चहचहाट को आरामगाह में घुसने से रोक रहे थे। लैम्प से हलकी रोशनी फैल रही थी। मा’मूली मिट्टी के दिये के लैम्प की तरह इस से भी बू और धुंआ निकल रहा था।
एक कोने में नक़्क़ाशी-दार धूपदान से मीठी चरपरी महक आ रही थी। लेकिन लैम्प में जलती भेड़ की चर्बी की बू पर यह महक क़ाबू न पा रही थी। आरामगाह की हवा इतनी घुटी हुई थी कि ख़ोजा नसरुद्दीन की नाक खुजलाने लगी और गले में खरखराहट पैदा हो गयी। अमीर रेशमी लिहाफ़ के बाहर बालों भरी टांगें लटकाये बैठे थे। ख़ोजा नसरुद्दीन ने देखा कि उनकी एड़ियां गहरी पीली हैं मानो उन्हें एक हिन्दुस्तानी धूपदान के ऊपर सेंकते रहे हों।
मौलाना हुसैन! अमीर बोलेः माबदौलत बहुत ग़मज़दा हैं। हमारा ख़्वाजा-सरा, जिसे तुम यहां पड़ा देख रहे हो, इस ग़म का सबब है।
ख़ोजा नसरुद्दीन घबरा उठाः ओह!शहंशाह, क्या इस ने कोई गुस्ताख़ी करने की मजाल की थी?
अरे नहीं! अमीर ने हाथ हिला कर मुंह बनाते हुए कहा। अपनी अक़्लमन्दी से हम ने पहले ही सब बातें सोच-समझ कर होश्यारी बरत रखी थी। भला इस की मज़ाल ऐसी हो ही कैसी सकती थी? इसे ख़्वाजा- सरा बनाने से पहले ही पूरी होश्यारी बरती गयी थी। नहीं, वह बात नहीं है। हमें आज पता लगा है कि यह बद-मआ’श हिजड़ा, सल्तनत के सब से बड़े ओहदों में से एक पर मुक़र्रर किये जाने की हमारे मेहरबानी भूल कर, अपना फ़र्ज़ पूरा करने में ग़फ़लत करता रहा है।
इस बात का फ़ायदा उठाकर कि इधर हम अपनी रखैलों के पास नहीं जा रहे हैं, इस ने तीन दिन तक लगातार हरम न जाकर हशीश (गांजा) पीने की लत में मशग़ूल रहने की गुस्ताख़ी की है। और हमारी दाश्ताएं, अपने को अकेला पाकर, आपस में लड़ती-झगड़ती रहीं और एक-दूसरे के मुंह और बाल नोचती रहीं। ज़ाहिर है, इस से बहुत नुक़सान हुआ है, क्योंकि नुचे हुए मुंह या गंजे सर वाली औरत हमारी निगाह में मुकम्मल हुस्न वाली नहीं होती। अ’लावा इसके, एक दूसरी बात भी हुई, जिस का हमें बहुत अफ़्सोस है। हमारी नयी दाश्ता बीमार पड़ गयी है। तीन दिन से उसने खाना नहीं खाया।
ख़ोजा नसरुद्दीन चौंक उठा। अमीर ने इशारे से उसे ख़ामोश किया।
ठहरो! अभी हम ने बात ख़त्म नहीं की। वह बीमार है और शायद बचे नहीं। अगर हम उस से एक मर्तबा मिल चुके होते तो उस की बीमारी या मौत से हमें ज़ियादा तकलीफ़ न होती। लेकिन, मौलाना हुसैन! तुम ख़ुद समझ सकते हो कि जो हालत है उस से हम किस क़दर नाराज़ हैं। इसलिए, अमीर ने यहां ऊंची आवाज़ की, हम ने तय किया है कि आइन्दा की परेशानियों और तकलीफ़ों से बचने के लिए हम इस बद-मआ’श गंजेड़िये को अपने ओहदे से बरख़ास्त कर दें और इसे दो सौ कोड़ों की सज़ा दें। जहां तक तुम्हारा तअ’ल्लुक़ है, मौलाना हुसैन, हम ने तुम्हें हरम के ख़्वाजा-सरा की ख़ाली जगह पर मुक़र्रर करने की मेहरबानी फ़रमायी है।
ख़ोजा नसरुद्दीन को लगा कि उस की सांस गले में फंस कर रह गयी है। उसे अपने पेट में अ’जब ठंडापन महसूस हुआ। पैरों में कमज़ोरी मा’लूम हो रही थी।
भवें चढ़ा कर नाराज़ी से अमीर ने पूछाः क्या तुम बहस करना चाहते हो, मौलाना हुसैन? हमारी शाही शख़्सियत की ख़िदमत करने की ख़ुशी हासिल करने की बजाय क्या तुम नाकाम और चन्दरोज़ा हवस को पूरा करना चाहते हो?
ख़ोजा नसरुद्दीन अब तक सम्हल चुका था और होश-हवास दुरुस्त कर चुका था। झुक कर कोर्निश करता हुआ बोलाः अल्लाह हमारे ताजदार का साया हमेशा हमारे सर पर क़ायम रखे। मुझ नाचीज़ ग़ुलाम पर अमीर की बेशुमार मेहरबानियां है। हमारे शहंशाह-ए-आज़म को अपनी रिआ’या के दिल की पोशीदा से पोशीदा ख़्वाहिशें मा’लूम कर लेने का जादू जैसा हुनर हासिल है। बहुत मर्तबा मुझ नाचीज़ ग़ुलाम ने इस काहिल और बे-वक़ूफ़ इंसान की जगह, जो इस वक़्त बिल्कुल मुनासिब सज़ा पा कर फ़र्श पर पड़ा रो रहा है, लेने की तमन्ना की है। न जाने कितनी बार यह तमन्ना मेरे दिल में उठी। लेकिन मैं अमीर से इस का ज़िक्र करने की हिम्मत नहीं कर पाया। अब चूंकि हुज़ुर ने ख़ुद ही…
ख़ुश हो कर अमीर ने मुलायमियत से कहाः तो फिर देर क्यों हो? माबदौलत अभी हकीम को बुलाते है। वह अपने चाकू ले आयेगा और तुम उस के साथ कहीं तन्हाई में चले जाना। इस बीच हम बख़्तियार को बुला कर तुम्हें ख़्वाजा-सरा मुक़र्रर करने का हुक्म जारी करते हैं।
अमीर ने ताली बजायी।
दरवाज़े की तरफ़ घबराहट से देख़ता हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन जल्दी से बोलाः बादशाह सलामत इस नाचीज़ के हक़ीर लफ़्ज़ों को सुनने की तकलीफ़ फ़रमाएं। मैं बख़ुशी फ़ौरन हकीम के साथ तनहाई में जाने को तैयार हूं। सिर्फ़ बादशाह की ख़ुशी की फ़िक्र मुझे ऐसा करने से रोक रही है। हकीम से मिलने के बाद मुझे कई दिन बिस्तरे पर गुज़ारने पड़ेगे और इस बीच नयी दाश्ता मर भी सकती है। तब तो अमीर का दिल सदमें के धुन्ध से घिर जायगा और इस बात का ख़याल भी इस ग़ुलाम को बर्दाश्त नहीं हो सकता। इसलिए मेरी सलाह तो यह है कि पहले उस दाश्ता की सेहत को ठीक कर दिया जाय और फिर मैं अपने को हकीम के सुपुर्द कर के ख़्वाजा-सरा के ओहदे के क़ाबिल बनने की तैयारी में लग जाऊं…
हूं! शक की निगाह से नसरुद्दीन को देखते हुए अमीर ने कहा।
ऐ आक़ा ! उस ने तीन दिन से खाना नहीं खाया है।
हूं! अमीर फिर बोले। फिर वह फ़र्श पर पड़े हिजड़े की तरफ़ पलटे और बोलेः अबे! मकड़ी की नाक़िस औलाद! जवाब दे! क्या हमारी नयी दाश्ता बीमार है और क्या हमें उस की मौत का अंदेशा होना चाहिए?
जवाब के इंतिज़ार में ख़ोजा नसरुद्दीन की रीढ़ पर ठंडा पसीना आ गया।
ऐ अज़ीमुश्शान अमीर! हिजड़े ने जवाब दिया। वह बहुत दुबली हो गयी है और नये चांद के मानिन्द पीली पड़ गयी है। उस का चेहरा मोम जैसा हो गया है और उंगलियां ठंड़ी पड़ गयी है। बूढ़ी औ’रतें कह रही है कि ये आसार बहुत ख़राब है…
अमीर सोच में पड़ गये। ख़ोजा नसरुद्दीन साये में हो गया। इस वक़्त वह आरामगाह के धुंआ भरे अंधेरे का शुक्र गुज़ार था, क्योंकि इस से उस के चेहरे का पीलापन छिप गया था।
आख़िर अमीर बोलेः हां! अगर ऐसी बात है, तो शायद वह सचमुच मर जाय। उस के मरने से हमें सदमा होगा। लेकिन मौलाना हुसैन, क्या तुम्हें यक़ीन है कि तुम उसे अच्छा कर दो गे?
हुज़ूर-ए-आ’ला को मा’लूम है कि बग़दाद से बुख़ारा तक मुझ से ज़ियादा होशियार दूसरा हकीम नहीं है।
जाओ मौलाना हुसैन, उस के लिए दवा तैयार करो।
जहांपनाह, मुझे पहले उस की बीमारी का पता लगाना होगा। इस के लिए मुझे जांच करनी होगी।
जांच? अमीर हंसे। मौलाना हुसैन! जब तुम ख़्वाजा-सरा बन जाओ तब इत्मिनान से उस की जांच कर लेना।
ख़ोजा नसरुद्दीन झुक कर ज़मीन से लग गयाः बादशाह सलामत! मुझे जांच...
नाचीज़ ग़ुलाम! अमीर चिल्लाये। क्या तू जानता नहीं कि मौत से पहले कोई भी इंसान हमारी दाश्ताओं के चेहरे नहीं देख सकता है ?
बादशाह सलामत, ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब दिया, मैं यह बात जानता हूं। लेकिन मेरा मतलब उस के चेहरे की जांच करने से नहीं था। उस के चेहरे की तरफ़ नज़र उठाने की गुस्ताख़ी मैं कभी कर ही नहीं सकता। मुझे अपने पेशे का इतना ज़ियादा इल्म हैं कि मैं नाख़ुनों की रंगत देख कर ही बीमारी का पता लगा सकता हूं। इसलिए, मेरे लिए उस का हाथ देख लेना ही काफ़ी होगा।
हाथ? अमीर बोले। यह तुम ने पहले क्यों नहीं कहा, ताकि मुझे ग़ुस्सा न आता? हाथ ? हां, यह तो हो सकता है। तुम्हारे साथ हम हरम में चलेंगे। हमें उमीद है कि तुम हमारी दाश्ता का सिर्फ़ हाथ देखोगे तो हमें हसद न होगी।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने तसल्ली देते हुए कहाः बादशाह सलामत को क़तई हसद नही होगी।
वह सोच रहा था कि गुलजान से अकेले में तो कभी मुलाक़ात हो नहीं सकेगी और किसी न किसी गवाह की मौजूदगी ज़रुरी है, इसलिए बेहतर है कि गवाह ख़ुद अमीर हों, ताकि वह शक-शुबहा न कर सके।
।। 3 ।।
आख़िर हरम में पैर रखने का ख़ोजा नसरुद्दीन को वह मौक़ा मिल ही गया, जिस की तलाश में वह इतने दिनों से बेचैन था। अदब से झुक कर पहरेदार एक तरफ़ को हट गये। पत्थरों का ज़ीना पार कर अमीर के पीछे-पीछे चलते ख़ोजा नसरुद्दीन ने लकड़ी का एक फाटक पार किया और एक ख़ूबसूरत बाग़ीचे में जा पहुंचा। यहां ढेरों गुलाब, गुलबहार व गुलमेहदी के फूलों के बीच काले और सफ़ेद संगमर्मर के हौज़ोँ में फ़व्वारे चल रहे थे और उन पर हलकी भाप छायी हुई थी।
फूलों और घास पर शबनम की बूंदे चमक रही थीं।
ख़ोजा नसरुद्दीन पर एक रंग आता था, एक जाता था। हिजड़े ने अख़रोट की लकड़ी का नक़्क़ाशी-दार दरवाज़ा खोला। अन्दर के अंधेरे हिस्से से काफ़ूर, मुश्क और गुलाब के इत्र की गहरी ख़ुशबू आयी। यही वह हरम था जहां अमीर की हसीन दाश्ताएं क़ैद थीं। ख़ोजा नसरुद्दीन ने बड़ी होश्यारी से कोनों, नुक्कड़ों, मोड़ों और गलियों का हिसाब लगाया ताकि फ़ैसलाकुन मौक़े पर वह रास्ता न भूल जाय और इस तरह अपने और गुलजान के ऊपर मुसीबत बरपा करे। दिल ही दिल में वह याद करता जाता थाः दाहिने, फिरे बाये, यहां रहा ज़ीना- जिस पर एक बुढ़िया का पहरा है, अब फिर दाहिने…
रंगीन चीनी शीशों से छनकर आनेवाली नीली, हरी, गुलाबी रोशनी से रास्ता रौशन था। नीचे एक महराबी दरवाज़े के सामने हिजड़ा रुक गया।
ऐ मेरे आक़ा, यहीं है वह।
अमीर के पीछे-पीछे ख़ोजा नसरुद्दीन ने भी उस दरवाज़े को पार किया जिस के अन्दर उसकी क़िस्मत क़ैद थी। कमरा छोटा था। उस का फ़र्श व दीवारें क़ालीनों से ढंकी थीं। ताक़ोँ पर सींक की टोकरियों में बुन्दे, गुलूबन्द, बाज़ूबन्द रखे थे और चांदी का एक बड़ा आईना दीवार से लटक रहा था। बेचारी गुलजान ने इतनी दौलत सपने में भी नहीं देखी थी। ख़ोजा नसरुद्दीन ने मोती-जड़ी उस की जूतियां देखीं तो सिहर उठा। जूतियों की एड़ियां घिसने का वक़्त गुलजान ने यहीं गुज़ारा था।
कमरे के एक कोने में रेशम के एक पर्दे की तरफ़ इशारा करता हुआ हिजड़ा बोलाः वहां सो रही है वह।
ख़ोजा नसरुद्दीन को फुरफुरी आ गयी। इतने क़रीब थी उस की दिलरुबा। अपने को डांट कर उस ने मन ही मन कहाः
ख़ोजा नसरुद्दीन! ख़बरदार! ज़ब्त तर! फ़ौलाद बन जा।
वह पर्दे के पास पहुंचा तो नींद में ग़ाफ़िल गुलजान की सांसे सुनायी दीं। मसहरी के ऊपर उस ने रेशम को उठते-गिरते देखा। उसका गला भर आया और आवाज़ फंस गयी- मानो लोहे मं जकड़ दी गयी हो। आंखों से आंसू बहने लगे और सांस थम गयी।
मौलाना हुसैन, अमीर ने कहा, क्या बात है? इतनी सुस्ती क्यों दिखा रहे हो?
बादशाह सलामत! मैं उस की सांसें सुन रहा हूं। पर्दे के पीछे से मैं नाज़नीन के दिल की धड़कनों को सुनने की कोशिश कर रहा हूं। ऐ हुज़ूर, इस का नाम क्या है?
इस का नाम है- गुलजान। अमीर ने जवाब दिया।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने हौले से पुकाराः गुलजान!
मसहरी के ऊपरी हिस्से पर उठता-गिरता रेशम रुका। गुलजान जाग गयी थी। वह सांस रोके पड़ी थी। उसे यक़ीन नहीं आ रहा था कि सचमुच वह अपने प्यारे की आवाज़ सुन रही है। वह सोच रही थी- शायद यह सपना है।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने फिर पुकाराः गुलजान!
इस बार गुलजान के मुंह से एक हल्की सी चीँख़ निकली।
ख़ोजा नसरुद्दीन जल्दी से बोलाः मेरा नाम मौलाना हुसैन है। मैं नया हकीम, नजूमी व आ’लिम हूं। अमीर की ख़िदमत के लिए मैं बग़दाद से आया हूं। तुम समझ रही हो न, गुलजान! मैं नया हकीम, नजूमी व आ’लिम हूं। मेरा नाम मौलाना हुसैन है।
अमीर की तरफ़ पलटकर वह बोलाः किसी सबब से मेरी आवाज़ सुनकर यह डर गयी है। मुमकिन है कि शहंशाह की ग़ैर-मौजूदगी में हिजड़ा इस से बेरहमी से पेश आया हो।
अमीर ने लाल-लाल आंखों से हिजड़े को ताका। कांप कर वह ज़मीन तक झुक गया। बोलने तक की उसकी हिम्मत न हुई।
ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः ऐ गुलजान, तुम्हारे सिर पर ख़तरा मंडरा रहा है। लेकिन मैं तुम्हें बचा लूंगा। तुम्हें मुझ पर पूरा यक़ीन करना चाहिए। मैं हर मुश्किल और मुसीबत पर क़ाबू पा सकता हूं।
बग़दाद के आ’लिम, मौलाना हुसैन, गुलजान धीमी और बारीक आवाज़ में बोली, मैं आपकी बातें सुन रही हूं। मैं आप को जानती हूं और आप का यक़ीन करती हूं। मैं यह सब ख़ुद शहंशाह की मौजूदगी में कहती हूं जिन के क़दम मुझे पर्दे के बीच की दराज़ से दीख रहे है।
इस बात का ख़याल रखते हुए कि अमीर की मौजूदगी में उसे आलिमाना और इज़्ज़तदार लहजे में ही बातें करनी चाहिए, ख़ोजा नसरुद्दीन ज़रा सख़्ती से बोलाः ज़रा मुझे अपना हाथ दो गुलजान, ताकि तुम्हारे नाख़ुनों के रंग से ही मैं तुम्हारी बीमारी का सबब जान सकूं।
रेशम का पर्दा कुछ हिला और एक तरफ़ सरका। ख़ोजा नसरुद्दीन ने आहिस्ता से गुलजान का नाज़ुक हाथ थाम लिया। सिर्फ़ उसका हाथ दबाकर ही वह अपने दिल की बात कह सकता था। गुलजान ने भी जवाब में उसका हाथ हौले से दबाया। ख़ोजा नसरुद्दीन देर तक उस की हथेली देख़ता रहा।
मन ही मन वह सोच रहा थाः कितनी दुबली हो गयी है बेचारी!
उस के दिल में एक हूक-सी उठी। अमीर उसके कन्धे पर से झांक रहा था। उसके कानों पर अमीर की गहरी सांस सुनायी पड़ रही थी। ख़ोजा नसरुद्दीन ने गुलजान की सबसे छोटी उंगली का नाख़ून अमीर को दिखाया और बहुत बदशुगुनी के ढंग से सिर हिलाया। हालांकि यह नाख़ून भी बिल्कुल दूसरे नाख़ुनों जैसा ही था, लेकिन अमीर ने उस में कुछ अ'जब चीज़ भांप ली, होंठ भींचे और जानकारी की निगाह से ख़ोजा नसरुद्दीन को देखा।
कहां दर्द होता है? ख़ोजा नसरुद्दीन ने पूछा।
दिल में। लम्बी सांस लेकर गुलजान बोली। मेरा दिल ग़म और चाहत के दर्द से भरा है।
तुम्हारे ग़म की वजह?
वजह है यह कि जिस से मैं मुहब्बत करती हूं, वह मुझ से जुदा है।
यह बीमार है, ख़ोजा नसरुद्दीन ने अमीर के कान में फुसफुसाया, क्योंकि यह शहंशाह से जुदा है।
ख़ुशी से अमीर का चेहरा खिल उठा। उन की सांस ज़ोर से चलने लगी।
मैं जिस से मुहब्बत करती हूं, वह मुझ से जुदा है, गुलजान बोली, और अब मुझे लगता है कि मेरा प्यारा बिल्कुल क़रीब है। लेकिन मैं न तो उसे गले लगा सकती हूं, न उस से प्यार कर सकती हूं। हाय! वह दिन कब आयेगा जब वह मुझे दिल से लगायेगा और अपने नज़दीक रखेगा।
या अल्लाह! बनावटी अचम्भे से ख़ोजा नसरुद्दीन बोला । इतने थोड़े अर्से में ही बादशाह सलामत ने इसके दिल में किस क़दर हवस जगा दी है! वल्लाह! वल्लाह!
ख़ुशी के मारे अमीर आपे से बाहर हो गये। वह एक जगह खडे नहीं रह पा रहे थे। आस्तीन से मुंह छिपाये, बे-वक़ूफ़ी से 'ही-ही' करते हुए उछल-कूद रहे थे।
ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः ऐ गुलजान! तुम फ़िक्र न करो। जिस से तुम मुहब्बत करती हो, वह तुम्हारी बात सुन रहा है।
अपने पर क़ाबू रखने में मजबूर अमीर बीच में ही बोल उठेः बेशक, बेशक, गुलजान! वह सुन रहा है! तेरा प्यार तेरी बात सुन रहा है!
पर्दे के पीछे से पानी की सुहावनी कलकल जैसी हंसी उठी।
लेकिन ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहना जारी रखाः ऐ गुलजान! ख़तरा तुम्हारे सिर पर मंडरा रहा है। लेकिन डरो मत! मैं, मशहूर आलिम, नजूमी और हकीम मौलाना हुसैन, तुम्हें बचा लूंगा।
अमीर ने भी ये ही लफ़्ज़ दोहरायेः
हां, हां! यह तुम्हें बचा लेंगे! ज़रूर बचा लेंगे!
ख़ोजा नसरुद्दीन कहता गयाः सुना तुम ने, शहंशाह क्या फ़रमा रहे हैं? सुन रही हो न? तुम मुझ पर यक़ीन रखो। ख़तरे से मैं तुम्हें बचा लूंगा। तुम्हारी ख़ुशी का दिन बहुत नज़दीक है। फ़िलहाल, बादशाह सलामत तुम्हारे पास नहीं आ सकेंगे क्योंकि मैं ने उन्हें आगाह कर दिया है कि सितारों का हुक्म है कि वह किसी औ’रत का नक़ाब न छुयें। लेकिन सितारे अपना अंदाज़ बदल रहे हैं। तुम समझ रही हो न, गुलजान? सितारे अपना अंदाज़ बदल रहे हैं! जल्द ही सितारे मुबारक होंगे और तुम अपने प्यारे की बाहों में होगी। जिस दिन मैं तुम्हें दवा भेजूंगा उस का अगला दिन तुम्हारी ख़ुशी का दिन होगा। समझ रही हो न तुम मेरी बात? हां, दवा पाने के अगले दिन तुम तैयार रहना!
ख़ुशी से हंसती और रोती हुयी गुलजान बोलीः
शुक्रिया! ऐ मौलाना हुसैन, लाख-लाख शुक्रिया। बीमारियों का लासानी इलाज करनेवाले दाना आ’लिम, आपका शुक्रिया! मेरा प्यारा मेरे नज़दीक है। मुझे लगता है कि मेरे और उसके दिल की धड़कन एक हो गयी है।
अमीर और ख़ोजा नसरुद्दीन वापस लौटे। ख़्वाजा सरा दौड़ कर फाटक पर आया और घुटनों के बल गिर कर बोलाः ऐ मेरे आक़ा! वाक़ई, ऐसा होशियार हकीम दुनिया में दूसरा नहीं। तीन दिन से वह बिना हिले-डुले पड़ी थी। लेकिन अब यकायक पलंग छोड़ कर वह उठ बैठी है। वह गा रही है, हंस-हंस कर नाच रही है। ऐ हुज़ूर, मैं उस के पास गया तो उस ने मेरे कान पर घूंसा जड़ने की मेहरबानी की।
सचमुच वह मेरी ही गुलजान! ख़ोजा नसरुद्दीन ने सोचा। अपने घूसों का इस्तेमाल करने में गुलजान हमेशा फुर्ती दिखाती है।
सुब्ह के खाने के वक़्त अमीर ने सभी दरबारियों को बख़्शिश दी। ख़ोजा नसरुद्दीन को उन्होंने दो थैलियां दी- चांदी के सिक्कों से भरी एक बड़ी थैली और सोने के सिक्कों से भरी एक छोटी थैली।
हंसते हुए अमीर बोलेः हा-हा-हा...! हम ने भी कैसी ज़ोर की हवस जगा दी है उसमें! मानना पड़ेगा तुम्हें भी मौलाना हुसैन, ऐसी आग तुम ने अक्सर नहीं देखी होगी। कैसी कांप रही थी उस की आवाज़, कैसे एक साथ वह हंस और रो रही थी! लेकिन उस नज़ारे के मुक़ाबले यह कुछ भी नहीं है जो तुम ख़्वाजा सरा के ओ’हदे पर पहुंचकर देखोगे।
दरबारियों की क़तारों में फुसफुसाहट फैल गयी। बख़्तियार काइयांपन से मुस्कराया। अब ख़ोजा नसरुद्दीन की समझ में आया कि उसे ख़्वाजा-सरा बनाने की सलाह किसने दी थी। अमीर बोलेः अब उस की तबीअ’त सम्भल गयी है और तुम्हें नया ओ’हदा संभालने में देर नहीं करना चाहिए, मौलाना हुसैन। तुम अभी हकीम के साथ जाओ! अरे तुम... वह हकीम की तरफ़ मुख़ातिब हुए, जाओ, और अप ने चाक़ू ले आओ। बख़्तियार, तुम वह हुक्म लिख कर मेरे पास लाओ।
गर्म चाय से ख़ोजा नसरुद्दीन का हल्क़ जल गया और वह खांसने लगा। लिखा हुआ हुक्म लेकर बख़्तियार आगे बढ़ा। ख़ुशी और बदले की तमन्ना से उस का दिल बांसों उछल रहा था। अमीर को क़लम दिया गया। हुक्म पर उन्होंने दस्तख़त किये और हुक्मनामा बख़्तियार को लौटा दिया।इस पूरे वाक़िए में एक मिनट से भी कम वक़्त लगा होगा।
ऐ दाना आ'लिम, मौलाना हुसैन साहब! ख़ुशी की इन्तिहा से शायद आप बोल भी नहीं रहे! तो भी, अदब की मांग है कि आप शुक्रिया अदा करें! बख़्तियार बोला।
ख़ोजा नसरुद्दीन तख़्त के सामने झुक गया।
आख़िर मेरी तमन्ना बर आयी। वह बोला। अमीर की दाश्ता के लिए दवा तैयार करने में जो देर होगी, सिर्फ़ उसका ग़म मुझे है। उसके इलाज के बाबत पूरी तस्कीन होनी चाहिए, नहीं तो बीमारी फिर घर कर जायगी।
क्या दवा बनने में इतनी देर लगेगी? परेशानी से बख़्तियार ने सवाल किया। आध घंटे में तो दवा ज़रूर तैयार हो जायगी…
बिल्कुल ठीक! आधा घंटा काफ़ी होगा। अमीर ने भी हामी भरी।
अब अपना सब से आख़िरी, लेकिन सबसे ज़ियादा कारगर, हरबा इस्तेमाल करता हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः
ऐ आक़ा-ए-नामदार! यह तो सितारे साद-अल-ज़बीह पर मुनहसिर है। उसकी जगह के मुताबिक़ दवा तैयार करने में मुझे दो से पांच दिन तक लग सकते है।
पांच दिन? बख़्तियार चिल्ला उठा। मैलाना हुसैन! दवा तैयार होने में पांच दिन लगते तो मैं ने कभी नहीं सुने।
अमीर को मुख़ातिब कर ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहाः अमीर-ए-आज़म शायद उस नयी दाश्ता का इलाज आइन्दा वज़ीर बख़्तियार से कराना पसन्द करें। वह कोशिश करें तो शायद उसे चंगा भी कर दें। लेकिन उस हालत में उसकी ज़िन्दगी की ज़िम्मेदारी मैं नहीं लूंगा।
घबराकर अमीर बोलेः क्या कहा, मौलाना हुसैन? तुम कह क्या रहे हो? बख़्तियार तो दवादारू के बारे में कुछ भी नहीं जानता। न ही वह इतना होशियार है। माबदौलत यह बात तुम्हें पहले भी बता चुके हैं- जब तुम्हें वज़ीर-ए-आज़म का ओ’हदा देने की बात कही थी। वज़ीर-ए-आज़म बख़्तियार को कंपकंपी आ गयी। ज़हर बुझी नज़रों से उसने ख़ोजा नसरुद्दीन को देखा।
अमीर बोलेः जाओ और दवा तैयार करो, मौलाना हुसैन! लेकिन पांच दिन बहुत होते है। क्या तुम इस से कम वक़्त में दवा तैयार नहीं कर सकते? हम चाहते हैं कि अपने नये ओहदे को तुम जल्द से जल्द संभाल लो।
ऐ शहंशाह-ए-आज़म! मैं तो उस ओ’हदे के लिए ख़ुद ही उतावला हूं। मैं ख़ुद ही जल्द से जल्द दवा तैयार करने की कोशिश करूंगा।
कोर्निश करता, उलटे पैरों चलता, ख़ोजा नसरुद्दीन दरबार से लौट चला। बख़्तियार उसे देखता रहा। उसकी शक्ल से ज़ाहिर था कि अपने दुश्मन और रक़ीब के बख़ैरियत लौट जाने से वह कितना कुढ़ रहा है।
उधर, ग़ुस्से से दांत किटकिटाता हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन कह रहा थाः बख़्तियार! सांप के बच्चे! दग़ाबाज़ लकड़बग्घे! तेरा दांव ख़ाली गया। अब तू मुझे नुक़सान नहीं पहुंचा सकेगा, क्योंकि मैं जो कुछ जानना चाहता था, जान गया हूं। अमीर के हरम में जाने के रास्ते, दरवाज़े और वापसी के रास्ते मुझे मा’लूम हो चुके है। और तू, मेरी दिलबर गुलजान! कम्बख़्त शाही हकीम के नश्तर से ख़ोजा नसरुद्दीन को बचाने के लिए तू ऐ’न मौक़े पर बीमार पड़ी। सचमुच तू बहुत अक़्लमन्द है- हालांकि ईमानदारी की बात यह है कि तू सोच सिर्फ़ अपनी बाबत रही थी!
वह मीनार की तरफ़ वापस लौटा। मीनार के नीचे साये में पहरेदार पांसे फेंक रहे थे। उन में से एक सब-कुछ हार चुका था। दांव पर लगाने के लिए अब वह अपने जूते उतार रहा था। दिन गर्म था। लेकिन मीनार की मोटी दीवारों के भीतर नम और ताज़ी ठंडक थी। ख़ोजा नसरुद्दीन ने तंग सीढ़ियों को पार किया। अपने कमरे के दरवाजे पर पहुंचा, लेकिन वहां से आगे बढ़कर ऊपर बग़दाद के आ’लिम के कमरे में चला गया।
बूढ़े की शक्ल इस वक़्त वहशियाना हो रही थी। क़ैद में रहते-रहते उस की दाढ़ी और बाल बढ़ गये थे। घनी भवों के नीचे आंखें चमक रही थीं।
ख़ोजा नसरुद्दीन पर उस ने गालियों की बौछार शुरू कर दीः अबे हरामज़ादे! तू यहां मुझे कब तक बन्द रखेगा? ख़ुदा करे तेरे सर पर पत्थर गिरें और तलवों से निकले। बद-मआ’श! दग़ाबाज! फ़रेबी! तूने मेरा नाम, मेरी पोशाक, मेरा साफ़ा, मेरा पटका चुरा लिया! तेरे बदन में कीड़े पड़ें! तेरा जिगर और पेट सड़ जाय!
ख़ोजा नसरुद्दीन ऐसी बौछार का आ’दी हो चुका था। उस ने बुरा न माना।
क़िबला मौलाना हुसैन! आपके लिए आज मैं ने एक नयी सज़ा तज्वीज़ की है। रस्सी के फन्दे में लकड़ी बांधकर आपका सिर दबाया जायगा। पहरेदार नीचे बैठे हैं। आपको इतनी ज़ोर से चींख़ना चाहिए कि वे सुन ले।
बूढ़ा सीख़चेवाली खिड़की के पास गया और वहां से एक सांस में चिल्लान लगाः
या अल्लाह! मुझे कितनी तकलीफ़ है! हाय, हाय! मेरा सर न दबाओ! रस्सी के फ़न्दे से सर न दबाओ! मर गया! ऐसी तकलीफ़ से तो मौत भली!
ख़ोजा नसरुद्दीन ने बीच में ही टोकाः ठहरिए, मौलाना हुसैन! रुकिए! देखिए, आप चिल्लाने में भी काहिली बरतते हैं। आपकी चींख़ से यक़ीन नहीं होता कि सचमुच आप का सर बेरहमी से दबाया जा रहा है। याद रखिए, पहरेदार ऐसे मुआमलों में बड़े तजर्बेकार है। अगर उन्हें शक हो गया कि आप बनावटी चींख़-पुकार मचा रहे हैं तो अर्सलां बेग को ख़बर दे देंगे और तब आप किसी असली जल्लाद के हाथों में पड़ जायेगे। चिल्लाने में ज़ोर लगाना तो आप के ही फ़ायदे की बात है। देखिए, मैं बताता हूं कैसे चींख़ना चाहिए?
वह खिड़की के पास गया, सांस भरी और यकायक इतने ज़ोर से चींख़ा कि बूढ़ा कान बन्द कर के पीछे को हट गया।
शिकायती लहजे में वह बोलाः अबे, काफ़िर की औलाद! मैं ऐसा गला कहां से लाऊं? आख़िर, मैं इस तरह कैसे चिल्लाऊं कि आवाज़ शहर के दूसरे कोने तक पहुंच जाय?
असली जल्लादों के हाथ नहीं पड़ना चाहते, तो यही एक सूरत है। ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहा। बूढ़े ने फिर कोशिश की और पूरा ज़ोर लगा दिया। अब वह इतनी दर्दभरी आवाज़ में चिल्ला रहा था कि मीनार के नीचे बैठे पहरेदारों ने जुआ रोक दिया और उसकी तकलीफ़ का मज़ा लेने लगे।
चींख़ने की कोशिश में बूढ़े को खांसी आ गयी और गला घरघराने लगा। रिरियाता हुआ वह बोलाः
हाय, हाय! हाय मेरा गला! उफ़ मरा! हाय कितना ज़ोर पड़ा है इस पर! अबे नाक़िस आवारे! अब तो तू ख़ुश है? इज़राईल (मौत का फ़रिश्ता) तुझे उठा ले!
हां, अब मुझे इत्मिनान हुआ। ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब दिया। मौलाना हुसैन! अपनी इस कोशिश के लिए यह इनआ’म लीजिए।
अमीर से मिली थैलियां निकाल कर उसने उन्हें एक कश्ती में उंडेला और दो बराबर-बराबर हिस्सों में बाट दिया। बूढ़ा बैठा कोसता और गाली देता रहा।
ख़ोजा नसरुद्दीन नर्मी से बोलाः आप मुझे इस तरह गाली क्यों देते हैं? मौलाना हुसैन के नाम में क्या मैं ने किसी तरह का बट्टा लगाया है? क्या मैं ने उनके इल्म को बदनाम किया है? आप यह रक़म देख रहे है? अमीर ने यह रक़म मशहूर नजूमी और हकीम मौलाना हुसैन की अपने हरम की एक लड़की का इ’लाज करने के लिए दी है।
लड़की का इ’लाज किया था तूने? बूढ़े का गला रुंध गया। जाहिल! बद-मआ’श! ठग! बीमारियों के बारे में तू जानता ही क्या है?
मैं बीमारियों के बारे में तो कुछ नहीं जानता, ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब दिया, लेकिन लड़कियों के बारे में ज़रूर बहुत कुछ जानता हूं। सो, मुनासिब यही है कि अमीर से मिला यह इनआ’म दो हिस्सों में बांट दिया जाय- एक हिस्सा आपका हो जायगा, आपके इल्म का, एख हिस्सा मेरा हो, मेरे इल्म का। मैं आप को बता दूं, मौलाना साहब, कि मैं ने इस लड़की को यूं ही अच्छा नहीं कर दिया, बल्कि सितारों की कैफ़ियत समझाकर अच्छा किया है। कल रात मैं ने देखा कि सितारे सादअस्सऊद सितारे साद्-अल अक़बिया के क़ेरान (यो) में थे और अक़रब (वृश्चिक) सरतान की तरफ़ मुख़ातिब था।
ग़ुस्से से बौखला कर कमरे में इधर-उधर दौड़ता हुआ बूढ़ा चिल्लायाः क्या कहा, जाहिल? तू सिर्फ़ गधे हांकने के क़ाबिल है! तू यह भी नहीं जानता कि सितारे साद-अस्सऊद सितारे साद्-अल अक़बिया के क़ेरान में जा ही नहीं सकते। वे एक ही क़ेरान के सितारे तो हैं। अक़रब का बुर्ज तुझे इस महीने में दिखायी ही कैसे दे गया? कल सारी रात मैं ने आसमान देखने में गुज़ारी। सितारे साद्-बुला और अस्सिमक क़ेरान में थे और अल-ज़वह उतार पर। सुन रहा है न तू, काठ के उल्लू! अक़रब इस वक़्त है ही नहीं! तू सब गड़बड़ कर देता है। देखो तो, इस गधे हांकनेवाले ने उन मुआमलों में भी दख़ल देना शुरू कर दिया जिन का इसे कोई इल्म नहीं! सितारे अल्-बुतैन को, जो अल्-हक़ के मुख़ालिफ़ है, तू अक़रब समझ बैठा?
ख़ोजा नसरुद्दीन की जहालत को नुमाया करने के इरादे से बूढ़ा देर तक उसे सितारों की सही कैफ़ियत समझाता रहा। ख़ोजा नसरुद्दीन हर लफ़्ज़ को ज़ेहन बैठाने में लगा था, ताकि आलिमों के सामने अमीर से बात करते वक़्त वह ग़लतियां न कर बैठे।
जाहिल! जाहिल की औलाद! तेरी सात पुश्तें जाहिल है! बूढ़ा नाराज़ी में बकता रहा, तू यह भी नहीं जानता कि आज-कल, यानी चांद की उन्नीसवीं मंज़िल में, जो अश्-शुला कहलाती है, और जो क़ौस (धनु) के बुर्ज में है, इंसान की क़िस्मत इसी बुर्ज के सितारों के मातहत होती है और किसी के नहीं। आ’ला दानिशमन्द शहाबुद्दीन महमूद अलक़राज़ी ने अपनी किताब में यह बात बहुत साफ़-साफ़ लिख दी है…
ख़ोजा नसरुद्दीन याद करता गयाः शहाबुद्दीन महमूद अलक़राज़ी... कल मैं अमीर की मौजूदगी में लम्बी दाढ़ीवाले आलिम का, इस किताब की बाबत न जानने पर, पर्दाफ़ाश करूंगा। उसके दिल और दिमाग़ में मेरे इल्म के लिए बहुत इज़्ज़त और ख़ौफ़ छा जायगा। यह बहुत मुनासिब बात होगी।
।। 4 ।।
सूदख़ोर-जाफ़र के मकान में सोने के भरे, मुहरबन्द, बारह मर्तबान थे। लेकिन उसकी हवस थी कि कम से कम बीस मर्तबान हों। तक़दीर से उसे शक्ल ऐसी मिली थी कि उसकी बेईमानी और उसका लालच उसकी शक्ल पर साफ़ झलक आते थे। जो लोग ग़ैर-तजरबेकार, सीधे-सादे और भलेमानस थे, वे भी उससे ख़बरदार रहते थे। उसके लिए नये शिकार फांसना बहुत मुश्किल था। इसीलिए, उसके मर्तबान बहुत धीमी रफ़्तार से भर रहे थे।लम्बी सांस लेकर वह सोचताः काश! मैं अपने जिस्म के बदनुमापन से नजात पा जाता। तब लोग मुझे देख कर भागने न लगते। मेरी चालबाज़ी भांपे बिना वे मेरा भरोसा कर लेते। ओह, तब उन्हें फंसाना कितना आसान होता! कितनी जल्दी मेरी आमदनी बढ़ती!
शहर में जब यह अफ़वाह फैली कि अमीर के नये आलिम मौलाना हुसैन ने इलाज में बड़े हुनर दिखाये हैं, तो सूदख़ोर जाफ़र ने बहुत उम्दा सौग़ातों से एक टोकरी भरी और महल जा पहुंचा। टोकरी का सामान देख कर अर्सलां बेग ने मदद करने की पूरी रज़ामन्दी ज़ाहिर की।
क़िबला जाफ़र साहब! तुम बहुत ठीक मौक़े पर आये। हमारे आक़ा शहंशाह का मिज़ाज आज बहुत अच्छा है। वह तुम्हारी दरख़्वास्त ज़रूर मान लेंगे।
अमीर ने सूद-ख़ोर की बात सुनी, सोने की हाथीदांत-जड़ी शतरंज में भेट क़ुबूल की और नये आलिम मौलाना हुसैन को बुला भेजा।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने आकर कोर्निश की। अमीर बोलेः मौलाना हुसैन! यह शख़्स सूद-ख़ोर जाफ़र है। यह हमारा वफ़ादार ग़ुलाम है और इसने हमारी कई ख़िदमतें की हैं। हम हुक्म देते हैं कि तुम फ़ौरन इसका लंगड़ापन, कूबड़पन, कानापन वदूसरे नक़्सों को दूर कर दो।…
यह हुक्म सुन कर अमीर फ़ौरन चल दिये- मानो यह दिखाने के लिए कि इस हुक्म के ख़िलाफ़ वह कोई बात सुनने को तैयार नहीं। सर झुका कर ख़ोजा नसरुद्दीन ने आदाब बजाया और वह भी चल दिया। उस के पीछे-पीछे अपना कूबड़ घसीटता हुआ सूद-ख़ोर भी कछुए की तरह चलने लगा। हे हज़रत मौलाना हुसैन साहब! हम लोग ज़रा जल्दी चले, नक़ली दाढ़ीवाले ख़ोजा नसरुद्दीन को न पहचानकर सूद-ख़ोर बोला, क्योंकि अभी सूरज नहीं ढला है और मैं रात होने से पहले ठीक हो जाऊंगा...। जैसा कि आपने सुना, अमीर ने आपको हुक्म दिया है कि आप मुझे फ़ौरन चंगा कर दें।
दिल ही दिल में ख़ोजा नसरुद्दीन अमीर को, सूद-ख़ोर को व अपने-आपको बुला-भला कह रहा था कि क्यों उस के इल्म का इतना चर्चा हुआ और ऐसी शोहरत मिली। इस मुश्किल से कैसे छुटकारा मिलेगा? जल्दी चलने के लिए सूद-ख़ोर बार-बार आस्तीनें समेट रहा था।
सड़कें सुनसान थी। ख़ोजा नसरुद्दीन के पांव बार-बार गर्म रेत में धंस जाते थे। आगे बढ़ता हुआ वह सोच रहा थाः
उफ़, कैसे इस मुश्किल से छुटकारा पाऊं?
एकाएक वह रुक गयाः लगता है मेरी क़सम पूरी होने का वक़्त आ गया है।
फ़ौरन उस ने एक चाल सोची और हर पहलू से उसे ठोंक बजाकर देखा। मन ही मन उस ने कहाः हां, वक़्त आ गया है!
ग़रीबों को सतानेवाले ऐ बेरहम सूद-ख़ोर! तू आज ही डूबकर मरेगा।
वह दूसरी तरफ़ ताकने लगा ताकि सूद-ख़ोर उसकी काली आंखों की चमक न देख सके। वे लोग अब एक गली में मुड़े जहां हवा रेत के बगूले उठा रही थी। सूद-ख़ोर ने अपने घर का चोर दरवाज़ा खोला। सहन के दूसरे सिरे पर एक नीची बाड़ के पीछे, जहां से जनानख़ाना शुरु होता था, ख़ोजा नसरुद्दीन ने हरे पत्तों और शाखों के पीछे हलकी आवाज़ व हंसी सुनी और कुछ हिलते हुए देखा। सूद-ख़ोर की बीवियां और रखैलें नये अजनबी की आमद का मज़ा ले रही थी। वे ख़ुशी की उमंगों में थीं, क्योंकि अपनी क़ैद में मन बहलाने का उनके पास दूसरा तरीक़ा था नहीं। सूद-ख़ोर रुक गया और उन लोगों की तरफ़ घूरकर देखा। ख़ामोशी छा गयी।ख़ोजा नसरुद्दीन ने मन ही मन कहाः ऐ हसीन क़ैदियो! मैं आज तुम्हें नजात दिला दूंगा।
जिस कमरे में सूद-ख़ोर ख़ोजा नसरुद्दीन को ले गया, उस में एक भी खिड़की नहीं थी और दरवाज़े में तीन ताले और कई सांकले लगी हुई थी, जिन्हें खोलने का राज़ सिर्फ़ सूद-ख़ोर को ही मा’लूम था। उसे काफ़ी देर मेहनत करनी पड़ी, तब कहीं जाकर दरवाज़ा खुला। यहीं वह अपने सोने से अटे मर्तबान रख़ता थी। तहख़ाने के दरवाज़े पर लगे तख़्तों पर ही वह सोता था।
कपड़े उतारो! ख़ोजा नसरुद्दीन ने हुक्म दिया।
सूद-ख़ोर ने कपड़े उतार दिया। नंगा होकर वह बेहद भद्दा और बदनुमा लगता था। ख़ोजा नसरुद्दीन ने दरवाज़ा बन्द किया और दुआएं पढ़नी शुरु की।
इसी बीच जाफ़र के बेशुमार रिश्तेदार आ-आकर सहन में इकट्ठे होने लगे। उन में से कई पर जाफ़र का क़र्ज़ था। वे उमीद कर रहे थे कि इस मुबारक मौक़े की यादगार में वह इन क़र्ज़ों को मुआ’फ़ कर देगा। लेकिन उनकी उमीदें ग़लत थीं। बन्द कमरे के बाहर अपने क़र्ज़दारों की आवाज़ेँ सुनकर शैतान जाफ़र ख़ुशी से फूल उठा।
उस ने सोचाः और मैं इन लोगों से कह दूंगा कि मैंने क़र्ज़र्ज मुआ’फ़ किया, लेकिन रसीदें इन्हें वापस नहीं करूंगा। चकमे में आकर ये लोग क़र्ज़र्ज चुकाने में लापरवाही बरतने लगेंगे। मैं कुछ कहूंगा नहीं। बस, चुपचाप क़र्ज़र्ज का हिसाब रखूंगा।
और जब एक-एक तंके पर दस-दस तंके सूद हो जायगा और कुल रक़म उनके मकानों, बाग़ीचों और अंगूर के बाग़ों की क़ीमत से ज़ियादा हो जायगी, तो मैं क़ाज़ी को बुलाऊंगा और अपना वा’दा भूल जाऊंगा। रसीदें पेश कर दूंगा, उन की जायदादें बेच लूंगा, फिर उन्हें फ़क़ीर बना दूंगा और अपना एक और मर्तबान सोने से भर लूंगा!
ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः चलो जाफ़र! अब हम लोग तुरखान के पाक तालाब चलेंगे, जहां तुम पाक पानी में नहाओगे। इलाज के लिए यह निहायत ज़रुरी है।
तुरख़ान के पाक तालाब? सूद-ख़ोर बदहवासी से चिल्ला उठा। एक मर्तबा मैं उस में डूबते-डूबते बचा। ऐ दाना मौलाना हुसैन! आप को मा’लूम हो कि मैं तैरना नहीं जानता।
कोई बात नहीं! तालाब जाते वक़्त तुम्हें बराबर दुआएं पढ़नी होंगी और दुनियावी चीज़ों से बिल्कुल बेख़बर हो जाना होगा। साथ में तुम्हें सोने के सिक्कों से भरी एक थैली भी ले चलनी होगी ताकि रास्ते में जो भी मिले उसे तुम एक-एक सिक्का दे सको।
सूद-ख़ोर ने सर्द आह भरी और कराहा। लेकिन उसने लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ हुक्म की ता’मील की। रास्ते में उन दोनों को कारीमर, भिखमंगे, हर क़िस्म के लोग मिले। हालांकि ऐसा करने में उसका दिल टूट रहा था तो भी हर एक को सूद-ख़ोर ने सोने का एक-एक सिक्का दिया। रिश्तेदार पीछे-पीछे आ रहे थे। ख़ोजा नसरुद्दीन ने जान-बूझकर उन लोगों को साथ ले लिया था ताकि सूद-ख़ोर को डूबो देने की तोहमत उस पर न लगे।
सूरज छतों के पीछे छिप रहा था। दरख़्तों का साया तालाब पर पड़ रहा था। मच्छर हवा में भनभना रहे थे। जाफ़र ने कपड़े उतारे और पानी की तरफ़ बढ़ा। शिकायती लहजे में वह बोलाः पानी यहां बहुत गहरा है, मौलाना हुसैन! आप भूले तो नहीं- मैं तैरना नहीं जानता।
रिश्तेदार ख़ामोश खड़े देख रहे थे। शर्म से अपने हाथों से अपना जिस्म छिपाता हुआ, डर से दुबकता हुआ सूदख़ोर, तालाब के चारों तरफ़ कोई छिछली जगह ढूंढ रहा था। एक जगह वह बैठ गया। ऊपर से लटकती टहनियों को थामकर, डरते-डरते, अपने एक पैर का पंजा उसने पानी में डाला।
बाबा रे! यह तो बहुत ठंडा है! वह बड़बड़ाया। घबराहट के मारे उस की आंखे बाहर निकली पड़ रही थी।
नज़र बचाते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः तुम वक़्त ख़राब कर रहे हो, जाफ़र। वह अपना दिल कड़ा कर रहा था ताकि ग़लत मौक़े पर रहम उस पर हावी न हो जाय। उसने उन सब लोगों की तकलीफ़ों के बारे में सोचना शुरु कर किया, जिन्हें जाफ़र ने बर्बाद कर दिया था। बीमार बच्चे के सूखे होंठ...बूढ़े नियाज़ के आंसू…!
उसका चेहरा ग़ुस्से से तमतमा उठा।
तुम वक़्त ख़राब कर रहे हो जी! उसने दोहराया। अगर तुम्हें इलाज कराना है तो पानी में उतरो।
सूद-ख़ोर पानी में बढ़ने लगा। वह इतने आहिस्ता आहिस्ता बढ़ रहा था कि पानी जब उसके घुटनों तक पहुंचा, तो उसका पेट किनारे पर ही था। आख़िर वह पानी में खड़ा हुआ। पानी उसकी कमर तक पहुंच गया। घास और करकुल पानी में हिले। ठंडे पत्ते उसका बदन छूने लगे, जिस से उसे गुदगुदी महसूस हुई। ठंड से जाफ़र के कंधे कांपने लगे। उस ने एक क़दम और आगे बढ़ाया और मुड़ कर पीछे देखा। उसकी आंखे, गूंगे जानवर की तरह, रहम मांग रही थी। लेकिन, ख़ोजा नसरुद्दीन की आंखों में इस का जवाब नहीं था। सूद-ख़ोर पर रहम करने और उसे छोड़ देने का मतलब था, हज़ारों गरीब इंसानों पर और ज़ियादा मुसीबत ढाना।
पानी सूद-ख़ोर के कूबड़ तक आ पहुंचा। लेकिन ख़ोजा नसरुद्दीन आगे बढ़ने के लिए उसे बेरहमी से ललकारता रहाः आगे बढ़ो... और आगे बढ़ो! पानी कानों तक पहुंचने दो भाई! मैं बताये देता हूं, आगे नहीं बढ़ोगे तो मैं तुम्हारे इलाज की ज़िम्मेदारी नहीं लूंगा। हां, हां, शाबाश! आगे बढ़ो! किबला जाफ़र साहब , ज़रा-सी हिम्मत दिखाओ! हिम्मत करो, हिम्मत! एक क़दम और! ज़रा और आगे!
सूद-ख़ोर के मुंह में ग़लग़ल की आवाज़ आयी और वह पानी की सतह के नीचे ग़ायब हो गया।
रिश्तेदार चिल्लाने लगेः डूब रहा है! अरे वह डूब रहा है।
हड़बड़ी मच गयी। दरख़्तों की शाखें और झाड़ियां डूबते हुए जाफ़र की तरफ़ बढ़ायी जाने लगी। कुछ लोग सिर्फ़ रहमदिल होने की वजह से उसे बचाना चाहते थे, कुछ लोग बचाने का महज़ बहाना कर रहे थे। ख़ोजा नसरुद्दीन उन्हें देख कर ही आसानी से बता सकता था कि उनमें किस पर जाफ़र का कितना क़र्ज़ है। वह ख़ुद औरों से ज़ियादा दौड़-दौड़कर चिल्ला रहा था और शोर मचा रहा थाः यहां, इधर! जाफ़र साहब! अपना हाथ हमें दीजिए! सुनिए न! ज़रा अपना हाथ इधर बढ़ाइए!
उसे इस बात का पूरा यक़ीन था कि सूद-ख़ोर अपना हाथ नहीं बढ़ायेगा! दीजिए, का लफ़्ज़ सुन कर ही उसे लक़वा मार मार जाता था।
सभी रिश्तेदार एक साथ चिल्लाएः दीजिए! अपना हाथ इधर दीजिए!
सूद-ख़ोर डूबता और फिर ऊपर आता, हर बार ऊपर आने में उसे पहली बार से ज़ियादा देर लगती। सचमुच उस पाक तालाब में उसकी ज़िन्दगी ख़त्म हो गयी होती, अगर तभी ख़ाली मशक पीठ पर लादे, नंगे पैर भागता हुआ एक भिश्ती वहां न आ पहुंचता।
डूबते हुए को देख कर वह चौं ककर बोलाः अरे, यह तो सूद-ख़ोर जाफ़र है!
बिना झिझक, पूरी पोशाक पहने हुए ही वह पानी में कूद पड़ा और हाथ बढ़ाकर चिल्लायाः यह लो! मेरा हाथ पकड़ लो!
सूद-ख़ोर ने हाथ थाम लिया और हिफ़ाज़त के साथ बाहर निकल आया।
उधर सूद-ख़ोर किनारे पर पड़ा होश-हवास दुरुस्त कर रहा था, इधर भिश्ती जोश के साथ उस के रिश्तेदारों को बता रहा थाः
तुम लोग ग़लत तरीके से उस की मदद कर रहे थे। बराबर 'लीजिए' 'लीजिए' की जगह 'दीजिए' 'दीजिए' चिल्ला रहे थे।
क्या तुम्हें मा’लूम नहीं कि एक मर्तबा पहले भी जाफ़र साहब इसी तालाब में क़रीब-क़रीब डूब चुके थे और एक अजनबी ने उन्हें बचाया था जो इधर से एक गधे पर सवार होकर गुज़र रहा था? उस अजनबी ने भी जाफ़र को बचाने की यही तरकीब की थी और यह तरकीब मुझे याद थी। आज वह जानकारी काम आ गयी।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने सुना तो अपना होंठ काट लिया। तो उस ने दो बार सूद-ख़ोर को बचाया था? एक बार ख़ुद अपने हाथों से और अब भिश्ती के ज़रिए? वह सोचने लगाः ख़ैर, कोई बात नहीं। यह डूब कर रहेगा, यह मेरा ज़िम्मा है- चाहे इसके लिए मुझे साल भर बुख़ारा में क्यों न रहना पड़े।
अब तक सूद-ख़ोर के दम में दम आ गया था और वह शिकायत के लहजे में कराह-कराहकर कहने लगाः अरे मौलाना हुसैन! तुम ने तो कहा था कि तुम मेरा इलाज करोगे! लेकिन तुमने तो मुझे डुबा ही दिया था। अल्लाह गवाह है। मैं क़सम खाता हूं कि इस तालाब के सौ क़दम क़रीब भी कभी नहीं आऊंगा! तुम हो किस तरह के आ’लिम जो डूबते हुए शख़्स को कैसे बचाना चाहिए, यह भी नहीं जानते। यह बात तुम्हें एक मा’मूली भिश्ती से सीखनी पड़ी? लाओ मेरा साफ़ा।
और ख़िलअ’त। चलो मौलाना! अंधेरा हो रहा है और हमें वह काम पूरा करना है जो हम ने शुरू किया था। और तुम, भिश्ती, खड़े होते हुए सूद-ख़ोर बोला, हफ़्ते भर बाद तुम्हें मेरा क़र्ज़र्ज चुकाना है, यह मत भूलना। लेकिन मैं तुम्हें कुछ इनआ’म देना चाहता हूं और इसलिए मैं तुम्हारा आधा... मेरा मतलब है चौथाई... यानी तुम्हारे क़र्ज़ा का दसवां हिस्सा मुआ’फ़ कर दूंगा। यह काफ़ी है, हालांकि तुम्हारी मदद के बिना भी मैं आसानी से अपने को बचा सकता था।
भिश्ती सहमकर बोलाः अरे ओ जाफ़र साहब! आप मेरी मदद के बिना नहीं बच सकते थे। क्या आप मेरे क़र्ज़ का एक चौथाई भी मुआ’फ़ नहीं कर सकते?
आ-हा! तो तू ने मुझे ख़ुदग़रज़ी से बचाया था? सूद-ख़ोर चिल्लाया। तू नेक मुसलमान के जज़्बे से नहीं बल्कि लालच से मुझे बचाने आया था? इस बात की तो तुझे सज़ा मिलनी चाहिए! अबे भिश्ती! मैं क़र्ज़ की एक पाई भी मुआ’फ़ नहीं करूंगा।
झेंपा और सहमा हुआ भिश्ती आगे बढ़ चला। ख़ोजा नसरुद्दीन रहम से उस की देखता रहा। फिर वह घूमा और नफ़रत और हिक़ारत की नज़र से जाफ़र को देखा और भिश्ती की तरफ़ बढ़ गया।
जाफ़र ने जल्दबाज़ी मचायीः चलो, मौलाना हुसैन! तुम्हें उस लालची भिश्ती के कान में फुसफुसाने को क्या मिल गया?
ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहाः ठहरो! तुम यह भूल गये हो कि जिस किसी से भी तुम मिलो, उसे सोने का एक सिक्का दोगे।
भिश्ती को तुमने अभी तक सिक्का क्यों नहीं दिया?
सूद-ख़ोर रिरियाने लगाः ला’नत है मुझ पर! उफ़, मैं तो बिल्कुल बर्बाद हो जाऊंगा! ज़रा सोचो तो, मुझे इस लालची और नाचीज़ भिश्ती तक को सोने का सिक्का देना पड़ेगा?
उसने थैली खोली और एक सिक्का निकाल कर फेंकाः बस, यह आख़िरी मर्तबा है। अब अंधेरा हो गया और वापसी में रास्ते में हमे कोई नहीं मिलेगा।
लेकिन भिश्ती से फुसफुसाकर ख़ोजा नसरुद्दीन ने बेकार ही बातें नहीं की थीं।
वे वापस रवाना हुए। आगे-आगे सूद-ख़ोर, उसके पीछे ख़ोजा नसरुद्दीन था। सब से पीछे रिश्तेदार चल रहे थे। अभी वे लोग पचास क़दम भी न चले होंगे कि एक गली से वही भिश्ती फिर निकला- हां, वही जिसे इन लोगों ने अभी तालाब के किनारे छोड़ा था।
उसे नज़रअंदाज़ करने की ग़रज़ से सूद-ख़ोर मुड़ा, लेकिन ख़ोजा नसरुद्दीन ने डांटाः जाफ़र साहब, याद रखो! हरेक को, जो तुम्हें मिले!
अंधेरे में तकलीफ़ भरी कराह सुनायी पड़ी। जाफ़र थैली खोल रहा था। कोई पचास क़दम चले होंगे कि वह फिर उनके सामने आ खड़ा हुआ। सूद-ख़ोर पीला पड़ गया और कांपने लगा। बहुत आजिज़ी से वह बोलाः
मौलाना, यह तो फिर वही...
बेरहमी से ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब दियाः जो भी मिले, हरेक को।
एक बार फिर एक कराह रात की बन्द हवा में उभरी। जाफ़र थैली खोल रहा था।
यही हरकत सारे रास्ते होती रही। हर पचास क़दम बाद वही भिश्ती आ खड़ा होता। जाफ़र हांफ रहा था। पसीना चेहरे से टपक रहा था। वह समझ ही नहीं पा रहा था कि यह हो क्या रहा है। सिक्का थामकर वह सीधा भागता कि आगे सड़क पर झाड़ियों के पीछे से न जाने कहां से निकल कर वही भिश्ती फिर सामने आ खड़ा होता।
अपनी रक़म बचाने के लिए सूद-ख़ोर ने जल्दी-जल्दी चलना शुरू किया और फिर एकदम दौड़ने लगा। लेकिन वह लंगड़ा था और उस भिश्ती से कैसे टक्कर ले सकता था जो अपनी उमंग में हवा से बातें कर रहा था और बाड़ों व चहारदीवारियों को फांद रहा था। सूद-ख़ोर को वह रास्ते में कम से कम पन्द्रह बार मिला। सूद-ख़ोर के घर के बिल्कुल नज़दीक आख़िरी बार वह एक छत से कूदकर सामने आ गया और फाटक में घुसने का रास्ता रोक लिया। आख़िरी सिक्का पाकर बेदम होकर वह वहीं ज़मीन पर गिर पड़ा।
सूद-ख़ोर घर के सहन में पहुंचा। ख़ोजा नसरुद्दीन उसके पीछे-पीछे था। जाफ़र ने अपनी ख़ाली थैली नसरुद्दीन के क़दमों पर फेंक दी और ग़ुस्से से चिल्लायाः मौलाना हुसैन साहब! मेरा इलाज बहुत महंगा पड़ रहा है! मैं अब तक सौग़ात,ख़ैरात और इस मलऊन भिश्ती पर तीन हज़ार तंके से ज़ियादा ख़र्च कर चुका हूं।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहाः इत्मिनान रखो, भाई! आधे घंटे के भीतर ही तुम इस का इनआ’म पाओगे। सहन के बीच ख़ूब बड़ी आग जलाने को कहो।
इधर नौकर ईंधन ला रहे थे और आग जला रहे थे, उधर ख़ोजा नसरुद्दीन तेज़ी से कोई ऐसी चाल खोज निकालने के लिए दिमाग़ दौड़ा रहा था जिससे सूद-ख़ोर मात खा जाय और इलाज ने हो पाने की ज़िम्मेदारी उसी पर पड़े। उस ने कई तरकीबें सोचीं। लेकिन हर एक को नामुनासिब समझ कर तर्क कर दिया। इस बीच आग ख़ूब भड़क उठीं थी और हलकी हवा पाकर लपटें ऊंची उठ रही थीं जिस से पास के अंगूर के बाग़ीचे की हरियाली पर लाल रोशनी फैल रही थी।
ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः जाफ़र साहब! कपड़े उतारिए और आग के तीन चक्कर लगाइए!
कोई ठीक चाल उसकी समझ में अब तक नहीं आयी थी और वह सिर्फ़ वक़्त काट रहा था। वह ख़याल में डूब रहा लग रहा था। रिश्तेदार ख़ामोशी से देख रहे थे। सूद-ख़ोर आग के चारों तरफ़ घूम रहा था, मानो जंज़ीर से बंधा कोई बनमानुस हाथ हिलाता नाच रहा हो, उस के हाथ क़रीब-क़रीब घुटनों तक पहुंचते थे।
ख़ोजा नसरुद्दीन का चेहरा खिल उठा। उसने आराम की सांस ली और कन्धे चौड़ाये। फिर वह बोलाः मुझे एक कम्बल दो! जाफ़र और तुम सब लोग यहां आओ!
रिश्तेदारों को उस ने एक गोल घेरे में खड़ा किया और बीच में ज़मीन पर सूद-ख़ोर को बैठाया। फिर उस ने उन सब लोगों को मुख़ातिब करके कहाः मैं जाफ़र को इस कम्बल में ढंग दूंगा और दुआ पढूंगा। तुम सब लोग, और जाफ़र भी, आंखे बन्द करके मेरे साथ दुआ दोहराना। जब मैं कम्बल हटाऊंगा, तो जाफ़र का इलाज पूरा हो चुकेगा। लेकिन एक बहुत ज़रुरी शर्त है। अगर यह शर्त पूरी न हुई, तो जाफ़र का इलाज नहीं हो सकेगा। तुम लोग कान लगाकर सुनो कि मैं क्या कहता हूं।
रिश्तेदार उस के हर लफ़्ज़ को ध्यान से सुनते और उसे याद रखने के लिए ख़ामोश हो गये और पास आ खड़े हुए।
ख़ोजा नसरुद्दीन ज़ोरदार और साफ़ आवाज़ में कहने लगाः मेरे बाद जब तुम दुआ के लफ़्ज़ दोहराओ, तो तुम में से कोई भी बन्दर के बारे में- कम से कम जाफ़र तो हरगिज़ ही- नहीं सोचे! अगर तुम में से किसी ने बन्दर के बारे में सोचा- या इस से भी बदतर, कोई अपने ख़याल में भी उसे लाया- उस की दुम, लाल पिछाड़ी, बदनुमा चेहरा और पीले दांत देखे, तो इलाज नहीं हो सकेगा। ऐसे में इलाज हो भी नहीं सकता क्योंकि किसी भी पाक काम में बन्दर जैसे गन्दे और नापाक जानवर का ख़याल ठीक नहीं। तुम लोग समझ रहे हो न?
हम लोग समझ रहे हैं। रिश्तेदारों ने जवाब दिया।
कम्बल से सूद-ख़ोर को ढंकते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने बड़ी संजीदा आवाज़ में कहाः जाफ़र साहब! तैयार हो जाइए और अपनी आंखे बन्द कर लीजिए। फिर रिश्तेदारों की तरफ़ पलटकर वह बोलाः अब तुम लोग भी अपनी आंखे बन्दर कर लो और मेरी शर्त याद रखो। ख़बरदार! बन्दर के बारे में बिल्कुल ही न सोचना।
फिर उसने दुआ पढ़नी शुरू कीः ऐ रब्बुल आलमीन व दाना-ए-पाक आलिफ़, लाम, मीम (क़ुरआन की एक आयत के पहले लफ़्ज़) की ख़ुसूसियत से इस अपने हक़ीर ग़ुलाम जाफ़र को अच्छा कर दे…
रिश्तेदार भी बेमेल आवाज़ में दुआ दोहराने लगेः ऐ रब्बुल आलमीन व दाना-ए-पाक... यहां ख़ोजा नसरुद्दीन ने एक चेहरे पर कुछ परेशानी और घबराहट देखी। एक दूसरा रिश्तेदार खांसने लगा। तीसरा दुआ के लफ़्ज़ों पर अटक गया।
चौथे ने सिर हिलाया, मानो आंखों के सामने से कोई नज़ारा हटा रहा हो।
एक लम्हे के बाद ही कम्बल के नीचे जाफ़र ख़ुद बेचैनी से हिलने लगा। बेहद नफ़रत पैदा करनेवाला, बहुत बदनुमा, एक बन्दर अपनी लम्बी दुम और पीले दांत दिखाता उसके दिमाग़ के पर्दे पर आ खड़ा हुआ था और कभी जीभ दिखाकर और कभी अपनी लाल गोल पिछाड़ी और बदन के वे हिस्से दिखा कर चिढ़ाने लगा जो ऐसे वक़्त किसी भी सच्चे मुसलमान के ख़याल में आने के क़ाबिल नहीं।
ख़ोजा नसरुद्दीन ज़ोरदार आवाज़ में दुआ करता रहा। याकयक वह रुक गया, मानो कुछ सुन रहा हो। रिश्तेदार ख़ामोश हो गये। कुछ तो पीछे को हट गये।
कम्बल के नीचे जाफ़र दांत किटकिटा रहा था क्योंकि उस के ख़यालात में बन्दर बिल्कुल खुले तौर पर गन्दी हरकतें करने लगा था।
काफ़िरो! शरारत पसन्दो! ख़ोजा नसरुद्दीन गरज उठा। मैं ने जो बात मनअ' की थी, उसे करने की मज़ाल? उस चीज़ का ख़याल करते हुए तुम लोग दुआ कैसे कर सके जिसकी मैं ने ख़ास तौर पर मुमानअ’त की थी?
कम्बल फुर्ती से हटाते हुए वह सूद-ख़ोर की तरफ़ झपटाः तू ने मेरी मदद क्यों मांगी थी? अब मैं समझ गया कि तू इलाज करवाना ही नहीं चाहता था। तू तो सिर्फ़ मुझे ज़लील करना चाहता था। तू मेरे दुश्मनों का साथ दे रहा था! ऐ जाफ़र, होशियार! कल अमीर को सारा माज़रा मा’लूम हो चुकेगा। मैं उन्हें बताऊंगा कि किस तरह दुआ मांगते वक़्त तू ने जान बूझकर-काफ़िराना इरादे से- बन्दर के बारे में सोचा! और तुम सब लोग भी होशियार हो जाओ! तुम लोग आसानी से छुटकारा नहीं पाओगे। कुफ़्र की जो सज़ा होती है वह तुम लोग जानते होगे…
चूंकि कुफ़्र के लिए हमेशा बहुत सख़्त सज़ा मिलती थी, इसलिए रिश्तेदार मिमियाने-रिरियाने लगे। वे डरे हुए थे। जाफ़र ने घिघियाकर न समझ में आनेवाले लफ़्ज़ों में अपनी सफ़ाई पेश करनी चाही। लेकिन उसे सुनने के लिए ख़ोजा नसरुद्दीन रुका नहीं। वह घूमा और खटाक से फाटक बन्द करता बाहर निकल गया।
थोड़ी देर में चांद निकल आया। सारा शहर हलकी चांदनी में नहा गया। रात को देर तक सूद-ख़ोर के घर शोरग़ुल होता रहा, तकरार होती रही। हर शख़्स ज़ोर-ज़ोर से बहस कर रहा था और यह जानने की कोशिश कर रहा था कि बन्दर की बाबत सोचनेवाला पहला शख़्स कौन था।
।। 5 ।।
सूद-ख़ोर को बे-वक़ूफ़ बनाकर ख़ोजा नसरुद्दीन महल को वापस लौटा।
दिन भर की मेहनत के बाद बुख़ारा के बाशिन्दे सोने की तैयारी कर रहे थे। गलियां ठंड़ी और अंधेरी थीं। पुलों के नीचे से पानी के बहने की आवाज़ आ रही थी। हवा में नम धरती की सोंधी महत थी। कहीं-कहीं कीचड़ में ऐसी जगह ख़ोजा नसरुद्दीन का पैर फिसल जाता जहां किसी जोशीले भिश्ती ने सड़कों पर ज़रूरत से ज़ियादा छिड़काव कर दिया था, ताकि रात में हवा का झोंका उन थके-मांदे लोगों की नींद में ख़लल न डाले जो छतों पर और इहातों में आराम करने के लिए लेट गये थे। अंधेरे में डूबे हुए, बाग़ीचे दीवारों के ऊपर से ख़ुश्बू फैला रहे थे। दूर चमकते सितारे ख़ोजा नसरुद्दीन को कामयाबी का यक़ीन दिला रहे थे।
वह हंसाः आख़िर दुनिया इतनी बुरी जगह नहीं है- कम-से-कम एक ऐसे आदमी के लिए तो क़तई बुरी नहीं- जिस के पास दिमाग़ हैं और जिस के कन्धों पर ख़ाली घड़ा नहीं है।
वापसी में वह बाज़ार की तरफ़ मुड़ गया। वहां उसे अपने दोस्त अली के चायख़ाने की रोशनी दिखायी दी।
मालिक ने उसके लिए दरवाज़े खोल दिया। दोनो गले मिले और एक अंधेरे कमरे में चले गये। पतली दीवार के दूसरी तरफ़ से बोलने, हंसने और चीनी के बरतनों के खड़कने की आवाज़ आ रही थी। अली ने दरवाज़े बन्द कर दिया और चराग़ जलाया।
सब चीजें तैयार है। अली ने फुसफुसाया। मैं गुलजान के लिए चायख़ाने में इंतिज़ार करूंगा। युसूफ लुहार ने गुलजान को हिफ़ाज़त से छिपाने के लिए एक अच्छी सोच रखी है। तुम्हारे गधे पर दिन-रात ज़ीन कसी रहती है। वह मज़े में है। ख़ूब खाता है और बहुत मोटा हो गया है।
शुक्रिया, अली! मैं नहीं जानता कि मैं कभी तुम्हारी नेकी का बदला चुका सकूंगा।
अली बोलाः हां, हां! ख़ोजा नसरुद्दीन! हमें शुक्रियों के बारे में और बहस नहीं करनी चाहिए। क्या तुम थोड़ी-सी चाय पियोगे?
वह बाहर गया और थोड़ी देर बाद चाय लेकर वापस लौट आया।
दोनों धीरे-धीरे बातें करने लगे। अली ने गुलजान के लिए मर्दों की ख़िलअ’त और उस के बालों की लटों को ढकने के लिए एक बड़ी और सफ़ेद पगड़ी निकाली।
हर चीज़ तफ़्सील से तय हो गयी। ख़ोजा नसरुद्दीन जाने ही वाला था कि उसे दीवार की दूसरी तरफ़ से एक पहचानी हुई आवाज़ सुनाई दी। चायख़ाने की तरफ़ खुलनेवाला दरवाज़े उसने ज़रा-सा खोला और कान खड़े कर लिए। यह आवाज़ थी चेचकरू जासूस की।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने दरवाज़े की दरार बड़ी की ओर झांका।
क़ीमती ख़िलअ’त पहने, पगड़ी और नक़ली दाढ़ी लगाये, चेचकरू ख़ुफ़िया चन्द आदमियों से घिरा बैठा था और ग़ुस्से में कह रहा थाः
यहां जो आदमी ख़ोजा नसरुद्दीन के नाम से घूमता-फिरता है वह जालिया है।असली ख़ोजा नसरुद्दीन मैं हूं दोस्तो !
लेकिन काफ़ी अर्सा हुआ मैं ने अपनी ग़लतियों से तौबा कर ली है, क्योंकि मैं ने समझ लिया है कि मेरी ग़लतियां कितनी ख़राब और नापाक है। इसलिए मैं, असली ख़ोजा नसरुद्दीन, तुम को नसीहत करता हूं कि मेरी मिसाल के नक़्श-ए-क़दम पर चलो और मरी तरह कहो कि हमारा अज़ीम, सानी-ए-आफ़ताब अमीर वाक़ई इस दुनिया में अल्लाह का नायब है। इस का सबूत उसकी बेमिसाल ज़हानत, मेहरबानी और दानाई है। मैं, असली ख़ोजा नसरुद्दीन, तुम को यही सलहा देता हूं।
ओ हो! ख़ोजा नसरुद्दीन ने धीरे से कहा और अली को कोहनी मारी। अच्छा? चूंकि उनका यह ख़याल है कि मैं ने यह शहर छोड़ दिया है, इसलिए इनके ये इरादे हैं। मुझे इन लोगों को अपनी याद दिलानी पड़ेगी। अली, मैं अपनी दाढ़ी, ज़र-बफ़्त की ख़िलअ’त और अ'मामा यहीं छोड़ दूंगा। मुझे कुछ फटे-पुराने कपड़े दो।
अली ने उसे एक फटी-पुरानी और दीमक खायी ख़िलअ’त दी जिस की ज़िन्दगी पूरी हो चुकी थी।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने वह पोशाक पहनते हुए कहाः क्या तुम पिस्सू पैदा करते हो भाई? ज़रूर तुम्हारा इरादा पिस्सू हलाल कर के बेचने का है। लेकिन मेरे दोस्त, इस से पहले ही वे तुम्हें चट कर जायेंगे।
वह गली में चला गया। चायख़ाने का मालिक अपने गाहकों के पास लौट आया और अब होने वाले वाक़िआत का इंतिज़ार करने लगा। उसे बहुत देर इंतिज़ार नहीं करना पड़ा। ख़ोजा नसरुद्दीन एक गली से आता हुआ दिखायी दिया। वह एक ऐसे आदमी की तरह पैर घसीट रहा था जिस ने दिन भर सफ़र किया हो। उसने चायख़ाने की सीढ़ियां पार कीं, एक अंधेरे कोने में जा कर बैठ गया और चाय मांगी। किसी ने उसकी तरफ़ ध्यान न किया। बुख़ारा की सड़कों पर सभी तरह के मुसाफ़िर आते-जाते थे।
चेचकरू खुफ़िया कह रहा थाः मेरी ग़लियातं बेशुमार थीं। लेकिन मैं, ख़ोजा नसरुद्दीन, अब उन ग़लतियों पर शर्मिन्दा हूं। मैं ने हमेशा नेक रहने, इस्लाम पर चलने और अमीर, उन के वज़ीर, हाकिमों और सिपाहियों का हुक्म मानने का फ़ैसला किया है। जब से मैं ने फ़ैसला किया, मुझे चैन और ख़ुशी हासिल हुई है और मेरी दुनियाबी दौलत बढ़ गयी है। पहले मैं एक ऐसा आवारा था, जिस से लोग नफ़रत करते थे। लेकिन अब मैं एक दीनदार मुसलमान की हैसियत से ज़िन्दगी बसर करता हूं।
एक गाड़ीवान ने, जो कमर में चाबुक खोंसे था, बहुत इज़्ज़त से उस के सामने चाय का एक प्याला पेश किया और कहाः ऐ बेमिसाल ख़ोजा नसरुद्दीन! मैं कोक़न्द से बुख़ारा आया हूं। मैं ने आपके इल्म की बहुत तारीफ़ सुनी है। लेकिन मैं ने यह कभी न सोचा था कि मुलाक़ात तो दरकिनार, एक दिन मुझे आप से बातचीत का मौक़ा भी मिलेगा। अब मैं हरेक से इस मुलाक़ात का ज़िक्र करूंगा और आप की नसीहत को दोहराऊंगा।
चेचकरू ख़ुफ़िया ने कहाः बिल्कुल ठीक! हरेक को बताओ कि ख़ोजा नसरुद्दीन सुधर गया है, तौबा कर के दीनदार मुसलमान और अमीर-ए-आज़म का वफ़ादार ग़ुलाम बन गया है। जिस से भी मिलो, उसे यही ख़ुश-ख़बरी सुनाओ।
गाड़ीवान ने कहाः ऐ लासानी ख़ोजा नसरुद्दीन! मुझे आप से एक सवाल पूछना है। मैं एक दीनदार मुसलमान हूं और कम अक़्ली की वजह से कोई ऐसी हरकत नहीं कर बैठना चाहता जो मज़हब के ख़िलाफ़ साबित हो। मैं यह जानना चाहता हूं कि अगर मैं नहा रहा होऊं और मोअज़्ज़िन की अज़ान सुन लूं तो किस तरफ़ मुडूं?
चेचकरू ख़ुफ़िया ने मेहरबानी से मुस्कराते हुए कहाः बेशक, मक्का की तरफ़!
अपने कपडों की तरफ़! अंधेरे कोने से एक आवाज़ सुनायी दी। घर तक नंगे जाने से बचने का यही सबसे अच्छा तरीक़ा है।
चेचकरू ख़ुफ़िया के बनावटी इज़्ज़त के माहौल के बावजूद लोगों ने मुस्कराहट छिपाने के लिए अपने मुंह फेर लिये।
कौन बड़बड़ा रहा है उस कोने में? ऐ भिखमंगे, ग़ुरूर से उसने पूछा, क्या तू ख़ोजा नसरुद्दीन की क़ाबिलिय्यत से टक्कर लेने की कोशिश कर रहा है?
ख़ोजा नसरुद्दीन ने चाय पीते हुए जवाब दियाः उस के मुक़ाबले मैं बहुत नाचीज़ हूं।
इस के बाद किसान ने पूछाः ऐ पाक ख़ोजा नसरुद्दीन! मुझे बताओ कि इस्लाम के मुताबिक़ मैयत में शरीक होते वक़्त सबसे अच्छी जगह कौन सी है- ताबूत के पीछे या आगे?
ख़ुफ़िया ने जवाब देने के लिए पुर असर अंदाज़ में उंगली उठायी ही थी कि कोने वाली आवाज़ उस से पहले ही बोल उठीः अगर तुम ख़ुद ताबूत के अन्दर नहीं हो तो इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि तुम आगे हो या पीछे।
ज़रा सी बात में ही हंस पड़नेवाला चायख़ाने का मालिक दोनों हाथों से अपनी तोंद सम्हाले हुए क़हक़हा लगाने लगा। दूसरे लोग भी हंसी न रोक सके। कोनेवाला आदमी हाज़िर जवाब था और मज़े से ख़ोजा नसरुद्दीन का मुक़ाबला कर रहा था।
ख़ुफ़िया ने, जिस का ग़ुस्सा बराबर बढ़ रहा था, धीरे से अपना सिर घुमायाः अबे, तेरा नाम क्या है? मैं तेरी ज़बांदराज़ी देख रहा हूं! याद रख कि कहीं तुझे अपनी जबान से बिल्कुल ही हाथ न धोने पड़ें!
लोगों की तरफ़ मुड़ते हुए उस ने कहाः मैं उसे एक ही तंजिया और चुभते हुए लफ़्ज़ से ख़ामोश कर सकता हूं। लेकिन फ़िलहाल हम पाक और संजीदा बातचीत कर रहे हैं, जहां तेज़ मौजूं नहीं। हर चीज़ का मौक़ा होता है, इसलिए इस वक़्त मैं भिखमंगे की छींटाकशी का जवाब नहीं दूंगा।...हां, तो मैं कह रहा था कि मैं, ख़ोजा नसरुद्दीन, तुम को सलाह देता हूं कि ऐ मुसलमानों, हाकिमों का हुक्म मानो और ख़ुशहाली तुम्हारे घरों में उतर आयेगी। लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि ख़ोजा नसरुद्दीन होने का झूठा दावा करनेवाले मशहूर आवारों की तरफ़ ध्यान न दे। इसी क़िस्म के एक आवारे ने अभी हाल में गड़बड़ी मचायी थी और यह सुन कर कि मैं, असली ख़ोजा नसरुद्दीन आ गया हूं, गधे के सिर से सींग की तरह ग़ायब हो गया। ऐसे सब जा’लियों को पकड़ लो और उन्हें अमीर के सिपाहियों के हवाले करो।
बिल्कुल दुरुस्त, बनावटी पोशाक फेंक कर ख़ोजा नसरुद्दीन साये से रोशनी में आकर बोला। सभी लोगों ने उसे पहचान लिया और उस के यकायक आ खड़े होने से तअ’ज्जुब में पड़ गये। जासूस पीला पड़ गया। ख़ोजा नसरुद्दीन उस के क़रीब आ गया। अ’ली चुपचाप उसके पीछे आ खड़ा हुआ।
तो, तुम ही असली ख़ोजा नसरुद्दीन?
ख़ुफ़िया ने घबड़ा कर चारों तरफ़ देखा। उस के होंठ कांप रहे थे। आंखें चारों तरफ़ कुछ ढूंढ रही थीं। उस ने जवाब देने के लिए हिम्मत बटोरीः
हां मैं ही सच्चा और असली ख़ोजा नसरुद्दीन हूं। बाक़ी सब जा’लिये हैं, जा’लिये। तुम भी जा’लिये हो।
मुसलमानो! भाइयो! अब किस बात का इंतिज़ार है? ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्लाया। इस ने ख़ुद क़ुबूल किया है! पकड़ लो इसे! क्या तुम ने अमीर का हुक्म नहीं सुना? क्या तुम नहीं जानते कि ख़ोजा नसरुद्दीन के साथ क्या सलूक करना चाहिए?
पकड़ लो इसे, वर्ना तुम पर बहुत कड़ा इल्ज़ाम लगेगा।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने ख़ुफ़िया की नक़ली दाढ़ी उखाड़ फेंकी।
चायख़ाने के सभी लोगों ने चेचकरू चेहरा, चपटी नाक- जिस से उन्हें नफ़रत थी- और मक्कार आंखें पहचान लीं।
इसने ख़ुद क़ुबूला है, ख़ोजा नसरुद्दीन ने दाहिनी तरफ़ आंख मारते हे कहा, पकड़ लो इस ख़ोजा नसरुद्दीन को! उस ने बायीं तरफ़ आंख मारी।
चायख़ाने के मालिक अ’ली ने ही सब से पहले ख़ुफ़िया पर हाथ छोड़ा। ख़ुफ़िया ने अपने को छुड़ाने की बहुत कोशिश की, मगर भिश्ती, किसान और कारीगर सब हाथा-पायी करने लगे। थोड़ी देर तक तो वहां घूंसों के उठने-गिरने के अ’लावा और कुछ नज़र ही न आता था। ख़ोजा नसरुद्दीन सब से ज़ियादा ज़ोर से हाथ चला रहा था।
य...य... यह तो मैं...म...ज़ाक कर रहा था, कराहता हुआ ख़ुफ़िया बोला। ऐ मुसलमानों! मैं तो बस...म...ज़ाक कर रहा था। मैं ख़ोजा न...सरुद्दीन नहीं हूं! मुझे छोड़ दो!
तुम झूठ बोलते हो, ख़ोजा नसरुद्दीन ने उसे डांटा। वह उसी तेज़ी से घूंसे चला रहा था, जिस तेज़ी से नानबाई आंटा गूंधता है। तुम ने ख़ुद क़ुबूल किया है कि तुम ख़ोजा नसरुद्दीन हो। हम सब ने अभी-अभी सुना है। ऐ मुसलमानो! यहां पर मौजूद हम सब लोग अमीर के बे-इंतहा वफ़ादार है। वफ़ादारों के साथ हमें उन के हुक्म पर अ’मल करना चाहिए। इसलिए, ऐ सच्चे मुसलमानो, इस ख़ोजा नसरुद्दीन की अच्छी तरह मरम्मत करो। इसे महल तक घसीट ले जाओ और सिपाहियों के सुपुर्द कर दो। अल्लाह और अमीर के नाम पर इसे अच्छी तरह पीटो।
भीड़ ख़ुफ़िया को महल तक ले गयी। रास्ते भर लोग उसे ज़ोर-ज़ोर से पीटते रहे। ख़ुफ़िया की रवानगी के वक़्त ख़ोजा नसरुद्दीन ने उस के एक ठोकर मारी और चायख़ाने में लौट आया।
उफ्! माथे का पसीना पोंछते हुए उसने कहा, हम ने उस की ऐसी मरम्मत की है कि ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगा। मा’लूम पड़ता है अब भी उसकी ठुकाई हो रही है।
दूर से ज़ोर की आवाज़ें और ख़ुफ़िया की चींख़ें सुनायी पड़ रही थीं। हर एक को उस से कुछ न कुछ बदला लेना था। अमीर के हुक्म की बदौलत उन्हें इस का अच्छा मौक़ा भी मिल गया था।
ख़ुशी से हंसता हुआ चायख़ाने का मालिक अपना तोंद थपथपा रहा थाः यह अच्छा सबक़ मिला बच्चू को। अब वह दोबारा मेरे चायख़ाने में क़दम रखने की हिम्मत नहीं करेगा।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने पीछे वाले कमरे में कपड़े बदले, नक़ली दाढ़ी लगायी और एक बार फिर बग़दाद का आलिम मौलाना हुसैन बन गया।
वह महल में वापस पहुंचा तो महल की हवालात से कराहने की आवाजें सुनायी दीं। उसने अन्दर झांक कर देखा। सूजा हुआ और ज़ख़्मी बदन लिये चेचकरू ख़ुफ़िया नमदे पर पड़ा था। लालटेन लिये अर्सलां बेग उसके पास खड़ा था। ख़ोजा नसरुद्दीन ने बड़ी मा’सूमियत से पूछाः क़िबला अर्सलां बेग! क्या मा’मला है भाई।
बड़ी बुरी ख़बर है, मौलाना हुसैन! बद-मआ’श ख़ोजा नसरुद्दीन फिर शहर में लौट आया है। हमारे सबसे होशियार जासूस को उसने पीट डाला है। यह जासूस उस बद-मआ’श के बदअसर को दूर करने के लिए मेरे हुक्म से अपने को ख़ोजा नसरुद्दीन बताकर वफ़ादारी की और मज़हबी बातें करता था। नतीजा आपके सामने हैं।
ओह! ओह! ख़ुफ़िया अपना ज़ख़्मी चेहरा ऊपर को उठाता हुआ कराहा। अब कभी उस दोज़ख़ी आवारे के मुआ’मले में नहीं पडूंगा। अगली दफ़ा तो वह मुझे मार ही डालेगा। मैं अब ख़ुफ़ियागिरी नहीं करूंगा। कल ही मैं यहां से बहुत दूर चला जाऊंगा- जहां मुझे कोई न जानता हो। वहां मैं कोई भली-सी नौकरी कर लूंगा।
मेरे दोस्तों ने वाक़ई ढंग से काम पूरा किया है, लालटेन की रोशनी में ख़ुफ़िया की हालत देखते हुए और उसके लिए थोड़ा सा अफ़्सोस ज़ाहिर करते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने मन ही मन सोचा। अगर महल दो सौ क़दम और दूर होता तो यह यहां तक ज़िन्दा न पहुंचता। अब देखना यह है कि इस ने सबक़ सीखा है या नहीं।
सुब्ह का वक़्त था। ख़ोजा नसरुद्दीन ने खिड़की से चेचकरू ख़ुफ़िया को एक छोटी-सी गठरी लेकर बाहर निकलते देखा। वह लंगड़ा रहा था और बराबर अपनी छाती, कंधों और बग़लों पर हाथ फेर रहा था। बीच-बीच में दम लेने के लिए वह बैठ भी जाता था। सबेरे की पहली किरनों से रौशन बाज़ार को उस ने पार किया और दीवारों के साये में ग़ायब हो गया।
सुब्ह की किरनों से रात का अंधेरा भाग गया था। शबनम से धुली, चमकदार, साफ़ और पुरअम्न सुब्ह थी। चिड़ियां चहचहा रही थीं, गा रही थीं और तरह-तरह की सुरीली आवाजें निकाल रही थीं। तितलियां सूरज की पहली किरनों का मज़ा लूटने के लिए इधर से उधर उड़ रही थीं। ख़ोजा नसरुद्दीन के सामने खिड़की पर एक मक्खी आ बैठी और अलमारी में एक मर्तबान में रखे हुए शहद की महक पाकर उसे तलाश करने लगी।
सूरज ख़ोजा नसरुद्दीन का पुराना और वफ़ादार दोस्ता था। वह अब निकल रहा था। हर सुब्ह उनकी मुलाक़ात होती और हर सुब्ह ख़ोजा नसरुद्दीन को ऐसा मज़ा आता, गोया उसने साल भर से सूरज को न देखा हो। सूरज उभर रहा था- एक ऐसा नेक और सख़ी देवता जो सब पर एक-सा मेहरबान है। और, सुब्ह की धूप में चमकती हुई दुनिया अपना हुस्न निखार कर उसका इस्तिक़बाल करती है। उड़ते हुए ऊन जैसे बादल, मीनारों की चमकती हुई ईंटें, नयी पतियां, पानी, घास, धूल- यहां तक कि क़ुदरत की बेरूख़ी के शिकार, उस के सौतेले बच्चे, बेरौनक़ पत्थरों, में भी सूरज के इस्तिक़बाल के लिए एक अ’जीब हुस्न निखर आता। पत्थरों के खुरदरे किनारे इस तरह चमकने लगते गोया उन पर जवाहरात की कनी छिनक दी गयी हो।
अपने दोस्त के मुस्कराते चेहरे को देख कर ख़ोजा नसरुद्दीन कैसे उदास रह सकता था? चमकती किरनों में एक दरख़्त जगमगा उठा और उसके साथ ही ख़ोजा नसरुद्दीन भी जगमगा उठा- गोया वह ख़ुद भी हरियाली में लिपटा हुआ हो। सबसे नज़दीकी मीनार पर कबूतर ग़ुटर-ग़ू-ग़ुटर-ग़ू कर रहे थे और अपने पर चोंचों से संवार रहे थे। ख़ोजा नसरुद्दीन की भी तबियत हो रही थी कि वह अपने पर संवारे। खिड़की के सामने तितलियों का एक जोड़ा उड़ रहा था, ख़ोजा नसरुद्दीन की तबियत हो रही थी कि वह भी एक तीसरी तितली बन कर उनके इस हसीन खेल में शामिल हो जाय।
ख़ोजा नसरुद्दीन की आंखे ख़ुशी से चमक रही थीं। चेचकरू ख़ुफ़िया के बारे में उसने सोचा: काश! आज की यह ख़ास सुब्ह उसकी नयी, साफ़ और अच्छी ज़िन्दगी का सबेरा बन सके। लेकिन जैसे ही उसने यह सोचा, उसे अफ़्सोस के साथ ख़याल आया कि उस आदमी की रूह में बहुत ज़ियादा बदकारियां जमा’ हो गयी हैं जिन की तौबा मुश्किल थी, जैसे ही वह पूरी तरह ठीक होगा वह अपनी पुरानी बदकारियां फिर शुरू कर देगा।
बाद के वाक़िआत ने साबित कर दिया कि ख़ोजा नसरुद्दीन का ख़याल ग़लत नहीं था। वह आदमियों को इतनी अच्छी तरह पहचानता था कि ग़लती करना उसके लिए मुश्किल था, हालांकि अगर उसका ख़याल ग़लत निकलता तो उसे ख़ुशी ही होती और वह ख़ुफ़िया की नयी रूहानी ज़िन्दगी का इस्तिक़बाल करता। लेकिन जो चीज़ सड़ जाती है, वह दोबारा ताज़ा नहीं हो सकती, न खिल सकती है, बदबू ख़ुशबू में नहीं बदल सकती। अफ़्सोस करते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने एक आह भरी। उस के ख़यालात की दुनिया ऐसी थी कि जहां इंसान भाई-भाई की तरह रहें, जहां लालच, हसद, दग़ा और ग़ुस्से का नाम न हो, जहां सब एक-दूसरे की वक़्त पर मदद करें और एक-दूसरे की ख़ुशी में शामिल हों। मगर इस क़िस्म के हसीन ख़यालों में डूबे हुए उसे यह कड़वी सचाई नज़र आयी कि इंसान को, जैसे वह रहता है, नहीं रहना चाहिए- यानी दूसरों पर जब्र करते हुए और दूसरों को ग़ुलाम बनाते हुए। वे अपनी रूह को बदनुमा बनाते जा रहे थे। पाक और ईमानदार ज़िन्दगी के उसूलों को समझने में इंसानों को आख़िर कितना वक़्त लगेगा?
ख़ोजा नसरुद्दीन को इस बात में शक नहीं था कि एक दिन लोग इन उसूलों को समझेंगे। उसे पूरा यक़ीन था कि दुनिया में बुरे लोगों के क़ाबिलिय्यत अच्छे लोगों की ता’दाद ज़ियादा है। सूद-ख़ोर जाफ़र और चेचकरू ख़ुफ़िया और उनकी ज़लील रूहें महज़ ऐसी नापाक और गंदी मिसालें थी जो आ’म नहीं है। उसे पूरा यक़ीन था कि क़ुदरत ने आदमी में नेकी भरी है और उस की सारी बदी वह ज़हर है जिसे ज़िन्दगी के ग़लत और बेजा निज़ाम ने बाहर से उस की रूह में भरा है। उसे पूरी
उमीद थी कि वह वक़्त भी आयेगा जब इंसान अपनी ज़िन्दगी के निज़ाम को बदलेगा और उसे बेहतर बनाएगा- ईमानदारी की मेहनत से अपनी रूहों को पाक बनायेगा।
ख़ोजा नसरुद्दीन के ख़यालायात इसी क़िस्म के थे। यह बात उसके बारे में उन कहानियों से साबित होती हैं, जिन पर उस के दिल की छाप है। हालांकि उस की याद को नीचता भरी जलन औऱ बदगुमानी से सियाह करने की कोशिशें की गयीं, लेकिन इ समें कामयाबी न मिली क्योंकि झूठ कभी सच्चाई पर फ़तह नहीं पा सकता।
ख़ोजा नसरुद्दीन की याद हमेशा नेक और पाक रहेगी- उस हीरे के मानिंद जो हमेशा चमकता रहता है। आज भी तुर्की में जो मुसाफ़िर अक-शहीर में उसके मा’मूली से मज़ार के सामने रुकते हैं, उसकी बड़ाई करते हैं। एक शायर के अल्फ़ाज़ में वे कहते हैः
उसने अपना दिल ज़मीन को दे दिया, हालांकि ख़ुद आंधी की तरह वह सारी दुनिया का चक्कर लगाता रहा। वह एक ऐसी आंधी थी, जिस ने अपनी मौत के बाद अपने दिल में खिले सारे गुलाबों की ख़ुशबू को दुनिया में बिखेर दिया। सारी दुनिया की ख़ूबसूरती देखने में जो ज़िन्दगी गुज़रे, वह बहुत हसीन ज़िन्दगी है। और, हसीन है यह ज़िन्दगी जो ख़त्म होने पर अपनी रूह की पाकीज़गी छोड़ जाये।
यह सच है कि कुछ लोग कहते हैं कि अक-शहीर के मज़ार के अन्दर कोई नहीं है, कि ख़ोजा नसरुद्दीन ने अपनी मौत की अफ़वाह फैलाने के लिए इसे जान-बूझकर बनवाया था और ख़ुद सफ़र के लिए निकल पड़ा था। यह बात सच है या ग़लत? मैं समझता हूं, हमें इस चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। हम तो सिर्फ़ यह जानते हैं कि ख़ोजा नसरुद्दीन से कोई चीज़ दूर नहीं।
।। 6 ।।
सुब्ह का वक़्त गुज़र गया। उमस-भरी दोपहरी शुरु हुई। अब सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था।
भाग निकलने की तैयारी पूरी हो चुकी थी। ख़ोजा नसरुद्दीन अपने क़ैदी के पास पहुंचा और उससे कहाः
ऐ दानिशमन्द मौलाना हुसैन! आपकी क़ैद की मीआ’द पूरी हुई। आज रात मैं महल छोड़ दूंगा। एक शर्त पर मैं आप का दरवाज़ा खुला छोड़ जाऊंगाः आप यहां सो दो दिन और नहीं निकलें। अगर आप इस से जल्दी निकल पड़े, तो हो सकता है कि मैं उस वक़्त महल में ही मौजूद रहूं और तब मैं आप पर यह इल्ज़ाम लगाने को मजबूर हो जाऊंगा कि आप निकल भागना चाहते थे। तब मैं आप को जल्लाद के सुपुर्द कर दूंगा। इसलिए, बग़दाद के ऐ आलिम मौलाना हुसैन, अलविदा’अ! मेरे बारे में ज़ियादा बेरहमी से न सोचना। एक काम और मैं आपके सुपुर्द करता हूं। वह यह है कि आप अमीर को मेरा असली और सही वाक़िआ बतायें। ज़रा ग़ौर से सुनिये मौलाना हुसैन! मेरा नाम है- ख़ोजा नसरुद्दीन।
क-क-क्या...? बूढ़ा घबड़ा कर पीछे को हटता हुआ अचम्भे से बोला। इस के आगे वह एक लफ़्ज़ भी न बोल सका। इस नाम ने ही मानो उसे गूंगा बना दिया हो।
दरवाज़े के बन्द होने की आवाज़ हुई। ज़ीने से उतरते ख़ोजा नसरुद्दीन के क़दमों की आवाज़ धीमी पड़ती सुनाई दी। बूढ़े ने आहिस्ते से दरवाज़े टटोला। दरवाज़ा खुला हुआ था। आलिम ने झांक कर बाहर देखा। कोई नहीं दिखाई दिया। उसने जल्दी से दरवाज़ा बन्द कर लिया और सांकल चढ़ा दी। वह बड़बड़ाने लगाः नहीं, मुझे यहां एक हफ़्ते भले ही और रहना पड़े, लेकिन मैं ख़ोजा नसरुद्दीन से और सरोकार रखना पसन्द न करूंगा।
रात होने पर नीले आसमान में जब पहले सितारे चमकने शुरु हुए, तभी ख़ोजा नसरुद्दीन ने मिट्टी की एक सुराही उठायी और अमीर के हरम के दरवाज़े पर तअ’ईनात पहरेदारों के पास पहुंचा।
साबित अंडे निगलनेवाला मोटा और काहिल सिपाही कह रहा थाः वह देखो! एक सितारा और टूटा। अगर, जैसा कि तुम कहते हो, सितारे टूटकर ज़मीन पर गिरते है, तो लोगों को पड़े हुए क्यों नहीं मिलते?
शायद वे समुन्दर में गिर जाते हों! दूसरे सिपाही ने जावब दिया।
ऐ बहादुर सिपाहियों! ख़ोजा नसरुद्दीन ने टोका। ख़्वाजा-सरा को बुलाओ। मैं बीमार दाश्ता के लिए दवा लाया हूं।
ख़्वाजा-सरा आया। बड़ी इज़्ज़त से उसने सुराही थामी। सुराही में खड़िया मिले सादे पानी के अलावा और कुछ नहीं था। दवा कैसे पी जाएगी इस बारे में ख़ोजा नसरुद्दीन ने उसे लम्बी हिदायत दी।
ऐ दानिशमन्द मौलाना हुसैन! आप दुनिया की सब बातें जानते हैं। मोटे सिपाही ने चापलूसी भरी आवाज़ में कहा। आप के इल्म की कोई हद नहीं। आप हमें बताइए कि आसमान से गिर कर सितारे कहां जाते हैं और लोगों को मिलते क्यों नहीं?
ख़ोजा नसरुद्दीन ने मज़ाक करने का मौक़ा नहीं छोडा। बहुत संजीदगी से बोलाः तुम नहीं जानते? जब सितारे टूटते हैं तो वे चांदी के छोटे-छोटे सिक्के बन जाते हैं और फ़कीर लोग उन्हें बटोर लेते हैं। लोगों को मैं ने इसी तरह दौलतमन्द बनते देखा है।
सिपाहियों ने एक-दूसरे को ताका। उन के चेहरों पर तअ’ज्जुब की छाप थी।
उनकी बे-वक़ूफ़ी पर हंसता हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन अपने रास्ते लगा। उसे ख़याल भी न था कि उसका यह मज़ाक किसी वक़्त बहुत कारगार साबित होगा।
आधी रात तक वह मीनार में रहा। आख़िरकार सारा शहर और महल ख़ामोशी में डूब गये। ज़ाया करने के लिए अब वक़्त नहीं था। गर्मी की रातें तेज़ परों पर उड़ती हैं। ख़ोजा नसरुद्दीन चुपचाप नीचे उतरा और चोरी-चोरी अमीर के हरम की तरफ़ बढ़ा।
वह सोच रहा था कि पहरेदार अब तक नींद में ग़ाफ़िल हो चुके होंगे। लेकिन, वहां पहुंच कर उसे धीमे-धीमे बोलने की आवाज़ें सुनाई दीं। उसे बहुत नाउम्मीदी हुई।
मोटा काहिल सिपाही कह रहा थाः काश! एक सितार टूट कर यहां भी गिर जाता तो चांदी बटोर कर हम लोग रईस बन जाते।
उसके साथी ने जवाब दियाः भई, मुझे तो यक़ीन नहीं होता कि सितारे टूटकर चांदी के सिक्के बन जाते हैं।
लेकिन बग़दाद के आलिम ने तो यही कहा था। पहले ने जवाब दिया।
बेशक! उनका इल्म गहरा है और वह ग़लत नहीं कह सकते।
साये में छिपते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन भुनभुनायाः ख़ुदा की मार इन लोगों पर! मैं ने इन से सितारों की बात की ही क्यों? अब तो सबेरे तक यही तकरार रहेगी और भाग निकलने में देर हो जायगी!
बुख़ारा के ऊपर आसमान में साफ़ और हलकी रोशनी में हज़ारों सितारे चमक रहे थे। यकायक एक नन्हा-सा सितारा टूटा और आसमान में तिरछा-तिरछा अपनी मौत की मंज़िल पर बढ़ चला। जलती हुई लकीर-सी छोड़ता हुआ एक और सितारा उसके पीछे हो लिया। आधी गर्मियां ख़त्म हो चुकी थीं और सितारे टूटने का मौसम आ रहा था।
अगर ये सचमुच चांदी के सिक्के बनकर गिरते... दूसरे पहरेदार ने कहा।
यकायक ख़ोजा नसरुद्दीन के दिमग़ में एक ख़याल कौंध गया। झटपट उसने चांदी के सिक्कों से भरी अपनी थैली खोली।
लेकिन देर तक कोई सितारा नहीं टूटा। आख़िर एक सितारा टूटा।
तभी ऊंचे-नीचे पत्थरों पर एक सिक्का खनका। अचम्भे से पहरेदार मानो बुत बन गये। एक-दूसरे की तरफ़ घूरते वे उठ खड़े हुए।
पहले ने कांपती आवाज़ में पूछाः सुना तुमने?
हां सुना त...तो! दूसरा हकला कर बोला।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने दूसरा सिक्का फेंका। वह चांदनी के उजाले में गिरा और चमकने लगा। मोटा पहरेदार झपटकर उसके ऊपर लेट गया।
दूसरा पहरेदार ठीक से बोल भी नहीं पा रहा था। जोश के मारे उस की ज़बान से लफ़्ज़ नहीं फूट रहे थेः क्या तु...तुम्हें व... वह मिला…?
मि...मिल गया! कांपते होठों से मोटा सिपाही हकलाया। उसने उठकर सिक्का दिखाया।
यकायक मानों कई तारे एक साथ टूटकर तेज़ी से गिरे। ख़ोजा नसरुद्दीन मुट्ठी भर-भरकर सिक्के फेंकने लगा। रात का सन्नाटा सिक्कों की खनखनाहट से कांप रहा था। सिपाही अक़्ल खो बैठे। अपने नेज़े फेंककर, ज़मीन पर लोट-लोटकर, वे सिक्के ढूंढ़ने लगे।
यहां, यहां, यह रहा! पहलेवाले ने फटी आवाज़ में कहा।
दूसरा रेंगता हुआ चुपचाप आगे बढ़ा। यकायक उसे बहुत से सिक्के मिल गये। ख़ुशी से वह ग़लग़लाने लगा।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने एक मुट्ठी सिक्के और उछाले और चोर दरवाज़े से भीतर घुस गया। बाक़ी काम आसान था। पैरों की आहट मुलायम ईरानी क़ालीनों में खो गयी। मोड़ और रास्ते उसे याद थे। हिजड़े सो रहे थे।
भरी मुहब्बत से गुलजान ने उसे प्यार किया और कांपती हुयी उस से लिपट गयी।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने फुसफुसाकर कहाः जल्दी करो।
किसी ने उनको रोका नहीं। एक हिजड़ा नींद में कुनमुनाया और कराहने लगा। ख़ोजा नसरुद्दीन उस पर झुका, लेकिन हिजड़े की मौत अभी नहीं आयी थी, उपने होंठ चटख़ारे और फिर ख़र्राटे भरने लगा।
रंगीन शीशों से हलकी चांदनी छन रही थी।
चोर दरवाज़े पर पहुंचकर ख़ोजा नसरुद्दीन ने होश्यारी से बाहर नज़र डाली। सहन के बीच घुटनों के बल बैठे अपनी-अपनी गर्दनें आगे बढ़ाये सिपाही आसमान की तरफ़ टकटकीं बांधे किसी सितारे के टूटने का इंतिज़ार कर रहे थे। ख़ोजा नसरुद्दीन ने एक मुट्ठी सिक्के और फेंके, जो दरख़्तों के दूसरी तरफ़ गिरे। उसकी खनखनाहट सुनकर जूते खटखटातें पहरेदार उधर ही दौड़ पडे। जोश में वे अपने आसपास नहीं देख रहे थे। भालुओं की तरह ज़ोर से हांफते और समझ में न आनेवाली बातें बड़बड़ाते वे आगे बढ़ गये और उस कंटीली झाड़ी को पार कर गये जिस ने उनके कपड़े फाड़ दिये।
एक की कौन कहे, उस रात सारी दाश्ताएं चुरायी जा सकती थीं।
ख़ोजा नसरुद्दीन बराबर कह रहा थाः जल्दी करो, करो!
दोनों दौड़कर मीनार तक पहुंचे और सीढ़ियां चढ़ गये। अपने बिस्तर के नीचे से ख़ोजा नसरुद्दीन ने एक रस्सा निकाला। यह तैयारी उसने पहले ही कर ली थी।
गुलजान फुसफुसायीः बहुत ऊंचाई है...मुझे डर......।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने एक फंदा बनाया और उसमें गुलजान को बांधा। फिर खिड़की के सीख़चों को हटा दिया। इन्हें उसने पहले ही रेत डाला था। गुलजान खिड़की की मुंडेर पर जा बैठी। डर से वह कांप रही थी।
उसकी पीठ को हलका सा धक्का देते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने कड़ाई से कहाः बाहर उतरो!
गुलजान ने आंखें मींच लीं और चिकने पत्थर से सरक कर हवा में झूलने लगी।
ज़मीन पर पहुंचकर वह सम्भल गयी। तभी ऊपर से आवाज़ आयीः भागो! भागो! भाग जाओ!
खिड़की पर झुका हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन हाथ हिला रहा था और रस्सा ऊपर को खींच रहा था। गुलजान ने जल्दी से रस्सा खोला और सुनसान बाज़ार में ग़ायब हो गयी।
ख़ोजा नसरुद्दीन को नहीं मा’लूम था कि पूरे महल में शोरग़ुल और कुहराम मच गया है। मार पड़ने के तकलीफ़देह तजरबे के बाद ख्वाजा सरा को बेवक़्त अपनी ज़िम्मेदारी का ख़याल आया और नयी दाश्ता के कमरे में जाकर आधी रात को झांका। उसका बिस्तर ख़ाली पाकर भागा-भागा वह अमीर के पास पहुंचा और उन्हें जगा दिया।
अमीर ने अर्सलां बेग को बुलाया। अर्सलां बेग ने पहरेदारों को जगाया। फिर क्या था! मिशअलें जल उठीं, ढालें और नेज़े खड़कने लगे।
बग़दाद के आलिम मौलाना हुसैन को बुला भेजा गया। ख़ोजा नसरुद्दीन हाज़िर हुआ।
अमीर ने शिकायत करते हुए तेज़ आवाज़ में कहाः मौलाना हुसैन! यह क्या हालत है? अमीर-ए-आज़म, माबदौलत, को अपने महल में भी बद-मआ’श ख़ोजा नसरुद्दीन से नजात नहीं? ऐसा तो कभी नहीं सुना गया था कि अमीर के हरम से दाश्ता चुरा ली जाय।
ऐ अमीर-ए-आज़म! बख़्तियार ने हिम्मत बटोरकर कहा। यह भी मुमकिन है कि यह ख़ोजा नसरुद्दीन की करतूत न हो?
फिर कौन कर सकता है यह ? फटी आवाज़ में अमीर चिल्लाये। सबेरे हमे इत्तिला दी जाती है कि वह बुख़ारा में लौट आया है और रात में हमारी दाश्ता ग़ायब हो जाती है! उसके अ’लावा और हो ही कौन सकता है? तलाश करो। तलाश करो उस को।
जाने न पाये! सिपाहियों की ता’दाद तिगुनी कर दो। अभी वह महल से खिसका नहीं होगा। ओ अर्सलां बेग! यह न भूलना कि तेरे कन्धों पर तेरा सर ख़ैरियत से नहीं है।
तलाश शुरू हुई। पहरेदारों ने महल का कोना-कोना छान मारा। हर तरफ़ मिशअलें जल रही थीं और हिलती हुई रौशनी फेंक रही थीं। इस तलाश में सबसे ज़ियादा जोश से काम कर रहा था ख़ोजा नसरुद्दीन। कभी वह क़ालीन उठाता, कभी संग़मरमर के हौज़ों में छड़ियां डालकर देखता, कभी शोर-गुल मचाता हुआ तेज़ी से इधर-उधर भागता। केतली, सुराही, मर्तबान, यहां तक कि चूहे के बिलों तक में वह झांक रहा था।
शहंशाह-ए-आजम! अमीर की आरामगाह में वापस लौट कर वह बोला। ख़ोजा नसरुद्दीन महल से निकल भागा है।
अमीर ग़ुस्से से चिल्लाएः मौलाना हुसैन! तुम्हारी बे-वक़ूफ़ी पर हमें तअ’ज्जुब होता है। मान लो उसे महल में छिपने की कोई जगह मिल गयी हो ? तब तो वह हमारी आरामगाह में भी आ धमकेगा! पहरेदार बुलाओ। फ़ौरन बुलाओ! यहां आओ पहरेदार!
डर के मारे अमीर की घिग्घी बंधी थी।
बाहर तोप गरज उठी। यह तोप भगोड़े ख़ोजा नसरुद्दीन को डराने के लिए दागी गयी थी।
अमीर एक कोने में दुबके हुए चिल्ला रहे थेः पहरेदारों को बुलाओ! सिपाहियों को बुलाओ!
उनका ख़ौफ़ तभी मिटा जब अर्सलां बेग ने आरामगाह के दरवाज़े पर तीस और हर खिड़की के नीचे दस-दस सिपाही तअ’ईनात कर दिये। तभी अमीर कोने से निकले और आजिज़ी से बोलेः मौलाना हुसैन! सच-सच बताओ, क्या तुम्हें यक़ीन है कि वह बद-मआ’श अब हमारी आरामगाह में नहीं है?
ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब दियाः दरवाज़े और खिड़कियों पर पहरा बैठा दिया गया है। कमरे में सिर्फ़ हम दो शख़्स है, जहांपनाह। ख़ोजा नसरुद्दीन यहां हो ही कैसे सकता है?
अमीर के डर ने अब ग़ुस्से का रंग पकड़ाः ख़बरदार! भागने का मौक़ा नहीं मिलना चाहिए उसे। वह चिल्लाये। वह हमारी दाश्ता को भगाकर नहीं ले जा सकता! मौलाना हुसैन, हमारे ग़ुस्से और नाराज़गी की इन्तिहा नहीं! हम उस दाश्ता से एक बार भी नहीं मिल सके! सोचो तो, एक बार भी नहीं! हमारा दिल यह ख़याल आते ही मसोस उठता है। ओ मौलाना हुसैन! यब सब तुम्हारे उन बे-वक़ूफ़ सितारों का ही क़ुसूर है। इस बे-इज़्ज़ती के लिए हम काट पाते तो सारे सितारों के सर काट डालते! अर्सलां बेग को हमने हुक्म जारी कर दिया है। मौलाना हुसैन, तुम भी उस बद-मआ’श को पकड़ने की पूरी कोशिश करो। याद रखो, ख़्वाजा-सरा के ओ’हदे पर तुम्हारी तअ'ईनाती इस काम में तुम्हारी कामयाबी पर ही मुनहसिर है। अमीर की उंगलियां रह-रहकर ऐंठ रही थीं, मानो ख़्वाजा नसरुद्दीन के गले को टटोल रही हों।
शैतानी से अपनी आंखें दबाता हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन आदाब के लिए झुक गया।
।। 7 ।।
बाक़ी रात ख़ोजा नसरुद्दीन उस काफिर, बद-मआ’श ख़ोजा नसरुद्दीन, को पकड़ने की तरकीबें अमीर को बताता रहा। ये तरकीबें बहुत चालाकी भरी थीं और अमीर उन्हें सुनकर ख़ुश हुए। ख़र्च के लिए सोने से भरी एक थैली अमीर से लेकर ख़ोजा नसरुद्दीन आख़िरी बार अपने मीनार की सीढ़ियां चढ़ा।
रक़म उसने चमड़े की एक पेटी में रखी और अपने आस-पास नज़र दौड़ायी। उसने एक लम्बी सांस ली क्योंकि एकाएक यह जगह छोड़ने में उसे अफ़्सोस हो रहा था। यहां उसने बहुत-सी रातें अकेले, बिना सोये, काटी थीं और बहुत से ख़याल उस के दिमाग़ में आये थे। इन ख़ौफ़नाक दीवारों के पीछे उस की रूह का एक हिस्सा हमेशा के लिए छूट रहा था।
उस ने दरवाज़े बन्द किया, हल्के क़दमों से नीचे उतरा और रवाना हुआ- आज़ादी की तरफ़। एक बार फ़िर सारी दुनिया उस के लिए खुली थी। सड़कें, पहाड़ी, दर्रे और रास्ते- उसे दूर की मंज़िलें तय करने की दा’वत दे रहे थे। हरे जंगल पत्तों के नये क़ालीन पर साये में जगह देने का वा’दा कर रहे थे। नदियां ठडे पानी से उस की प्यास बुझाने का इंतिज़ार कर रही थीं। चिड़ियां अपने बेहतरीन गानों से उस का इस्तिक़बाल करने की तैयारी में थी। ख़ुशमिजाज़ी पंछी ख़ोजा नसरुद्दीन सुनहरे पिंजरे में बहुत दिन बन्द रह लिया था, दुनिया उसकी गैरहाज़िरी महसूस कर रही थी।
वह फाटक पर पहुंचा तो उसे एक गहरा धक्का लगा। दिल को चोट पहुंची। वह रुक गया। उस का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। वह दीवार से लगकर खड़ा हो गया।
बेशुमार सिपाहियों से घिरे उस के दोस्तों की एक लम्बी क़तार खुले फाटक के भीतर आ रही थी। उनके हाथ बंधे और सिर झुके हुए थे।
इनमें बूढ़ा नियाज़ कुम्हार था, चायख़ाने का मालिक अली और युसूफ़ लुहार था। और भी बहुत से लोग थे। जिस किसी से भी ख़ोजा नसरुद्दीन कभी मिला था, बात की थी, उस से पानी पिया था, या जिस से भी उसने अपने गधे के लिए एक मुट्ठी घास ली थी- वे सभी वहां मौजूद थे। इस जुलूस के पीछे-पीछे अर्सलां बेग आ रहा था।
ख़ोजा नसरुद्दीन जब तक सम्हले-सम्हले और होश दुरुस्त करे तब तक फाटक बन्द हो चुका था और इहाता ख़ाली हो गया था। क़ैदी क़ैदखाने पहुंच चुके थे। ख़ोजा नसरुद्दीन फ़ौरन अर्सलां बेग की तलाश में लौट पड़ा।
अर्सलां बेग साहब! क्या हुआ? ये लोग कहां से आये? इन लोगों का जुर्म क्या है?
अर्सलां बेग ने जीत के लहजे में कहाः ये सब लोग ख़ोजा नसरुद्दीन के साथी और उसे पनाह देनेवाले हैं। मेरे मुख़बिरों और जासूसों ने इन लोगों का पता बताया था। इन सब को सर-ए-आ’म बेरहमी से मौत की सज़ा दी जायगी-या फिर वे ख़ोजा नसरुद्दीन से कोई तअ’ल्लुक़ न होने का सबूत पेश करेंगे। लेकिन मौलाना हुसैन, आप इतने पीले क्यों पड़ रहे हैं? आप कुछ परेशान मा’लूम होते हैं?
ख़ोजा नसरुद्दीन चौंकाः पीला? हां, हां, क्यों नहीं! इसका मतलब है कि इनआ’म आपको मिलेगा, मुझे नहीं।
ख़ोजा नसरुद्दीन महल में रुक ने को मजबूर हो गया। बेगुनाह लोग मौत के मुंह में जा रहे हों, तो वह इस के अ’लावा कर ही क्या सकता था।
दोपहर को फ़ौज ने बाज़ार में मोर्चा जमाया। शाही तख़्त के चारों तरफ़ तीन-तीन की क़तार में सिपाही खड़े हो गये।
नक़ीबों ने सज़ा का ऐ’लान कर दिया था। भीड़ चुपचाप खड़ी थी। तपते हुए आसमान से झुलसाने वाली गर्मी बरस रही थी।
महल के फाटक खुले और पुरानी तरतीब के मुताबिक़ पहले चोबदार, फिर पहरेदार, फिर मीरासी, फिर हाथी और दरबारी लोग निकले। आख़िर में अमीर की सवारी दिखायी दी। भीड़ ने ज़मीन पर लेट कर कोर्निश की। सवारी तख़्त तक आ गयी।
अमीर तख़्त पर जा बैठे। मुजरिम लोग फाटक के बाहर लाये गये। भीड़ ने फुसफुसाहट से उनका इस्तिक़बाल किया। मुजरिमों के रिश्तेदार और दोस्त उनपर टकटकी बांधे सामने की क़तारों में खड़े थे।
जल्लाद कुल्हाड़ियां तेज़ करने, सूलियां गाड़ने व रस्से तैयार करने में मशग़ूल थे। उन्हें दिन भर के लिए काम मिल गया था, क्योंकि एक के बाद एक उन्हें साठ आदमियों को मौत के घाट उतारना था।
मौत के इस जुलूस में सब से आगे बूढ़ा नियाज़ था। जल्लादों ने उसे बांहों में जकड़ लिया। दाहिनी तरफ़ फांसी थी, बायीं तरफ़ लकड़ी का कुन्दा, जिस पर सिर रख कर कुल्हाड़ी चलायी जाती। सामने की ज़मीन पर सूली गड़ी थी।
वज़ीर बख़्तियार ने ज़ोरदार और संजीदा आवाज़ में ऐलान कियाः बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम! बुख़ारा के सुल्तान, आफ़ताब-ए-जहां, अमीर-ए-आज़म ने इंसाफ़ के तराज़ू में तौल कर अपनी रिआ’या में से साठ लोगों के जुर्मों का फ़ैसला किया है। इन लोगों ने अमन में ख़लल डालने, फूट फैलानेवाले, शरारत-पसन्द, काफ़िर, ख़ोजा नसरुद्दीन को पनाह दी थी।
अमीर-ए-आज़म का हुक्म है कि आवारा ख़ोजा नसरुद्दीन को बहुत दिनों तक अपने घर में पनाह देनेवाले नियाज़ कुम्हार को सबसे पहले मौत की सज़ा दी जाय। उस का सर क़लम कर दिया जायगा। जहां तक दूसरे मुजरिमों की बात है, उनकी पहली सज़ा है नियाज़ की मौत देखना, ताकि वे अपने लिए और भी सख़्त मौत का ख़याल कर सकें। इन में से हर एक को किस ढंग से मारा जायगा, इस का ऐ’लान बाद में होगा।
वहां ऐसी ख़ामोशी थी कि बख़्तियार का हर लफ़्ज़ आख़िरी क़तार तक सुनायी पड़ रहा था।
अपनी आवाज़ और ऊंची करते हुए उसने कहाः हरेक को मा’लूम हो कि आइन्दा से ख़ोजा नसरुद्दीन को पनाह देनेवाले हर शख़्स को यही सज़ा मिलेगी और वह जल्लाद के हाथों सौप दिया जायेगा। लेकिन, अगर मौत की सज़ा पाने वाला कोई शख़्स उस काफ़िर बद-मआ’श का पता बतायेगा तो न सिर्फ़ उसकी ख़ुद की सज़ा मुआ’फ़ कर दी जायगी और उसे अमीर का इनआ’म व ख़ुदा का करम मिलेगा, बल्कि वह औरों की सज़ा मुआ’फ़ कराने का भी हक़दार होगा।
नियाज़ कुम्हार! क्या तुम्हें ख़ोजा नसरुद्दीन का पता बताना और अपने आप को व औरों को बचाना मंजूर है?
नियाज़ बहुत देर तक चुपचाप सिर झुकाये खड़ा रहा। बख़्तियार ने अपना सवाल दोहराया। नियाज़ ने जवाब दियाः
नही, मैं नहीं कह सकता कि वहा कहां है।
जल्लाद उसे खींच कर लकड़ी के कुन्दे तक ले गये। भीड़ में कोई रो उठा। बूढ़ा झुका और गर्दन बढ़ाकर सफ़ेद बालोंवाला अपना सर कुन्दे पर रख दिया।
तभी दरबारियों को कोहनी से हटाता हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन अमीर के सामने आ खड़ा हुआ। उस ने ज़ोर से बोलना शुरू किया कि भीड़ सुन लेः
ऐ आक़ा-ए-नामदार! जल्लादों को हुक्म दें कि सज़ा की ता'मील रोक दी जाय। मैं अभी और यहीं ख़ोजा नसरुद्दीन को पक ड़कर दिखा दूंगा।
अमीर तअ’ज्जुब से उसकी तरफ़ देखने लगे। भीड़ में खलबली मच गयी। अमीर के इशारे पर जल्लाद की कुल्हाड़ी कन्धे से उतार दी और पैरों के पास रख ली।
ख़ोजा नसरुद्दीन बुलन्द आवाज़ में बोलाः ऐ शहंशाह! क्या इन नाचीज़ पनाह देनेवालों को सज़ा देना मुनासिब होगा, जबकि पनाह देनेवालों का सरदार बिना सज़ा पाये रह जाय, वह शख़्स छटू जाय जिस के यहां पिछले दिनों ख़ोजा नसरुद्दीन रहता आया है और अब भी रहता है, जिस ने उसे खिलाया है, इनआ’म दिया है और उस की पूरी देख-रेख की है?
अमीर ने कुछ सोचते हुए कहाः तुम ठीक कहते हो। अगर उसे पनाह देनेवाला इस तरह का कोई शख़्स है तो सब से पहले उस का सर क़लम होना चाहिए। लेकिन मौलाना हुसैन, हमें वह आदमी दिखाओ तो।
भीड़ में फुसफुसाहट शुरू हो गयी। आगे की क़तारों के लोगों ने पीछेवालों को अमीर की बात सुनायी।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने फिर कहाः लेकिन, अगर अमीर-ए-आज़म पनाह देनेवालों के इस सरदार को मौत की सज़ा नहीं देते और उसे ज़िन्दा रहने देते हैं, तो क्या इन छोटे पनाह देनेवालों को मारना इंसाफ़ होगा?
अगर हम पनाह देनेवालों के सरदार को मारना नहीं चाहते, तो ज़रूर ही हम इन लोगों को छोड़ देंगे। अमीर ने परेशानी से जवाब दिया। लेकिन मौलाना हुसैन, यह बात हमारी समझ में नहीं आ रहीः सरदार को मौत की सज़ा देने से हमें रोकने का सबब क्या हो सकता है? वह है कहां ? हमें उसे दिखा भर दो। हम फ़ौरन उस का सर धड़ से जुदा कर देंगे।
ख़ोजा नसरुद्दीन भीड़ की तरफ़ मुड़ाः क्या आप लोगों ने अमीर की बात सुन ली है? बुख़ारा के सुल्तान ने अभी- अभी फ़रमाया है कि अगर वह पनाह देनेवालों के सरदार को, जिस का नाम मैं इन्हीं चन्द मिनटों में बताऊंगा, मौत की सज़ा नहीं देते तो यह सब छोटे पनाह देनेवाले, जो इस वक़्त मौत के कुन्दे के पास खड़े हैं, अपने-अपने घरों व ख़ानदानों को वापस लौटने के लिए आज़ाद कर दिये जायेगे। ऐ शहंशाह! मैं ने सच कहा है न?
अमीर ने ताईद कीः मौलाना हुसैन, तुम ने सच कहा है। हम वा’दा करते हैं कि ऐसा ही होगा। लेकिन तुम अब जल्द ही हमें उस सरदार की सूरत दिखाओ।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने भीड़ से पूछाः आप लोग सुन रहे है न? अमीर ने वा’दा किया है।
उसने लम्बी सांस ली। उसे लगा कि हज़ारो आंखें उसी पर टिकी है।
पनाह देनेवालों का सरदार......
वह लड़खड़ा गया। उसने अपने चारों तरफ़ देखा। बहुतों ने उस के चेहरे पर मौत की तकलीफ़ देखी। अपनी प्यारी दुनिया से, अपने अवाम से, सूरज से, वह विदा ले रहा था।
अमीर बेताबी से चिल्लायेः जल्दी करो, मौलाना हुसैन! जल्दी बताओ!
खुली, खनकती आवाज़ में ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहाः
पनाह देनेवालों में अव्वल-आप हैं , अमीर! उसने अपनी नक़ली दाढ़ी और साफ़ा उतार फेंका। भीड़ की सांस जैसे ऊपर की ऊपर रह गयी, वह हिली-डुली और ख़ामोश हो गयी। अमीर की आंखें बाहर को निकल पड़ी। उनके होंठ हिले लेकिन कोई आवाज़ न निकली। दरबारी खड़े रह गये, मानो बुत बन गये हों।
यह ख़ामोशी बहुत थोड़ी देर तक रही।
ख़ोजा नसरुद्दीन! ख़ोजा नसरुद्दीन! ख़ुशी से भीड़ चिल्लायी।
ख़ोजा नसरुद्दीन? घबराकर दरबारी फुसफुसाये।
ख़ोजा नसरुद्दीन? अर्सलां बेग चौंका।
आख़िर अमीर संभला और धीरे से बोलाः ख़ोजा नसरुद्दीन?
हां , ख़ोजा नसरुद्दीन! ऐ अमीर! फ़ौरन इन लोगों को हुक्म दीजिए, कि आप का सर धड़ से जुदा कर दें, क्योंकि मुझे पनाह देनेवालों के सरदार आप है। मैं आप के महल में रहा। मैं ने आपके साथ खाना खाया। मैं ने आपसे इनआ’म पाये।
आप के मुआमलों में सलाह देनेवाला सबसे आला सलाहकार मैं था। ख़ोजा नसरुद्दीन को पनाह देनेवाले आप है, अमीर! हुक्म दीजिए इन लोगों को कि आपका सर क़लम कर दें!
पलक झपकते ख़ोजा नसरुद्दीन को पकड़ लिया गया। उस के हाथ बांध दिये गये। उस ने अपने को बचाने की कोशिश नहीं की। वह चिल्लायाः
अमीर ने वा’दा किया है कि मौत की सज़ा पानेवाले सभी लोग रिहा कर दिये जायेंगे! बुख़ारा शरीफ़ के बाशिन्दो! अमीर की बात सभी लोगों ने सुनी है! आप लोगों ने अपने सामने उन्हें वा’दा करते सुना था।
भीड़ में एक खलबली-सी मची और वह आगे बढ़ने लगी। सिपाहियों की तेहरी क़तार उसे रोकने में पूरी ताक़त लगा रही थी। हर लम्हे आवाज़ और ज़ियादा बुलन्द हो रही थीः
क़ैदियों को रिहा करो!
अमीर ने वा’दा किया है!
क़ैदियों को रिहा करो...!
ये आवाज़ें बुलन्द होती गयीं, बढ़ती गयीं। सिपाहियों की क़तारें तितर-बितर होने लगीं। बख़्तियार अमीर के कान के पास झुका और बोलाः ऐ मेहरबान आक़ा! इन लोगों को रिहा करना होगा, वर्ना रिआया बग़ावत कर देगी।
अमीर ने हामी में सर हिलाया।
बख़्तियार चिल्लायाः अमीर अपना वा’दा पूरा करते है!
सिपाहियों ने रास्ता खोल दिया। मौत की सज़ा पानेवाले लोग फ़ौरन भीड़ में समा गये।
सिपाही ख़ोजा नसरुद्दीन को महल की तरफ़ ले चले। भीड़ में बहुत से लोग रो-रो कर उसके पीछे चिल्ला रहे थेः
अलविदा’अ , ख़ोजा नसरुद्दीन! हमारे प्यारे, नेक-दिल, ख़ोजा नसरुद्दीन- अलविदा’अ! तुम हमेशा हमारे दिलों में रहोगे!
ख़ोजा नसरुद्दीन सीना ताने, सर ऊंचा किये, चल रहा था। उस के चेहरे पर डर की एक शिकन तक न थी। फाटक पर पहुंच कर वह पीछे को मुड़ा। भीड़ बहुत ज़ोर से चीखीः
अलविदा’अ, ख़ोजा...
अमीर जल्दी से सवारी में जा बैठे। शाही जुलूस तेज़ी से आपस लौट चला।
।। 8 ।।
फ़ैसला सुनाने के लिए दरबार लगा। सिपाहियों से घिरा, बंधे हाथ, जब ख़ोजा नसरुद्दीन लाया गया तो दरबारियों ने आंखें नीची कर लीं। आ’लिम भवें चढ़ाकर दाढ़ियों पर हाथ फेरने लगे। वे एक दूसरे को देखते भी शर्मा रहे थे। लम्बी सांस लेता और गला साफ़ करता अमीर दूसरी तरफ़ ताकने लगा।
लेकिन, ख़ोजा नसरुद्दीन की नज़र सीधी व साफ़ थी। अगर उसके हाथ उस की पीठ के पीछे बंधे न होते तो यही लगता कि मुजरिम वह नहीं, बल्कि वे सब दरबारी हैं जो वहां बैठे थे।
आख़िर क़ैद से रिहाई पाकर बग़दाद के असली आ’लिम मौलाना हुसैन भी दरबार में हाज़िर हुए। ख़ोजा नसरुद्दीन ने बड़े दोस्ताने ढंग से उन्हें आंख मारी। बग़दाद के आलिम चौंक पड़े और नाराज़गी से सिसकारी भरी। फ़ैसले में देर नहीं लगी। देर लगने की गुंजाइश भी नहीं थी! ख़ोजा नसरुद्दीन को मौत का हुक्म सुना दिया गया। सिर्फ़ यह तय होना बाक़ी था कि मौत किस ढंग की हो।
अर्सलां बेग बोलाः ऐ शहंशाह! मेरी राय में मुजरिम को सूली दी जाय ताकि वह बेहद तकलीफ़ से मरे।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने आंख तक न झपकायी। वह ख़ुशी से मुस्कराता खुले रौशनदार से आती सूरज की किरनों को ताकता रहा।
अमीर ने सूली की सज़ा देने से मना’ किया और बताया कि तुर्की के सुल्तान ने इस काफ़िर को सूली देने की कोशिश की थी। ज़ाहिर है कि वह इस तरह की सज़ा से बेदाग़ छूटने की तरकीब जानता होगा, नहीं तो सुल्तान के हाथ से ज़िन्दा न निकल पाता।
बख़्तियार ने सलाह दी कि उस का सर क़लम कर दिया जाय। वह बोलाः सच है कि ऐसी मौत आसान मौतों में से है, लेकिन यह सबसे ज़ियादा यक़ीनी मौत है।
नहीं। अमीर बोले। बग़दाद के खलीफ़ा ने इसका सर क़लम कर दिया था, लेकिन वह इस के कन्धों पर अब भी क़ायम है।
एक के बाद एक दरबारी उठे और ख़ोजा नसरुद्दीन को फांसी लगाने या उसकी ज़िन्दा खाल खींच लेने की सलाह देते रहे। अमीर ने हर सुझाव को ठुकरा दिया। वह लगातार ख़ोजा नसरुद्दीन को ताक रहा था। उसे उस के चेहरे पर डर का निशान तक न दिखायी देता था। और वह इसे इन सुझावों के निकम्मेपन का सबूत मानता था। आख़िर दरबारी अपने-अपने सुझाव देकर ख़ामोश हो गये। अमीर बेहद नाराज़गी के आसार दिखा ही रहे थे कि बग़दाद का आलिम, असली मौलाना हुसैन, उठा। चूंकि अमीर की मौजूदगी में वह पहली मर्तबा बोल रहा था, उसने अपनी सलाह पर पहले से ही पूरी तरह ग़ौर कर लिया था, ताकि उसकी दानाई का सिक्का जम जाय।
ऐ ख़ल्क़ के शहंशाह-ए-आज़म! अगर अब तक यह मुजरिम हर तरह की सज़ा से बेदाग छूट निकला है, तो क्या इस से यह साबित नहीं होता कि नापाक ताक़तें, अंधेरे की रूहें, जिन का अमीर के हुज़ूर में नाम भी लेना मुनासिब नहीं, इसकी मदद करती रही हैं?
यह कह कर आलिम ने अपने कन्धों पर फूंक मारी। ख़ोजा नसरुद्दीन को छोड़ कर बाक़ी सभी लोगों ने ऐसा ही किया।
आलिम ने फिर कहना शुरू कियाः मुजरिम की बाबत मिली पूरी इत्तिला इकट्ठी कर के और उस पर ग़ौर कर के हमारे अमीर-ए-आजम ने इसकी मौत के तरीक़ों के बारे में हर सुझाव को ठुकरा दिया है। उन्हें अन्देशा है कि नापाक ताक़तें फिर एक बार इस मुजरिम को मदद कर के मुनासिब बदले और सज़ा से इसे बचा लेगी। मौत का एक और तरीक़ा है जो इस मुजरिम पर नहीं आज़माया गया है, और वह तरीक़ा है- पानी में डुबाने का!
बग़दाद के आलिम ने सिर उठाया और जीत के अंदाज़ से दरबार को देखा।
ख़ोजा नसरुद्दीन कुछ चौंका। अमीर ने उस का हिलना भांप लियाः ओ हो, तो यह है इस का राज़!
इस बीच ख़ोजा नसरुद्दीन सोच रहा थाः इन लोगों ने नापाक रूहों की बात करनी शुरू की है। यह अच्छा शुगुन हैं।
इस का मतलब है कि अभी उम्मीद नहीं खोनी चाहिए।
बग़दाद का आलिम कहता गयाः जो मैं ने पढ़ा सुना है, उस से मुझे मा’लूम हुआ है कि बुख़ारा में एक पाक तालाब है जो शेख तुरख़ान के तालाब के नाम से मशहूर है। ज़ाहिर है कि बदी की ताकतें ऐसे तालाब के पास फटकने की मज़ाल नहीं कर सकतीं। इस से, ऐ शहंशाह, यह मतलब निकलता है कि इस मुजरिम को पाक पानी के भीतर काफ़ी देर तक दबाये रखा जाय, जिस के बाद यह मर जायगा।
यही अक़्लमन्दी की और क़ाबिल-ए-इनआ’म सलाह है! अमीर ने कहा।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने आलिम को डाट कर कहाः अरे मौलाना हुसैन! जब तुम मेरे क़ब्जे में थे, तब क्या मैं ने तुम से ऐसा ही सुलूक किया था? तुम्हारी ऐसी हरकत के बाद कैसे कोई किसी इंसान का अएहसान मानने पर यक़ीन करेगा।
दरबार ने तय किया कि सूरज डूबने के बाद ख़ोजा नसरुद्दीन सर-ए आ’म शैख़ तूरख़ान के तालाब में डुबाया जाय। रास्ते में वह कहीं भाग न निकले, इस के लिए तालाब तक उसे चमड़े के थैले में बन्द करके ले जाने का तरीक़ा तय हुआ, जिससे बन्द ही बन्द वह डूबा दिया जाय।
...सारे दिन तालाब के किनारे कुल्हाड़ियां बजती रहीं। वहां बढ़ई एक ऊंचा तख़्त बना रहे थे। वे जानते थे कि अमीर को इस तख़्त की ज़रूरत क्यो हैं। लेकिन जब उन में से हरेक के पीछे एक-एक सिपाही खड़ा था, तो वे करते ही क्या? बेचारे ख़ामोशी से काम करते रहे। उनके चेहरे ग़मगीन और परेशान थे। जब काम ख़त्म हुआ तो उन्होंने वह उजरत लेने से इन्कार कर दिया जो बहुत कम थी और उन्हें दी जा रही थी। नीची नज़रें किये वे वापस चले गये।
तालाब के किनारे और तख़्ते पर क़ालीन बिछा दिये गये। दूसरा किनारा रिआया के लिए ख़ाली छोड़ दिया गया। मुख़बिरों ने ख़बर दी कि सारे शहर में खलबली और नाराज़गी फैली है। एहतिआतन अर्सलां बेग ने तालाब के चारों तरफ़ सिपाही तअ’ईनात कर दिये और तोपें चढ़ा दी।
इस डर से कि कहीं रिआया ख़ोजा नसरुद्दीन को रास्ते में ही न छीन ले, अर्सलां बेग ने चार थैलों में चीथड़े भरवा लिये थे। उसका इरादा था कि ये चारों थैले उन सड़कों से तालाब तक खुले आम भेजे जायेंगे, जो बहुत आबाद है।
और उस थैले को, जिस में ख़ोजा नसरुद्दीन होगा, सुनसान गलियों में से ले जाया जायगा। अपनी काइयां चाल में उसने यह जिद्दत भी लगायी कि झूठे थैलों के साथ तो आठ-आठ पहरेदार हों, लेकिन असली के साथ सिर्फ़ तीन, ताकि उस में कोई ख़ोजा नसरुद्दीन की मौजूदगी का शक भी न कर सके।
अर्सलां बेग ने पहरेदारों से कहाः तालाब से जब मैं तुम्हारे पास ख़बर भेजूं, तो झूठे थैलों को तुम लोग एक-के- बाद एक साथ ही ले आना। लेकिन मुजरिम वाले पांचवें थैले को ज़रा देर बाद- जब फाटक पर मौजूद भीड़ नक़ली थैलों के साथ जाने लगे- दूसरों की नज़रों से पूरी तरह बचा करना। समझ रहे हो न तुम लोग? याद रखना तुम्हें अपनी जान से जवाब देना होगा।
ढोल पीटकर शाम को बाज़ार बन्द करने का ऐ’लान किया गया। हर तरफ़ से आदमियों का तालाब की तरफ़ तांता लग गया। थोड़ी देर बाद अमीर की सवारी आयी। उस तख़्ते पर उसके आस-पास मिशअलें जला दी गयीं। लपटें सी-सी करती हुई हवा में हिल रही थीं और पानी की लहरों पर लाल सुर्ख़ लकीरें बना रही थीं। दूसरा किनारा अंधेरे से ढंका था। तख़्ते पर से भीड़ दिखायी नहीं देती थी, लेकिन उसके हिलने-डुलने और सांस लेने की आवाज़ सुनायी पड़ती थी। रात की हवा के झोंको पर सवार अनजाना और परेशान करनेवाला शोर फैल रहा था। ऊंची आवाज़ में बख़्तियार ने ख़ोजा नसरुद्दीन की मौत की सज़ा का ऐ’लान किया।
इस वक़्त हवा थम-सी गयी। ख़ामोशी छा गयी। इस ख़ामोशी से अमीर को डर के मारे कंपकपी आ गयी।
हवा से आह भरी और भीड़ में हज़ारों सीनों से आह उठी।
अमीर ने कांपते हुए कहाः अर्सलां बेग! अब क्या देर है?
शहंशाह, मैं ने पयामी रवाना भी कर दिया है।
यकायक अंधेरे से आवाज़ें आने लगीं। हथियार खड़कने लगे। कहीं पर लड़ाई शुरू हो गयी थी। अमीर डर के मारे चौंक पड़े। फ़ौरन ही ख़ाली हाथ आठ सिपाही मंच के सामने रौशनी में आ खड़े हुए।
मुजरिम कहां है? अमीर चिल्लाये। क्या लोगों ने उसे सिपाहियों से छुड़ा लिया! भाग निकला वह? अर्सलां बेग, तूने यह सब होने दिया?
ऐ शहंशाह! अर्सलां बेग बोला। अपने नाचीज़ ग़ुलाम ने यह पहले ही भांप लिया था। उस थैले में सिर्फ़ चीथड़े थे।
तभी दूसरे किनारे से लड़ाई-झगड़े की आवाज़ें आयीं। अर्सलां बेग ने जल्दी से अमीर को समझायाः ऐ आक़ा! उन्हें यह थैली भी ले लेने दीजिए। इसमें भी चीथड़े हैं।
सिपाहियों से पहले थैला चायख़ाने के मालिक अली और उसके दोस्तों ने छीना था, दूसरा युसूफ़ की रहनुमाई में लुहारों ने। कुम्हारों ने तीसरा थैला छीना। चौथा बिना छीन-झपट के बख़ैरियत पहुंच गया।
मिशअलों की रोशनी में सिपाहियों ने भीड़ को दिखाते हुए उस बोरे को उठाया और पलट दिया। चीथड़े बाहर निकल पड़े।
परेशान और भौचक्की भीड़ नाउमीदी से ख़ामोश खड़ी रही। यही अर्सलां बेग की चाल भी थी। वह जानता था कि बेसमझी में इंसान में नाकारापन आ जाता है।
और, अब पांचवे थैले से निपटने का वक़्त आ गया था। जाने क्यों उसे लानेवाले पहरेदारों को रास्ते में देर हो गयी थी और वे अब तक नहीं आये थे।
।। 9 ।।
सिपाही ख़ोजा नसरुद्दीन को क़ैदख़ाने से बाहर लाये तो वह बोलाः क्या तुम लोग मुझे अपनी पीठों पर लादकर ले चलोगे? अफ़्सोस कि मेरा गधा इस वक़्त न हुआ। हंसी के मारे वह लोट-पोट हो जाता।
ख़ामोश! अपना मुंह बन्द कर। सिपाहियों ने बिगड़कर कहा। तू अभी रोयेगा।
वे उसे मुआ’फ़ नहीं कर सकते थे, क्योंकि उसने ख़ुद अपने को अमीर के सिपुर्द कर दिया था जिससे कि उनका इनआ’म मारा गया था।
उन्होंने क संकरा बोरा बिछाया और नसरुद्दीन को उसमें ठूंसने लगे।
दोहरा-तेहरा होता हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्लायाः अरे शैतानों! क्या इस से बड़ा बोरा नहीं मिल सकता था तुम्हें?
पसीने से शराबोर, हांफते हुए सिपाहियों ने, डपटकर कहाः ख़ामोश! अब तेरी नहीं चलने की। अबे हरामज़ादे, इस तरह न फैल, नहीं तो तेरे पैर पेट में ठूंस देंगे।
मारपीट शुरू हो गयी, जिस की वजह से महल के और नौकर भी वहां पहुंच गये। आख़िर, बड़ी कोशिश के बाद सिपाही उसे बोरे में बन्द करने और बोरे का मुंह रस्से से बांधने में कामयाब हुए। बोरे के भीतर बदबू, अंधेरा और घुटन थी। ख़ोजा नसरुद्दीन की रूह पर काला कोहरा छा गया। अब बच निकलने की कोई उम्मीद नहीं थी। उसने मुक़द्दर और सबसे ज़ियादा ताक़तवर चीज़, मौक़े, से इल्तिजा कीः
ऐ क़िस्मत, जो मेरी मां की तरह मुझ पर मेहरबान है! ऐ सब से ज़ियादा ताक़तवर मौक़े, जिस ने अब तक अपने बच्चे की तरह मेरी हिफ़ाज़त की है! कहां हो तुम? ख़ोजा नसरुद्दीन की मदद के लिए तुम जल्दी क्यों नहीं आते? इन लोगों ने मुझे एक गन्दे बदबूदार बोरे में बन्द कर दिया है और मुझे कीचड़ भरे पोखरे में डुबाने ले जा रहे हैं- मुझे, जिसे सारी दुनिया ने देखा है, मुझे जिसे समुन्दर ही मुनासिब क़ब्र दे सकता है। इंसाफ़ कहां है? सच्चाई कहां है? नहीं, यह नहीं हो सकता! कुछ न कुछ होना ही चाहिए! आग, ज़लज़ला, बग़ावत! ऐ क़िस्मत! ऐ मौक़े! कुछ न कुछ होना ही चाहिए!
इस बीच पहरेदार तालाब का आधा रास्ता तय कर चुके थे। लेकिन अब तक कुछ न हुआ था। वे लोग बारी-बारी से बोरा लाद रहे थे और हर दो सौ क़दम पर बोझा बदल रहे थे। ख़ोजा नसरुद्दीन छोटे-छोटे क़दम गिन रहा था। इस से उसे अन्दाज़ा हो रहा था कि कितना फ़ासला तय हो गया है और कितना बाक़ी है। वह जानता था कि मुक़द्दर और मौक़ा उस शख़्स की मदद नहीं करते जो रोता-पीटता है, जो दिलेरी से काम नहीं लेता।
लेकिन जो शख़्स लगन से बढ़ता जाता है, वह मंज़िल तक पहुंच जाता है। अगर उस के पांव थक जायें और जवाब दे जायें, तो उसे हाथों के बल ही रेंगना चाहिए। तब ज़रूर उसे रात के अंधेरे में दूर तक फैले काफ़िलों के अलाव की तेज़ रोशनियां दिखायी पड़ेगी, कारवां सही रास्ते पर जा रहे होंगे और ज़रूर कोई अकेला ऊंट उस मुसाफ़िर को मिल जायेगा जो उसे मंज़िल तक पहुंचा देगा। लेकिन वह शख़्स जो सड़क के किनारे बैठ रहेगा और नाउमीदी को सीने से लेगा, उसे बेदिल पत्थरों से कोई हमदर्दी नहीं मिलेगी-वह चाहे जितना रोये-गिड़गिड़ाये। रेगिस्तान में वह प्यास से मर जायेगा। उसका जिस्म बदबूदार लकड़बग्घों का शिकार बनेगा और उसकी हड्डियां गर्म रेत के नीचे दब जायेगीं। कितने ही लोग अपने वक़्त से पहले मर जाते हैं, क्योंकि उन में ज़िन्दा रहने की तमन्ना काफ़ी मज़बूत नहीं होती!
ख़ोजा नसरुद्दीन ऐसी मौत को सच्चे इंसान के लिए शर्मनाक चीज़ समझता था।
नहीं! उस ने कहा और दांत भींचकर दोहराया, नहीं! मैं आज नहीं मरूंगा! मैं आज मरना नहीं चाहता!
लेकिन एक संकरे बोरे में दोहरा-तेहरा मुड़ा, जहां हिलने की भी जगह नहीं थी, वह कर ही क्या सकता था? उसकी कोहनियां और टांगे उस के धड़ से सटी हुयी थीं। कोई चीज़ आज़ाद थी तो सिर्फ़ उसकी ज़बान।
बोरे के भीतर से वह बोलाः ऐ बहादुर सिपाहियो। ज़रा एक लम्हे के लिए रुको। मरने से पहले मैं दुआ’ करना चाहता हूं ताकि अल्लाह मेरी रूह को क़ुबूल कर ले।
अच्छा ! दुआ’ कर लो। सिपाहियों ने बोरा ज़मीन पर रख दिया। लेकिन जल्दी। दुआ’ जल्द ही ख़त्म कर लो। हम तुम्हें बाहर नहीं निकालेंगे। तुम बोरे के अन्दर ही इबादत कर लो।
हम है कहां ? ख़ोजा नसरुद्दीन ने पूछा। मुझे यह मा’लूम होना चाहिए क्योंकि तुम्हें मेरा मुंह सब से नज़दीकी मस्जिद की तरफ़ करना होगा।
हम लोग कर्शी फाटक के पास है। यहां चारों तरफ़ मसजिदें ही मसजिदें हैं। बस, अब तुम अपनी दुआ’ जल्द ख़त्म करो।
शुक्रिया, ऐ सिपाहियों! ग़मज़दा आवाज़ में ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहा। दुआ’ करने के नाम पर मुझे चन्द मिनटों की मोहलत मिल जायगी। फिर देखा जायगा। तब तक कुछ ऐसा हो सकता है कि…वह ज़ोर-ज़ोर से दुआ’ करने लगा। साथ ही सिपाहियों की बातें सुनने लगा।
आख़िर ऐसा हुआ ही कैसे कि हम लोग फ़ौरन ही न भांप पाये कि नया आलिम ख़ोजा नसरुद्दीन है ? वे लोग कह रहे थेः काश! उसे पहचानकर हम लोग पकड़ लेते तो अमीर से हमें भारी इनआ’म मिलता।
सिपाहियों के ख़यालात इन्हीं जानी-पहचानी गलियों में भटक रहे थे, क्योंकि उनकी ज़िन्दगी का सारा जुज़ लालच ही था।
ख़ोजा नसरुद्दीन फ़ौरन इस का फ़ायदा उठाने को तैयार हो गया।
मुझे कोशिश करनी चाहिए कि ये लोग बोरे को अकेला छोड़ दें- चाहे थोड़ी देर के लिए ही सही...। तब शायद मैं रस्सा तोड़ने में कामयाब हो जाऊ ! या शायद इधर से कोई गुज़रे जो मुझे आज़ाद कर दे। उस ने सोचा।
बोरे में ताल मारते हुए एक सिपाही ग़ुर्रायाः जल्द ख़त्म कर अपनी दुआट। तू सुन रहा है न ? हम लोग अब ज़ियादा इंतिज़ार नहीं कर सकते।
ऐ नेक और बहादुर सिपाहियों! सिर्फ़ एक मिनट और! ख़ोजा नसरुद्दीन बोला। मुझे ख़ुदा से एक ही इल्तिजा और करनी है। ऐ क़ादिर-ए-मुतलक़! ऐ मेहरबान अल्लाह! तू ऐसा कर दे कि जिस किसी को भी मेरे दस हज़ार तंके मिलें वह उन में से एक हज़ार किसी मस्जिद में ले जाय और मुल्ला से मेरे लिए एक साल तक दुआ-ए-ख़ैर करने के कहे।
दस हज़ार तंके!!!
दस हजार तंकों की बात सुनकर सिपाही ख़ामोश हो गये। ख़ोजा नसरुद्दीन हालांकि बोरे के बाहर नहीं देख सकता था, तो भी वह बता सकता था कि सिपाहियों के चेहरों से क्या झलक रहा है, कि वे कैसे एक-दूसरे को ताक रहे हैं और एक-दूसरे को कोहनी मार रहे हैं।
सहम कर, दबी ज़बान से, उस ने कहाः अब मुझे ले चलो, नेक सिपाहियों! मैं ने अपनी रूह अल्लाह के सिपुर्द कर दी है।
सिपाही हिचकिचाये। उन में से एक ख़ोजा नसरुद्दीन को उकसाते हुए बोलाः हम ज़रा देर और सुस्तायेंगे। ख़ोजा नसरुद्दीन तुम यह न समझना कि हम लोग बुरे हैं, या हमारे दिल नहीं है। तुम्हारे साथ ऐसा सख़्त बरताव करने के लिए हम अपने फ़र्ज़ की वजह से मजबूर है। अमीर से तनख़्वाह पाये बिना हम लोग अपने ख़ानदानों को पालने लायक़ हो जाते, तो तुम्हें रिहा करने में हमें कोई हिचक न होती…
दूसरा सिपाही फुसफुसायाः यह तुम क्या कह रहे हो ? हम ने उसे बाहर निकलने दिया तो अमीर हमारा सर काट डालेगे।
पहले सिपाही ने सिसकारी भरी और जवाब दियाः अपनी ज़बान बन्द रख। हमें तो सिर्फ़ इस का रुपया चाहिए।
ख़ोजा नसरुद्दीन उन की फुसफुसाहट नहीं सुन सका, लेकिन वह जानता था कि किस सिलसिले में बातें हो रही है। बड़ी पाकीज़गी से आह भरता हुआ वह बोलाः ऐ बहादुरो! मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं। दूसरों की बाबत बुरा-भला क्या कहूं। मैं ख़ुद ही बहुत बड़ा गुनाहगार हूं। उस दूसरी दुनिया में अल्लाह ने अगर मुझे मुआ’फ़ी बख्श दी, तो मैं तुम लोगों से वा’दा करता हूं कि उस के तख़्त के नीचे बैठकर तुम लोगों के लिए दुआ’ करूंगा। तुम कह ते हो कि अगर तुम्हें अमीर की तनख़्वाह की ज़रूरत न होती तो मुझे बोरे से बाहर निकल आने देते? ज़रा सोचो तो कि तुम कह क्या रहे हो! तुम अमीर के हुक्म के ख़िलाफ़ काम करते, जो ख़ुद एक बड़ा गुनाह है ? नहीं, नहीं! मैं नहीं चाहता कि मेरी ख़ातिर तुम्हारी रूहों पर गुनाह का साया पड़े। उठाओ बोरा! ले चलो मुझे तालाब की तरफ़। अमीर की मंशा और अल्लाह की मंशा पूरा हो कर रहेगा।
सिपाही परेशानी से एक-दूसरे को देख रहे थे। ख़ोजा नसरुद्दीन की गुनाह क़ुबुल करने और अफ़्सोस ज़ाहिर करने की धुन को वे बुरा-भला कह रहे थे। बातचीत में अब तीसरा सिपाही भी शामिल हो गया, जो कोई शैतानी भरी चाल सोचता हुआ अब तक ख़ामोश था। अपने साथियों को आंख मार कर वह बोलाः किसी शख़्स को अपनी ग़लतियां और गुनाह सिर्फ़ मौत के डर से क़ुबूल करते देख कर दिल को तकलीफ़ होती है। नहीं, मैं ऐसा नहीं हूं। मैं ने बहुत पहले ही अपने गुनाह क़ुबूल कर लिए थे और तब से अब तक पाक ज़िन्दगी बसर कर रहा हूं। लेकिन तुम तो जानते ही हो भाइयो, अल्लाह को ख़ुश करने वाले काम किये बग़ैर सिर्फ़ पाकीज़गी काफ़ी नहीं होती। वह इसी तरह की बातें कहता रहा और उस के साथी अपनी हंसी रोकने के लिए मुंह पर हाथ लगाये रहे। वे जानते थे कि यह शख़्स अव्वल नम्बर का जुआरी और ऐ’याश है। और इसलिए मैं अपनी पाकीज़गी को मज़बूत बनाने के लिए एक सही और नेक काम कर रहा हूं। मैं अपने वतन में एक मस्जिद बनवा रहा हूं। और इस के लिए मैं और मेरे ख़ानदानवाले भर पेट खाना भी नहीं खाते।
बाक़ी दो सिपाहियों में से एक से नहीं रहा गया और वह कुछ दूर जा कर हंसने लगा। हंसी के मारे उस का दम घुटा जा रहा था।
तीसरा सिपाही कहता गयाः मैं तांबे तक का एक-एक सिक्का बचा कर रख़ता हूं। लेकिन मस्जिद का काम बहुत आहिस्ते चल रहा है। अभी हाल में मैं ने अपनी गाय बेची है। अब मुझे चाहे जूते तक बेच देने पड़े- लेकिन अगर वह काम पूरा हो जो मैं ने उठाया है, तो मैं नंगे पैर चलने को तैयार हूं।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने बोरे के भीतर एक सिसकी भरी। सिपाहियों ने एक-दूसरे को ताका। चाल काम कर रही थी। उन्होंने अपने चालाक साथी को कोहनी मारी कि वह अपनी बात जारी रखे।
वह बोलाः काश! मुझे कोई शख़्स मिल जाता जो मस्जिद पूरी करने के लिए आठ-दस हजार तंके दे देता! मैं उस से वा’दा कर लेता कि पांच, बल्कि दस, साल तक लगातार अल्लाह के तख़्त की तरफ़ मस्जिद की छतों से इबादत के महकते हुए बादलों से लिपटा उसका नाम रोज़ ऊपर उठता रहेगा!
दूसरा सिपाही बोलाः दोस्त, मेरे पास दस हजार तंके नहीं हैं, लेकिन तुम मेरी बचत की सारी कमाई, यानी पांच सौ तंके क़ुबूल कर लो। मेरी यह नाचीज़ भेंट ठुकराना मत, क्योंकि मैं भी इस नेक काम में हाथ बटाना चाहता हूं।
दबी हुई ख़ुशी और हंसी से कांपता सिपाही हकलाता हुआ बोलाः और मैं भी... लेकिन मेरे पास कुल तीन सौ तंके है…
दर्द-भरी आवाज़ में ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः ऐ नेक इंसान! ऐ सबसे ज़ियादा पाक सिहापी! काश, मैं तुम्हारी पोशाक का कोना अपने होंठों से चूम पाता! मैं बड़ा गुनाहगार हूं! लेकिन मेरे ऊपर मेहरबानी करो और मेरी भेंट लेने से इनकार मत करो। मेरे पास दस हज़ार तंके हैं। जब मैं ने बद इरादे से अमीर की ख़िदमत की थी, तो मुझे अक्सर सोने और चांदी की थैलियां मिलती रहती थीं। मैं ने दस हज़ार तंके बचाकर छिपा दिये थे। मैं सोचता था कि बच कर निकल भागने के वक़्त मैं इस रक़म को ले लूंगा और चूंकि मुझे कर्शी फाटक होकर जाना था, इसलिए मैं ने कर्शी क़ब्रिस्तान में ही वह रक़म गाड़ दी थी- क़ब्र के एक पुराने पत्थर के नीचे।
सिपाही चिल्ला पड़ेः कर्शी कब्रिस्तान? अरे वह तो नज़दीक ही है।
हां। हम लोग अब क़ब्रिस्तान के शुमाली (उत्तरी) कोने पर हैं। अगर कोई...हम लोग इस वक़्त मशरिक़ी (पूर्वी) कोने पर है। कहां... तुम ने रुपया कहां छिपाया है?
ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः वह क़ब्रिस्तान के मग़रिबी (पश्चिमी) कोने में है। लेकिन ऐ नेक सिपाही! पहले मुझ से वा’दा करो कि मेरा नाम वाक़ई दस साल तक मस्जिद में रोज़ाना लिया जायगा।
बेताबी से ऐंठता हुआ सिपाही बोलाः मैं वा’दा करता हूं। मैं अल्लाह और उनके पैग़म्बर के नाम पर दावा; करता हूं। अब तुम जल्द बताओ कि वह रक़म कहां गड़ी है?
ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब देने में काफ़ी वक़्त लगाया। वह सोचा रहा थाः अगर इन लोगों ने तय किया कि पहले मुझे तालाब तक छोड़ आये और रुपये की खोज कल तक मुल्तवी कर दें तो बड़ा ग़जब होगा? नहीं, बेताबी और लालच के मारे ये लोग मरे जा रहे हैं। इन्हें डर होगा कि कोई और आ कर इनसे पहले ही रक़म न ले जाय। फिर, इन लोगों की आपस में भी एक-दूसरे पर यक़ीन नहीं। आख़िर मैं कौन सी ऐसी जगह बताऊं जहां ये लोग ज़ियादा से ज़ियादा देर तक खोदते रहें।
बोरे पर झुके सिपाही जवाब का इंतिज़ार कर रहे थे। ख़ोजा नसरुद्दीन को उनकी तेज़ सांसें सुनाई पड़ रही थी। ऐसा लगता था मानो वे कहीं बड़ी दूर से दौड़ कर आ रहे हों।
अच्छा सुनो, वह बोला, क़ब्रिस्तान के मग़रिबी कोने में क़ब्रों के तीन पुराने पत्थर है, जो एक तिकोन बनाते है। इनमें तिकोन के तीनों कोनों के नीचे मैंने तीन हज़ार, तीन सौ तेंतीस और एक तिहाई तंके गाड़ रखे है…
तिकोन के तीनों कोनो के नीचे, सिपाहियों ने एक साथ दोहराया मानो ज़हीन शागिर्द अपने उस्ताद के साथ-साथ क़ुरआन के लफ़्ज़ दोहरा रहे होः तीन हज़ार, तीन सौं तेंतीस और एक तिहाई तंके…
उन लोगों ने तय किया कि दो सिपाही इस रक़म की खोज में जाये और तीसरा वहीं पहरा दे। इस पर ख़ोजा नसरुद्दीन को नाउमीद हो जाना चाहिए था। लेकिन वह इंसान के मिज़ाज से अच्छी तरह वाक़िफ़ था। उसे पूरा यक़ीन था कि तीसरा सिपाही ज़ियादा तक देर नहीं रुकेगा। यह ख़याल ग़लत नहीं था। अकेला रह जाने पर सिपाही गहरी सांसें भरता, खांसता और सड़क पर अपने हथियार खड़खड़ाता चहल्क़दमी करता रहा। इन आवाज़ों से ख़ोजा नसरुद्दीन को उस के ख़यालात भांपने का मौक़ा मिला। सिपाही को अपने तीन हज़ार, तीन सौ तेंतीस और एक तिहाई तंकों की भारी फ़िक्र थी। ख़ोजा नसरुद्दीन इत्मिनान से वक़्त का इंतिज़ार करता रहा।
बड़ी देर लगा दी उन लोगों ने! सिपाही बोला।
शायद वे रक़म को किसी दूसरी जगह छिपा रहे हैं, ताकि आप लोग कल इकट्ठे आ कर उसे ले जायें, ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहा।
बात अपना असर कर गयी, सिपाही ने ज़ोर से सांस खींची और जम्हाई लेने का बहाना किया।
मर ने से पहले मैं कोई नसीहत भरी कहानी सुनना चाहता हूं। बोरे के भीतर से ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहा। ऐ नेक सिपाही! शायद तुम्हें कोई कहानी याद हो जो तुम मुझे सुना सको।
नाराज़ होकर सिपाही बोलाः नहीं, मुझे कोई कहानी याद नहीं। नसीहतवाली कोई कहानी मुझे याद नहीं। दूसरे, मैं थक गया हूं। मैं जा कर ज़रा घास पर लेटूंगा।
लेकिन सिपाही को यह नहीं मा’लूम था कि सख़्त ज़मीन पर उस के क़दमों की आवाज़ से भी सुनायी देगी। पहले तो वह धीरे-धीरे चला। फिर ख़ोजा नसरुद्दीन को तेज़ क़दमों की आवाज़ सुनायी दी। सिपाही तेज़ी से भाग रहा था। कुछ कर गुज़रने का वक़्त आ गया था। ख़ोजा नसरुद्दीन बहुत लोटा-पौटा, बहुत लुढ़का। लेकिन बेकार रस्सा नहीं टूटा।
ऐ मुक़द्दर, किसी राहगीर को भेज, ख़ोजा नसरुद्दीन दुआ’ करने लगा, किसी राहगीर को भेज दे! या अल्लाह, किसी
राहगीर को भेज दे।
और मुक़द्दर ने एक राहगीर भेज दिया।
तक़दीर और सुनहरे मौक़े सिर्फ़ उसी शख़्स की मदद करने आते हैं जो पूरे यक़ीन के साथ आख़िर तक लड़ता है (यह बात हमने पहले भी कही है, लेकिन सच्चाई दोहराने से कम नहीं होती)। ख़ोजा नसरुद्दीन अपनी ज़िन्दगी को बचाने के लिए पूरी ताक़त और लगन से जूझ रहा था। मुक़द्दर इसकी मदद से इनकार नहीं कर सकता था।
राहगीर आहिस्ता-आहिस्ता आ रहा था। उसके क़दमों की आवाज़ से ख़ोजा नसरुद्दीन ने अन्दाज़ा लगाया कि वह लंगड़ा है। वह हांफ रहा था, जिस से ज़ाहिर था कि वह बुज़ुर्ग है।
बोरा रास्ते के बीचोंबीच पड़ा था। राहगीर रुका। कुछ देर तक बोरे को देख़ता रहा, फिर उसे पैर से टटोला।
खरखराती आवाज़ में उसने कहाः क्या हो सकता है इस बोरे में? यह आया कहां से?
वल्लाह! ख़ोजा नसरुद्दीन को सूद-ख़ोर जाफ़र की आवाज़ सुनाई दी। उसे पहचानते देर न लगी। अब उसे क़तई शक न था कि वह बच जायगा। ज़रूरत सिर्फ़ इस बात की थी कि सिपाही लौटने में देर लगाये।
उसने होले से खांसा, ताकि सूद-ख़ोर चौंक न पड़े।
ओहो! इसमें तो कोई आदमी है। पीछे को हटता हुआ जाफ़र चिल्लाया।
बेशक इसमें आदमी है! आवाज़ बदलकर बहुत इत्मिनान से ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः इस में तअ’ज्जुब की बात क्या है?
तअ’ज्जुब की बात? तुम बोरे में बन्द क्यों हो?
यह मेरा निजी मोआ’मला है। तुम्हें इस से क्या? तुम अपनी राह लगो। मुझे अपने सवालों से परेशान न करो।
ख़ोजा नसरुद्दीन जानता था कि सूद-ख़ोर के दिमाग़ में खुजली मच रही होगी और वह नहीं टलेगा।
सचमुच बड़े तअ’ज्जुब की बात है। सूद-ख़ोर बोला। एक आदमी बोरे में बन्द है और बोरा सड़क पर पड़ा है। ऐ भाई, तुम्हें क्या ज़बरदस्ती बोरे में बन्द किया गया था?
ज़बरदस्ती? ख़ोजा नसरुद्दीन चिढ़ता हुआ बोला। क्या छः सौ तंके मैं इसलिए ख़र्च करूंगा कि कोई मुझे ज़बर्दस्ती बोरे में बन्द करे?
छः सौ तंके? तुमने छः सौ तंके क्यों ख़र्च किये?
ऐ मुसाफिर, अगर तुम वादा करो कि मेरी बात सुनने के बाद तुम अपने रास्ते लगोगे और मुझे परेशआन न करोगे तो मैं तुम्हें पूरानी कहानी सुना दूं। यह बोरा एक अरब का है, जो यहां बुख़ारा में रहता है। इसमें जादू की सिफ़त है। सिफ़त यह है कि बीमारी और बदनुमा जिस्म को ठीक कर देता है। इसका मालिक इसे किराये पर देता है। लेकिन वह भारी रक़म लेता है और हर ऐरे-ग़ैरे को नहीं देता। मैं लंगड़ा था, मेरे कूबड़ निकला था और मैं एक आंख से काना था। मैं शादी करना चाहता था। सो वह मुझे इस अरब के पास ले गया। मैं ने उसे छः सौ तंके दिये और चार घंटे के लिए यह बोरा ले लिया।
चूंकि वह बोरा अपना असर क़ब्रिस्तान के अरीब-क़रीब ही दिखाता है, सो सूरज डूबने के बाद मैं इस कर्शी क़ब्रिस्तान चला आया। मेरी होनेवाली बीवी का बाप, जो मेरे साथ आया था, मुझे इस बोरे के भीतर घुसाकर और ऊपर से रस्सा बांधकर चला गया। मुमकिन था कि किसी ग़ैर की मौजूदगी में इलाज न हो पाये। बोरेवाले अरब ने मुझे बताया था कि जैसे ही मैं अकेला रह जाऊंगा, तीन जिन ज़ोरों से पीतल के पर खड़खड़ाते हुए आयेंगे। इंसानों जैसी ज़ुबान में वे मुझ से पूछेंगे कि क़ब्रिस्तान के किस हिस्से में दस हज़ार तंके गड़े हैं और इस जवाब में मैं जादू के ये बोल सुनाऊंगाः तांबे जैसी ढाल है जिसकी, उसका माथा तांबे का। उक़ाब के दर पर उल्लू! ऐ जिन, तू पूछता है पता उस रक़म का जो तूने छुपाई नहीं, इसलिए पलट और चूम मेरे गधे की दूम!
बस, जैसा उसने बताया था हू-ब-हू वैसा हुआ। जिन आये और मुझसे पूछा कि दस हज़ार तंके कहां गड़े है, मेरा जवाब सुनकर वे तैश में आगये और मुझे पीटने लगे। लेकिन मैं अरब की हिदायतों पर चलता हुआ चिल्लाता रहा- 'तांबे जैसी ढाल है जिस की, उसका माथा तांबे का... इसलिए पलट और चूम मेरे गधे की दुम।' तब जिन बोरा उठाकर मुझे ले चले... इसके बाद मुझे कुछ याद नहीं। दो घंटे बाद मुझे होश आया तो देखा कि मैं बिल्कुल दुरुस्त हो गया हूं और उसी जगह पड़ा हूं, जहां से वे मुझे ले गये थे। मेरा कूबड़ ग़ायब हो गया है, पैर सीधा हो गया है और मैं दोनों आंखों से देख सकता हूं- इस का यक़ीन मैं ने इस सूराख़ से झांकक र कर लिया है जो मुझ से पहले किसी और शख़्स ने इस बोरे में कर दिया था। अब मैं यहां सिर्फ़ इसलिए बन्द हूं कि पूरी रक़म अदा करने के बाद उसे बेकार जाने देना ठीक नहीं।
बेशक, एक ग़लती मैं ने की। मुझे किसी ऐसे शख़्स से पहले ही समझौता कर लेना चाहिए था जिसे ये सारी बीमारियां होतीं। तब हम लोग बोरे को साझे में किराये पर ले लेते और दो-दो घंटे इसमें रहते। इस तरह इलाज में कुल तीन-तीन सौ तंके ख़र्च होते। लेकिन अब क्या किया जाय? रक़म बरबार हो तो हो, लेकिन असली बात तो यह है कि मेरा मुकम्मल हो गया।
ऐ राहगीर! तुमने पूरी कहानी सुन ली है। अब तुम अपना वा’दा पूरा करो, यानी अपनी राह लगो। इलाज के बाद मुझे कमज़ोरी महसूस हो रही है। बात करने में तकलीफ़ होती है। तुम से पहले नौ शख़्स मुझ से यही सवाल कर चुके हैं और बार-बार सारी बातें दोहराते मैं थक गया हूं।
सूद-ख़ोर ने सब बातें ध्यान से सुनीं। सिर्फ़ बीच-बीच में वह तअ’ज्जुब और अचम्भा ज़ाहिर करने के लिए सच? अच्छा !
वाक़ई! कहता गया।
ऐ बोरे में बन्द इंसान! मेरी भी सुनो। सूद-ख़ोरर बोला। हमारी इस मुलाक़ात से हम दोनों को फ़ायदा हो सकता है। तुम्हें इस बात का ग़म है कि तुम ने किसी ऐसे साझेदार को ढूंढने की कोशिश नहीं की जिस को तुम्हारी ही तरह बीमारियां हो। लेकिन घबराओ नहीं। देर नहीं हुई है। मैं ठीक वैसा ही शख़्स हूं जैसे कि तुम्हें ज़रूरत है। मैं कुबड़ा हूं, दाहिने पैर से लगड़ा हूं और एक आंख से काना हूं। बोरे में बाकी दो घंटे रह सकने के लिए ख़ुशी से तुम्हें तीन सौ तंके दे दूंगा।
बस-बस! मेरा मज़ाक न उड़ाओ! ख़ोजा नसरुद्दीन बोला। भला कहीं ऐसा भी इत्तिफ़ाक़ हुआ है? यह एकदम नामुमकिन है। लेकिन अगर तुम सच बोल रहे हो तो, ऐ भाई, अल्लाह का शुक्रिया अदा करो जो उसने ऐसा मौक़ा तुम्हें बख़्शा। ऐ मुसाफ़िर, मैं बोरा ख़ाली करने को राज़ी हूं। लेकिन मैं पहले ही कह दूं कि बोरे का किराया मैं ने पेशगी दिया था और तुमसे भी पेशगी लूंगा। बोरा मैं उधार नहीं देने का।
बेशक, बेशक! मैं पेशगी दूंगा। बोरे को खोलता हुआ सूद-ख़ोर बोला। लेकिन हम लोग वक़्त ज़ाया न करें। वक़्त जा रहा है। अब हर मिनट मेरा है।
बोरे से निकलते वक़्त ख़ोजा नसरुद्दीन ने अपना चेहरा आस्तीन से छिपा लिया। लेकिन सूद-ख़ोर ने उसकी तरफ़ देखा तक नहीं। वह फुर्ती से रक़म गिन रहा था। उसे हर मिनट की फ़िक्र थीं। बहुत कांखने-कराहने के बाद वह बोरे में घुसा और अपना सिर भीतर कर लिया।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने बोरे के मुंह पर रस्सा कसा, कुछ दूर गया और एक पेड़ की आड़ में छिप गया। वह ऐन मौक़े पर बोरे से बाहर निकला था, क्योंकि क़ब्रिस्तान की तरफ़ से सिपाहियों के ज़ोर-ज़ोर से गाली देने की आवाजें आ रही थीं। टूटी दीवार के बीच की दराज़ से ख़ोजा नसरुद्दीन को उनके लम्बे साफ़े दिखाई दिये। चांदनी में अपने तांबे के भाले चमकाते सिपाही बोरे के पास आ पहुंचे।
।। 10 ।।
क्यों बे चालबाज़! बोरे में ठोकरें मारते हुए सिपाही चिल्लाये। उनके हथियार ठीक वैसे ही खड़क रहे थे जैसे किसी जिन के तांबे के पर खड़कते! यह बदमाशी ? हमने क़ब्रिस्तान का चप्पा-चप्पा छान मारा, लेकिन कुछ हाथ न लगा। ठीक-ठीक बता हरामज़ादे, दस हजार तंके कहां है?
सूद-ख़ोर ने अपना सबक़ अच्छी तरह रट रखा थाः
तांबे जैसी ढाल है जिस की, उसका माथा तांबे का, बोरे के अन्दर से सूद-ख़ोर बोला, उक़ाब के दर पर उल्लू। ऐ जिन, तू पूछता है पता उस रक़म का जो तूने छुपाई नहीं , इसलिए पलट और चूम मेरे गधे की दुम!
इतना सुनना था कि सिपाही ग़ुस्से से बौखला उठे।
तूने दग़ाबाज़ी की है, ज़लील कुत्ते! अब हमें बे-वक़ूफ़ बनाता है? देखो भाई! देखो! बोरा धूल से सना है। हम लोगों के हाथ तो क़ब्रिस्तान में खोदाई करते-करते लहू-लुहान हो रहे थे, और यह सड़क पर लोट-पोटकर बोरे से निकल भागने की कोशिश कर रहा था। अबे गीदड़ की औलाद, तुझे यह चालबाज़ी मंहगी पड़ेगी।
पहले तो उन्होंने मुक्कों से बोरे की कुटाई की, फिर लोहे के नालदार बूटों से अच्छी तरह रौंदा। इस बीच सूद-ख़ोर, ख़ोजा नसरुद्दीन की हिदायतों पर मज़बूती से अ’मल करता हुआ चिल्लाता रहाः 'तांबे जैसी ढाल है जिस की, उसका माथा तांबे का' वग़ैरा सिपाही और भी भन्ना उठे। उनकी तबियत तो हो रही थी कि इस बद-मआ’श को अपने तरीक़े से यही ख़त्म कर दें, लेकिन उन्हें अफ़्सोस था कि वे ऐसा कर नहीं सकते थे। सो, उन्होंने बोरा उठाया, उसे पीठ पर लादा और पाक तालाब की तरफ़ बढ़ चले।
ख़ोजा नसरुद्दीन पेड़ की आड़ से निकला, सिंचाई की नहर में हाथ-मुंह धोये, ख़िलअ’त उतार कर रख दी और रात की हवा में सांस ली-सीना खोल कर, आज़ादी से। वह अपने को बिल्कुल आज़ाद महसूस कर रहा था, क्योंकि मौत का काला साया उस के सर से टल गया था। हिफ़ाज़त और आराम की एक जगह पाक र उसने अपनी ख़िलअ’त बिछाकर एक पत्थर सिरहाने रखा और लेट गया। इतनी देर तक उस तंग और बदबूदार बोरे में बंद रनहे की वजह से वह थक गया था और उसे आराम की ज़रूरत थी। हवा पेड़ों की पत्तियों में सरासरा रही थी। आसमान के समुन्दर में तारों के सुनहरे झुंड तैर रहे थे। नहर में बहते पानी की कलकल सुनाई दे रही थी। यह सब ख़ोजा नसरुद्दीन को इस वक़्त पहले से दस-गुना ज़ियादा अच्छा लग रहा था।
हां! दुनिया मेरे लिए अब भी इतनी अच्छी है कि अगर मुझे बहिश्त में जगह देने का पक्का वा’दा भी कर लिया जाय, तो मैं मरने के लिए रज़ामंद न हूंगा। कोई भी शख़्स वहां एक ही दरख़्त के साये में, उन्हीं हूरों के बीच बैठा-बैठा, ऊब उठेगा।
तारों की छांह में गर्म ज़मीन पर लेटे-लेटे लगातार बहने और कभी आराम न करनेवाली ज़िन्दगी के बारे में ख़ोजा नसरुद्दीन के दिमाग़ में इसी तरह के ख़यालात दौड़ रहे थे। उस के सीने में उसका दिल धड़क रहा था। क़ब्रिस्तान में बार-बार उल्लू बोल रहा था। कोई छोटा सा जानवर- शायद साही- चुपके-चुपके झाड़ियों से सरसराती जा रही थी। घास से चरपरी ख़ुशबू उड़ रही थी।
राज़दार हरकतों, अ’जीब खरखराहटों, रेंगने की आवाज़ों और चरमाराहट से वह गुलज़ार थी।
दुनिया ज़िन्दा थी और सांस ले रही थी। इतनी बड़ी दुनिया हर एक के लिए एक-सी खुली हुई थी। चींटियों, चिड़ियों और इन्सानों, सभी को अपनी बेइन्तिहा जगह की दा’वत देती, वह बड़ी मुहब्बत से उनकी तरफ़ हाथ बढ़ा रही थी। बदले में उसकी मांग सिर्फ़ इतनी थी कि इस मुहब्बत और अमानत का वे बेजा इस्तेमाल न करें। उस मेहमान को मेज़बान बेइज़्ज़ती से निकाल बाहर करता है जो दा’वत की ख़ुशी से माहौल का बेजा फ़ायदा उठाता दूसरे मेहमानों की जेब काटने की हरकत करता है। और ऐसा ही चोर था बदनाम सूद-ख़ोर जो ख़ुशी और मुहब्बत की इस दुनिया से बाहर निकाला जा रहा था।
ख़ोजा नसरुद्दीन को उस के लिए कतई अफ़्सोस न था, क्योंकि ज़ाहिर था कि उसके न होने से हज़ारों लोगों का बोझ हल्का होगा। ख़ोजा नसरुद्दीन सिर्फ़ इस बात का ग़म था कि ज़मीन पर यह सूद-ख़ोर ही आख़िरी और अकेला मनहूस शख़्स नहीं है।
काश! कोई सारे अमीर-उमरावों, मुल्लाओं और सूदख़ोरों को एक ही बोरे में बन्द करके शेख तुरखान के पाक तालाब में डुबा देता! तब उनकी बदबू दरख़्तों पर खिलते फूलों को मुरझा न देती। तब चिड़ियों की चहचहाहट उनकी दौलत की खनक, झूठी नसीहतों और तलवारों की झनझनाहट में न खो जाती। तब इन्सान दुनिया की ख़ूबसूरती का लुत्फ़ लूटने के लिए आज़ाद होते। वे अपने सबसे अहम फ़र्ज़- हर चीज़ में और हर वक़्त ख़ुश रहने के फ़र्ज़- को पूरा करने को आज़ाद होते!
इस बीच सिपाहियों ने वक़्त की कमी पूरी करने के लिए तेज़ी से क़दम बढ़ाये। आख़िरकार वे दौड़ने लगे। बोरे में धक्के और हिचकोले खाता सूद-ख़ोर इत्मिनान से इस अ’जीबोग़रीब सफ़र के ख़ात्मे का इंतिज़ार कर रहा था। सिपाहियों के हथियारों की झनझनाहट और उनके बूटों के नीचे पत्थरों की खड़क सुनता हुआ वह सोच रहा था कि क्यों ये ताक़तवर जिन उड़ नहीं पड़ते, क्यों ये अपने तांबे के परों को ज़मीन पर रगड़ते हुए मुर्ग़ै की तरह दौड़ रहे हैं।
आख़िर दूर से पहाड़ी झरने की-सी आवाज़ सुनाई दी। सूद-ख़ोर ने समझा कि जिन उसे पहाड़ों-शायद अपने रहने की जगह, रूहों की चोटी, ख़ान तेंगरी- पर ले आये हैं। लेकिन जल्द ही उसे इन्सानों की आवाज़ें सुनायी देने लगीं। वह समझ गया कि बड़ी ता’दाद में आदमियों की भीड़ जमा’ है। शोर-शराबे से उले लगा कि यहां हज़ारों आदमी इकट्ठे हैं- बाज़ार की तरह। लेकिन बुख़ारा में रात में बाज़ार लगते किसने सुना था?
यकायक उसे लगा कि वह ऊपर उठ रहा है। तो जिनों ने आख़िरकार हवा में उड़ने का फ़ैसला कर लिया? उसे मा’लूम ही कैसे हो सकता था कि सिपाही बोरे को तख़्ते पर पहुंचाने के लिए सीढ़ियां चढ़ रहे है? ऊपर पहुंचकर उन्होंने बोरे को पटक दिया।
बोरे के बोझ से तख़्ता हिला और चरमराया। सूद-ख़ोर कराह उठा।
अरे ओ जिन्नो! उसने चिल्लाकर कहा। अगर तुम ने बोरे को इस तरह पटकना शुरू किया तो इलाज होना तो दरकिनार, मेरे हाथ-पांव टूट जायेंगे।
जवाब में एक ज़ोरदार ठोकर लगी।
पाक तुरख़ान तालाब की तह में बहुत जल्द तेरा इलाज हो जायगा, हरामज़ादे! किसी ने कहा। सूद-ख़ोर यकायक घबरा उठा। पाक तुरख़ान के तालाब का इस इलाज में क्या वास्ता? और, जब उसे अपने पास ही अपने पुराने दोस्त- वह क़सम खा सकता था कि यह वही है- महल के पहरेदार और फ़ौज के सिपहसालार अर्सलां बेग की आवाज़ सुनाई दी तो उसकी घबराहट तअ’ज्जुब में बदल गयी। उस का दिमाग़ चक्कर खाने लगा। अर्सलां बेग यहां कैसे नमूदार हुआ? वह जिन्नों को रास्ते में देर करने के लिए डांट क्यों रहा था। जिन्न क्यों जवाब देते डर से कांपते मा’लूम होते थे? यह तो ग़ैर-मुमकिन था कि अर्सलां बेग जिन्नात का भी सिपहसालार हो? वह क्या करे? ख़ामोश रहे या अर्सलां बेग को पुकारे? और चूंकि सूद-ख़ोर को इस सिलसिले में कोई हिदायत नहीं मिली थी, इसलिए उसने ख़ुद की कुछ सोचने का फ़ैसला किया। भीड़ का शोरग़ुल बढ़ता जा रहा था। एक लफ़्ज़ आम शोरग़ुल से भी ज़ियादा तेज़ और ऊंचा सुनाई दे रहा था। मा’लूम होता था कि ज़मीन और आसमान सब जगह से इसी लफ़्ज़ की सदा उठ रही थी। यह लफ़्ज़ भनभनाता था, गूंजता था, गरजता था- और दूर जाती गूंजों में ख़त्म हो जाता था। सूद-ख़ोर सांस रोक कर इस लफ़्ज़ को सुनने की कोशिश करने लगा। आख़िर यह लफ़्ज़ उसकी समझ में आया।
ख़ोजा नसरुद्दीन!
भीड़ में हज़ारों गलों से यही आवाज़ निकल रही थीः
ख़ोजा नसरुद्दीन! ख़ोजा नसरुद्दीन!!
यकायक सन्नाटा छा गया। इस ख़ौफ़नाक सन्नाटे में सूद-ख़ोर को मशअ'लों की सिसकारी, हवा की सरसराहट और पानी की आवाज़ सुनाई दी। उसकी टेढ़ी रीढ़ में कंपकंपी दौड़ गयी। भयनाक ख़ौफ़ ने उसे अपने बर्फ़ीले पंजों में जकड़ लिया।
तभी उसे एक दूसरी आवाज़ सुनाई दी। सूद-ख़ोर क़सम खा सकता था कि यह आवाज़ आला वज़ीर बख़्तियार की हैः
अलहमदुलिल्लाह! मेरे और रहम दिल, सूरज के मानिन्द, बुख़ारा के हमारे अमीर के हुक्म से कुफ़्र फैलानेवाला मलऊन बद-मआ’श, अमन में ख़लल डालने और फूट फैलानेवाला ख़ोजा नसरुद्दीन इस बोरे में बन्द करके तालाब में डुबाया जा रहा है।
चन्द हाथों ने बोरे को पकड़कर ऊपर उठाया।
अब सूद-ख़ोर को असली हालत का पता चला।
ठहरो ! ठहरो! वह चिल्लाया। यह क्या कर रहे हो तुम लोग? ठहरो! ठहरो! मैं ख़ोजा नसरुद्दीन नहीं हूं। मैं सूद-ख़ोर जाफऱ हूं। छोड़ दो मुझे! अरे मैं सूद-ख़ोर जाफ़र हूं, ख़ोजा नसरुद्दीन नहीं। कहां ले जा रहे हो मुझे ? मैं सच कहता हूं, मैं सूद-ख़ोर जाफ़र हूं!
अमीर और उनके दरबारी ख़ामोशी से उसकी चींख़-पुकार सुनते रहे। बग़दाद के आलिम मौलाना हुसैन ने, जो अमीर के सबसे क़रीब बैठे थे, परेशानी से अपना सर हिलाते हुए कहाः
इस बद-मआ’श की बेशर्मी की हद नहीं। देखिए न, एक वक़्त इसने अपने को बग़दाद का आलिम मौलाना हुसैन बताया और अब यह चाहता है कि हम इसे सूद-ख़ोर जाफ़र मान लें।
वह सोचता है कि यहां सब बे-वक़ूफ़ बैठे हैं और वे उसकी बात का यक़ीन कर लेंगे, अर्सलां बेग ने कहा, सुनिए न, कितनी चालाकी से इसने अपनी आवाज़ बदल ली है।
मुझे छोड़ दो ! छोड़ दो मुझे! मैं ख़ोजा नसरुद्दीन नहीं हूं। मैं जाफ़र हूं, जाफ़र। तख़्ते पर किनारे खड़े कुछ सिपाहियों ने बोरे को इधर-उधर झुलाया। मैं ख़ोजा नसरुद्दीन नहीं हूं! अरे मैं...इसी लम्हे अर्सलां बेग ने इशारा किया और हवा में टेढ़ा-मेढ़ा झूलता बोरा उछला। एक ज़ोरदार छपाक के साथ वह तालाब में गिरा और मिशअलें की तेज़ सुर्ख़ रौशनी में पानी के छींटे चमक उठे। सूद-ख़ोर जाफ़र के गुनहगार जिस्म और गुनहगार रूह को पानी ने अपने नीचे दबा लिया।
भीड़ में से एक गहरी सर्द आह उठी और रात के अंधेरे में सनसनाती रही। कुछ लम्हों तक डरावना सन्नाटा रहा। फिर, दिल को हिला देनेवाली एक वहशियाना चींख़ ने ख़ामोशी तोड़ दी। यह चींख़ थी हसीन गुलजान की जो अपने बुजुर्ग वालिद की बाहों में रो और तड़प रही थी। चायख़ाने का मालिक अली सिर थामकर बैठ गया। यूसुफ़ लुहार कांपने लगा, मानो उसे जूड़ी चढ़ आयी हो।
।। 11 ।।
तालाब पर काम पूरा हो चुकने के बाद अमीर अपने दरबारियों के साथ महल को लौट आये। इस बात का ख़तरा भांपकर कि मुजरिम के पूरी तौर पर डूब चुकने से पहले ही उसे बचाने की कोशिश की जा सकती हैं, अर्सलां बेग ने तालाब के चारों तरफ़ पहरेदार तअ’ईनात कर दिये थे और हुक्म जारी कर दिया था कि कोई भी तालाब के किनारे न फटकने पाये। भीड़ कुछ आगे बढ़ी, लेकिन पहरेदारों के सामने पहुंचकर डग़मगायी, पीछे हटी, फिर ग़ुस्से में एक बड़ी और काली दीवार के मानिन्द खड़ी हो गयी। अर्सलां बेग ने भीड़ को तितर-बितर करने की कोशिश की, मगर लोग वहां से दूसरी जगह हट गये, अंधेरे में छिप गये, और थोड़ी देर बार फिर उसी जगह आ खड़े हुए। महल में ख़ुशी के नगाड़े बज उठे। अमीर ने दुश्मन पर फ़तह का जनून मनाया। सोना और चांदी चकाचौंध फैला रहे थे।
केतलियां उबल रही थीं। अंगीठियां सुलग रही थीं। तम्बूरे झनक रहे थे। नगाड़े गरज रहे थे, जिस से हवा कांप रही थी। दा’वत के लिए इतनी रौशनी की गयी थी कि लगता था, महल में आग लग गयी है।
लेकिन महल के इर्द-गिर्द बसे शहर में सन्नाटा था। उसने अंधेरे का और उदास ख़ामोशी का कफ़न ओढ़ रखा था। अमीर ने उस दिन बड़ी फ़य्याज़ी से इनआ’म बांटे। बहुतों को बख़्शिशें मिलीं। क़सीदे गाते-गाते शायरों के गले पड़ गये। बार-बार झुक कर सोने-चांदी के सिक्के बटोरनेवालों की पीठों में हल्का दर्द पैदा हो गया।
मुहर्रिर को बुलाया जाय! अमीर ने हुक्म दिया।
मुहर्रिर दौड़ा हुआ आया और तेज़ी से नेज़े की क़लम घसीटने लगाः
बुख़ारा के सुल्तान और कानूनसाज़, सूरज को अपनी रौशनी से ढंक लेनेवाले अज़ीमुश्शान अमीर की तरफ़ से सूरज को अपनी रोशनी से ढंक लेनेवाले, ख़ीवा के अज़ीमुश्शान ख़ान को सलाम के ग़ुलाम और दोस्ती की लिली कुबूल हों। अपने प्यारे शाही भाई को हम एक ऐसी इत्तिला देते हैं जिस की ख़ुशी के जोश से उनका दिल भड़क उठेगा और मन को तस्कीन होगी।
वह ख़ुश-ख़बरी यह है कि आज, सफ़र के महीने की सत्रहवीं तारीख़ को, बुख़ारा के अमीर-ए-आज़म, माबदौलत, ने सारी दुनिया में कुफ़्र और नापाक कारनामों के लिए बदनाम बद-मआ’श ख़ोजा नसरुद्दीन को- अल्लाह की उस पर मार-सर-ए-आम मौत की सज़ा दी। हम ने अपने सामने, अपनी आंखों के सामने, एक बोरे में बन्द कर के और डुबाकर उसे मौत की सज़ा दी। इसलिए अपने शाही बयान की हम तसदीक़ करते हैं कि अमन में ख़लल डालने वाला, बद-मआ’श, फूट फैलाने और बग़ावत करनेवाला यह काफ़िर अब ज़िन्दा लोगों में शामिल नहीं है और अपनी नापाक हरकतों से हमारे प्यारे भाई को आइन्दा परेशान न कर सकेगा।
इसी क़िस्म के ख़त बग़दाद के ख़लीफ़ा, तुर्की के सुल्तान, ईरान के शाह, कोक़न्द के ख़ान, अफ़ग़ानिस्तान के अमीर और पास और दूर के सभी मुल्कों के हुक्मरानों के नाम लिखवाये गये। वज़ीर बख़्तियार ने ख़तों का ख़रीता बनाया, शाही मुहर लगायी और क़ासिदों को फ़ौरन रवाना होने का हुक्म देकर ख़त रवाना कर दिये। उस रात चरमराते और ज़ोर की आवाज़ करते बुख़ारा के ग्यारहों फाटक खुल गये और क़ासिद ख़ीवा, तेहरान, इस्तम्बूल, बग़दाद, काबुल और दूसरे शहरों को दौड़ पड़े। उनके घोड़ों की टापों से पत्थर तितर-बितर हो रहे थे, नालों की रगड़ खाकर पत्थरों से चिनगारियां निकल रही थीं। ...आधी रात के सन्नाटे में, तालाब में बोरा फेंके जाने के चार घंटे बाद, अर्सलां बेग ने तालाब पर से पहरा हटा लिया।
वह कोई भी क्यों न हो- ख़ुद शैतान ही क्यों न हो- चार घंटे पानी में रहने के बाद ज़िन्दा नहीं बच सकता। अर्सलां बेग ने कहा। अब उसे निकालने की ज़रूरत नहीं। जिस किसी की तबियत चाहे, उसकी बदबूदार लाश निकाल सकता है।
रात के अंधेरे में जैसे ही आख़िरी पहरेदार ग़ायब हुआ, शोर मचाती भीड़ फिर किनारे की तरफ़ बढ चली। मिशअलें, जो पहले से ही तैयार कर रखी गयी थीं और नज़दीक की झाड़ियों में छिपा दी गयी थीं, जला ली गयीं। ख़ोजा नसरुद्दीन की क़िस्मत पर मरसिया पढ़ती औरतें मातम करने लगीं।
हमें चाहिए कि हम उसे दीनदार मुसलमान की तरह दफ़नाएं! बूढ़े नियाज़ ने कहा। उस के कन्धों पर सहारा लिये, सकते की हालत में खड़ी गुलजान, ख़ामोश थी।
अपने-अपने हाथों में कटिया लिये चायख़ाने का मालिक अली और युसूफ़ लुहार पानी में कूद पड़े। वे दोनों काफ़ी देर तक तलाश करते रहे। उन्होंने बोरे को पकड़ लिया और कटिया में फंसाकर किनारे घसीट लाये। काला, मिशअलें की रौशनी में चमकता और पतवार में लिपटा बोरा जब सतह पर आया तो औरतों ने और ज़ोर से सियापा किया। महल से उठती जश्न की आवाज़ें इसमें डूब गयीं।
दर्जनों हाथ एक साथ उठे और बोरे को उठा लिया।
मेरे पीछे आओ! यूसुफ़ ने मशअ’ल की रौशनी से रास्ता दिखाते हुए कहा।
एक बड़े से दरख़्त के नीचे बोरा रख दिया गया। लोग उसे घेर कर ख़ामोशी से खड़ हो गये। यूसुफ़ ने एक चाकू निकाला, होश्यारी से बोरे को लम्बाई में काटा, लाश के चेहरे पर एक नज़र डाली और चौंक कर पीछे हट गया। वह मानो पत्थर बन गया था। उसकी आंखे बाहर निकली पड़ती थीं। ज़ुबान से बोल नहीं फूट रहा था।
यूसुफ़ की मदद के लिए दौड़कर अली उस के पास पहुंचा। लेकिन उसकी भी वही हालत हुई। अली ज़मीन पर बैठ गया, एक नज़र लाश पर डाली और यकायक पीठ के बल गिर पड़ा। उसकी तोंद आसमान की तरफ़ उठी थी।
क्या हुआ ? क्या हुआ? क्या माजरा है? भीड़ में से आवाज़ें उठीं। हमें भी देखने दो, भाई! हटो, हटो! हम भी देखें!
रोती हुई गुलजान लाश के ऊपर झुक कर दो ज़ानू बैठ गयी। लेकिन जैसे ही किसी ने लाश की तरफ़ मशअ’ल बढ़ाई, वह डर और तअ’ज्जुब से पीछे हट गयी।
मिशअलें लिये आदमी चारों तरफ़ जमा थे। तालाब का किनारा रौशन हो उठा था। बहुत सी आवाज़ें एक साथ निकलीं और रात का सन्नाटा तोड़ दियाः
जाफ़र!
यह तो सूद-ख़ोर जाफ़र है!
जाफ़र, जाफ़र! यह ख़ोजा नसरुद्दीन नहीं! यह तो सूद-ख़ोर जाफ़र है!
तअ’ज्जुब और सकते के पहले चन्द लम्हे गुज़र चुके थे। अब हर शख़्स शोर मचाने, चिल्लाने और धक्कम-धुक्की करने लगा।
लोग एक दूसरे के कन्धों पर से उझक-उझक कर देखने की कोशिश करने लगे। गुलजान की हालत कुछ ऐसी हो गयी थी कि बूढ़ा नियाज़ डर के मारे उसे किनारे से दूर हटा ले गया। उसे डर था कि गुलजान का दिमाग़ न फिर जाय। शक और यक़ीन के बीच डग़मगाती वह कभी हंसती और कभी चिल्ला उठती। एक आख़िरी नज़र डालने के लिए वह लाश की तरफ़ दौड़ पड़ती।
जाफ़र! जाफ़र! की ख़ुशी की आवाजें इतने ज़ोर से उठीं कि शाही जश्न की आवाजें फीकी पड़ गयीं। यह सूद-ख़ोर जाफ़र है!
क़सम से, यह जाफ़र है! यह देखो! यह रहा उसका बटुआ, मआ’ रसीदों के!
काफ़ी वक़्त गुज़र जाने के बाद, जब एक शख़्स के होश-हवास दुरुस्त हुए, तो उसने भीड़ की तरफ़ मुख़ातिब होकर पूछाः
लेकिन, ख़ोजा नसरुद्दीन कहां है?
फ़ौरन यही सवाल सब की ज़बानों पर दौड़ने लगा। एक चिल्लाहट मच गयीः
ख़ोजा नसरुद्दीन कहां है?
हमारा प्यारा ख़ोजा नसरुद्दीन कहां है?
हां, हां, हमारा ख़ोजा नसरुद्दीन कहां है?
यहां है ख़ोजा नसरुद्दीन! एक जानी-पहचानी आवाज़ ने जवाब दिया। सब ने तअ’ज्जुब से घूमकर देखा तो जीता-जागता ख़ोजा नसरुद्दीन सामने नज़र आया। बिना पहरेदारों के, बड़े आराम से जम्हाई और अंगड़ाई लेता हुआ, वह भीड़ की तरफ़ आ रहा था। क़ब्रिस्तान के पास ही उसे नींद आ गयी थी। इसी वजह से उसे आने में देर हो गयी थी।
लो, यह रहा ख़ोजा नसरुद्दीन! वह बोला। जो कोई मुझ से मिलना चाहता हो- यहां आ जाये। ऐ बुख़ारा के शरीफ़ बाशिन्दों! तुम सब तालाब पर क्यों जमा हुए हो और यहां क्या कर रहे हो?
क्या कर रहे हैं? तुम पूछते हो हम यहां क्या कर रहे हैं? सैकड़ों आवाज़ों ने जवाब दिया। ऐ ख़ोजा नसरुद्दीन! हम लोग तो यहां तुम को अलविदा’अ कहने आये थे, तुम्हारा मातम करने और तुम्हें दफ़नाने आये थे।
मुझे दफ़नाने? उसने पूछाः बुख़ारा के बाशिन्दों! क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि ख़ोजा नसरुद्दीन का मरने का वक़्त अभी नहीं आया, कि अभी भी उस का मरने का इरादा नहीं है। क़ब्रिस्तान के पास तो मैं आराम करने के लिए लेट गया था। तुम लोग समझ बैठे कि मैं मर गया हूं?
वह इतना ही कह पाया था कि चायख़ाने का मालिक अली और यूसुफ़ लुहार ख़ुशी से चिल्लाते हुए उस पर टूट पड़े, उन्होंने भींच कर उसे अध मरा कर दिया। नियाज़ भी लड़खड़ाता हुआ आगे बढ़ा, मगर भीड़ का धक्का खा कर एक तरफ़ जा गिरा। ख़ोजा नसरुद्दीन ने अपने को एक बड़ी भीड़ से घिरा पाया। हर आदमी उस से गले मिलना और उस का इस्तिक़बाल करना चाहता था। और वह? वह एक-एक से गले मिलता और ठीक उस जगह की तरफ़ बढ़ रहा था जहां उसे गुलजान की बेताब और नाराज़ आवाज़ सुनायी दे रही थी। और, आख़िर जब दोनों एक दूसरे के रूबरू हुए तो गुलजान ने उस के गले में बांहें डाले दीं।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने उस का नक़ाब उलट दिया, और इतने लोगो के बीच, बेधड़क उस का बोसा लिया। तो भी, वहां मौजूद लोगों में से किसी को भी, यहां तक कि तहज़ीब और क़ायदों के बड़े से बड़े हिमायतियों को भी, इस में कोई बेजा या क़ाबिल-ए-एतराज बात नहीं दिखाई दी।
लोगों को ख़ामोश करने और उन्हें अपनी तरफ़ मुख़ातिब करने के लिए ख़ोजा नसरुद्दीन ने हाथ उठाया।
तुम लोग मेरा मातम करने के लिए यहां जमा हुए थे ? बुख़ारा के शरीफ़ बाशिन्दों! क्या तुम नहीं जानते कि मैं नहीं मर सकता? क्या तुम नहीं जानते कि
मैं ख़ोजा नसरुद्दीन, मियां!
आज़ाद हमेशा रहा किया!
यह झूठ न कोई बकता हूं,
मैं कभी नहीं मर सकता हूं!
सिसकारती मिशअलें की चकाचौंध में खड़ा वह गा रहा था। भीड़ ने भी जब इन कड़ियों को दोहराना शुरू किया तो इस गाने ने रात के अंधेरे में डूबे बुख़ारा को गुंजा दियाः
मैं ख़ोजा नसरुद्दीन मियां!
आज़ाद हमेशा रहा किया!
यह झूठ न कोई बकता हूं,
मैं कभी नहीं मर सकता हूं!
इस ख़ुशी से महल की ख़ुशी का मुक़ाबला ही क्या?
अरे यह तो बताओ ख़ोजा नसरुद्दीन, कोई चिल्लाया, कि तुम ने अपनी जगह सूद-ख़ोर जाफ़र को कैसे डुबोया।
आहा ! यकायक ख़ोजा नसरुद्दीन को याद आया। यूसुफ़ भाई! तुम्हें मेरी क़सम याद है?
ज़रूर याद है, यूसुफ़ ने जवाब दिया, और तुम ने उसे पूरा कर दिखाया, ख़ोजा नसरुद्दीन
वह है कहां ? ख़ोजा नसरुद्दीन ने पूछा। सूद-ख़ोर कहां है? क्या तुम ने उसका बटुआ लिया?
नहीं ! हम ने तो उसे छुआ तक नहीं।
अरे... रे-रे! ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहा। बुख़ारा के शरीफ़ बाशिन्दो! शराफ़त और नेक ख़याल तो तुम्हें फ़य्याज़ी से मिले, लेकिन मा’मूली अक़्ल कम मिली है! क्या तुम लोग नहीं जानते कि यह बटुआ सूद-ख़ोर के वारिसों को मिल गया तो वे पाई-पाई क़र्ज़ चुका लेंगे? लाओ, फ़ौरन उसका बटुआ मुझे दो।
शोर मचाते, धक्कम-धुक्की करते, बीसों आदमी ख़ोजा नसरुद्दीन के हुक्म की तामील करने दौड़ पड़े। वे बटुआ ले आये और ख़ोजा नसरुद्दीन को दे दिया। उसने बटुआ से यूं ही एक रसीद निकालीः
मुहम्मद ज़ीनसाज़ ! कहां है मुहम्मद ज़ीनसाज़? सामने आये।
मैं हूं मुहम्मद ज़ीनसाज़! एक पतली कांपती आवाज़ ने जवाब दिया। भीड़ से एक नाटा-सा बूढ़ा निकला जिस के कुच्ची दाढ़ी थी और जिस की रंगीन ख़िलअ’त तार-तार हो रही थी।
मुहम्मद ज़ीनसाज़! इस रसीद के मुताबिक़ तुम्हें कल पांच सौ तंके अदा करने है। लेकिन मैं, ख़ोजा नसरुद्दीन, तुम्हारा क़र्ज़ मंसूख़ करता हूं। इस रक़म को तुम अपनी ज़रूरतों पर ख़र्च करो। अपने लिए तुम एक नयी ख़िलअ’त ख़रीदो। तुम्हारी यह ख़िलअ’त रुई का पका खेत मा’लूम होती है, इस में हर तरफ़ से रुई निकल रही है।
यह कह कर उसने एक मशअ’ल ली और काग़ज़ को उस की लपट के हवाले कर दिया। बाक़ी रसीदों के साथ भी ख़ोजा नसरुद्दीन ने यही किया। काग़ज़ों की लपट ने उन लोगों के दिलों में बड़े से बड़े अलाव से भी ज़ियादा गर्मी पैदा कर दी। अपनी ज़िन्दगी में ये लोग पहली बार आज़ाद हुए थे, क्योंकि बहुत से लोगों को यह क़र्ज़ बाप-दादों से विरासत में मिला था और जवानी से ही ये लोग जाफ़र की क़ैद में थे- कुछ तो बीस साल से भी ज़ियादा वक़्त से उसके चंगुल में थे।
जब आख़िरी रसीद जल चुकी तो ख़ोजा नसरुद्दीन ने ख़ाली थैले को तालाब में फेंक दिया।
अब यह हमेशा के लिए तालाब की तह में पड़ा रहेगा। वह बोला। कोई शख़्स इसे अपने कन्धे से न लटकाये। ऐ बुख़ारा के नेक बाशिन्दों! किसी भी शख़्स के लिए ऐसा बटुआ लेकर चलने से ज़ियादा मनहूस बात दूसरी नहीं हो सकती। तुम को चाहे कुछ भी क्यों न हो जाय, तुम लोगों में से चाहे कोई दौलतमन्द ही क्यों न बन जाय- हालांकि इस सूरज के मानिन्द सूरज और तेज आंखोंवाले उस के वज़ीरों के रहते इस की कोई उम्मीद नहीं- लेकिन मान लो कि तुम में से कोई कभी अमीर हो ही जाय, तो भी उसे कभी ऐसा बटुआ लेकर न चलना चाहिए, नहीं तो चौदह पुश्तों तक उसकी बदनामी रहेगी! उसे याद रखना चाहिए कि इस दुनिया में एक ख़ोजा नसरुद्दीन भी है, जिस का हाथ बहुत सख़्त और मज़बूत है। तुम लोगों ने ख़ुद देखा है कि सूद-ख़ोर जाफ़र को उसने क्या सज़ा दी है। बुख़ारा शरीफ़ के शहरियो! अब मैं तुम लोगों से रुख़्सत चाहता हूं। लम्बे सफ़र पर रवाना होने का वक़्त आ पहुंचा है। गुलजान, क्या तुम मेरे साथ चलोगी?
तुम जहां जाओगे, तुम्हारे साथ चलूंगी। वह बोली।
बुख़ारा के बाशिन्दों ने ख़ोजा नसरुद्दीन को बड़ी शान-शौकत से रुख़्सत किया। सरायों के मालिकों ने उसकी बीवी के लिए रुई के मानिन्द सफ़ेद एक गधा ला कर दिया- जिस की खाल पर एक भी काला धब्बा नहीं था और जो ख़ोजा नसरुद्दीन की आवारगी के वफ़ादार साथी भूरे गधे के पास खड़ा शान से दुम हिला रहा था। भूरे गधे को भी अपने साथी से कोई रश्क नहीं था। कभी-कभी अपनी थूथनी से वह सफ़ेद गधे को दूर भी हटा देता, मानो यह जताने के लिए कि अनपे हुस्न की चमक के बावजूद सफ़ेद गधा अभी वफ़ादारी में उसके सामने नाचीज़ है।
लुहार अपने औज़ार ले आये और जल्द ही दोनों गधों के नये नाल लगा दिये। ज़ीनसाज़ों ने दो बढ़िया ज़ीनें कस दीः एक मख़मल से सजी-नसरुद्दीन के लिएः दूसरी चांदी से मढ़ी- गुलजान के लिए। चायख़ाने के मालिक ने दो बहुत बहियाया बढ़िया चीनी प्याले और दो बेशक़ीमती चायदानियां दी। छिपिलगरों ने मशहूर गुरदा इस्पात की एक तलवार ख़ोजा नसरुद्दीन को भेंट की, जिस से वह डाकुओं से अपनी हिफ़ाज़त कर सके। क़ालीन बनानेवालों ने ज़ीन पर बिछाने के लिए क़ालीन दिये। रस्से बनानेवाले घोड़े के बालों का रस्सा तैयार कर लाये। इस रस्से में यह सिफत थी कि सोते हुए मुसाफिर के चारों तरफ़ डाल दिया जाय तो ज़हरीले सांप वग़ैरा जानवर उस के कंटीले बालों के ऊपर फिसलने-सरकने की हिम्मत नहीं कर सकते थे और इस तरह मुसाफ़िर को कोई नुक़सान न पहुंचा सकते थे।
जुलाहे, तांबागर, दर्जी, मोची- सभी अपनी-अपनी कारीगरी के तोहफे लाये। मुल्लों, अफसरों और रईसों को छोड़कर, बुख़ारा के सभी बाशिन्दों ने ख़ोजा नसरुद्दीन को सफ़र का सामान मुहैया किया। बेचारे कुम्हार मन मारे अलग खड़े थे। ख़ोजा नसरुद्दीन को देने के लिए उनके पास कुछ नहीं था। भला कोई आदमी मिट्टी के बर्तनों का क्या करता जब कि उस के पास तांबागरों के दिये बर्तन थे?
यकायक सब से बुज़ुर्ग कुम्हार ने, जिस की उम्र सौ साल से भी ज़ियादा थी, ऊंची आवाज़ में कहाः
कौन कहता है कि हम कुम्हारों ने ख़ोजा नसरुद्दीन को कुछ नहीं दिया ? क्या यह हसीन दोशीज़ा, इसकी दुल्हन, गुलजान, कुम्हारों के शरीफ़ और मशहूर ख़ानदान की ही बेटी नहीं है?
कुम्हार ख़ुशी से वाह-वाह! ख़ूब कहा! ख़ूब कहा! कह उठे। सभी ने गुलजान को हिदायत दी कि वह ख़ोजा नसरुद्दीन की वफ़ादार और सच्ची हमराही बने ताकि उसके ख़ानदान के आला नाम और शोहरत को बट्टा न लगे।
सुब्ह होने वाली है, ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहा, थोड़ी देर में ही शहर के फाटक खुल जायेंगे। मेरा और मेरी दुलहन का चुपचाप निकल जाना ज़रुरी है। अगर तुम लोग हमें रुख़्सत करने चले तो पहरेदार समझेंगे कि बुख़ारा की पूरी आबादी कहीं दूसरी जगह बसने के इरादे से शहर छोड़ रही है और तब वे फाटक बन्द कर देंगे और कोई भी बाहर न जाने पायेगा। इसलिए, बुख़ारा के ऐ शरीफ़ बाशिन्दो! तुम लोग अपने-अपने घरों को जाओ! अल्लाह करे तुम्हें चैन की नींद आये और बदक़िस्मती का काला साया कभी तुम्हारे सर न पड़े! तुम्हें कामयाबी हासिल हो। ख़ोजा नसरुद्दीन तुम से रुख़्सत होता है। कब तक के लिए? यह मैं ख़ुद नहीं जानता!
एक बारीक, हल्की-सी, किरन पूरब में फूटी। तालाब पर हल्का-सा कोहरा उठा। भीड़ छंटने लगी। लोग मिशअलें बुझा रहे थे और कह रहे थेः
अल्लाह करे तुम्हारा सफ़र बख़ैरो-खूबी पूरा हो! अपने वतन को न भूल जाना, ख़ोजा नसरुद्दीन!
यूसुफ़ लुहार और चायख़ाने के मालिक अली से रुख़्सत दिल हिला देनेवाली थी। मोटा अली आंसुओं पर क़ाबू न पा रहा था। वे उस के लाल गोल चेहरे को गीला कर रहे थे। फाटक खुलने के वक़्त तक ख़ोजा नसरुद्दीन नियाज़ के मकान में रहा। जैसे ही शहर के ऊपर मोअज़्ज़िन की ग़मज़दा आवाज़ गूंजी, ख़ोजा नसरुद्दीन और गुलजान अपनी मंज़िल पर रवाना हो गये। बूढ़ा नियाज़ उनके साथ सब से क़रीब के कोने तक गया ख़ोजा नसरुद्दीन उसे और आगे नहीं जाने देना चाहता था। वह बेचारा वहीं खड़ा आंसुओं के पर्दे से उन्हें तब तक देखता रहा, जब तक मोड़ पर दोनों ग़ायब न हो गये! सुब्ह की हल्की हवा उठी और बड़े क़रीने से सड़क साफ़ करती हुई सारे सुराग़ मिटा चली।
नियाज़ दौड़ कर घर वापस पहुंचा। वह छत पर चढ़ गया। वहां से शहर की दीवार के पार दूर तक देखा जा सकता था। वह बड़ी देर तक वहां खड़ा देख़ता रहा। अपनी बूढ़ी आंखों से देर तक वह सूरज से तपी, मटमैली पहाड़ियों को ताकता रहा, जिन में हो कर बल खाती सड़क, भूरे पीते की तरह दूर तक फैली हुई थी। वह देख रहा था और बराबर आंसू पोंछता जा रहा था जो उस की कोशिशों के बावजूद रुकने का नम नहीं लेते थे।उस ने इतनी देर तक इंतिज़ार किया कि उसे फ़िक्र होने लगी। वह सोचने लगा- कहीं ख़ोजा नसरुद्दीन और गुलजान सिपाहियों के हाथ में तो नहीं पड़ गये।
आख़िरकार उसे बहुत दूर दो छोटे-छोटे नुक़्ते-से दिखायी दिये... एक भूरा और एक सफ़ेद। ये नुक़्ते दूर हो कर धीरे-धीरे छोटे होते गये। कुछ देर बाद भूरा नुक़्ता पहाड़ियों में कहीं घुल-मिल गया। सिर्फ़ सफ़ेद नुक़्ता बहुत देर तक दिखायी देता रहा... कभी वह पहाड़ी सलवटों में गुम हो जाता और कभी फिर दिखायी देने लगता। आख़िर, वह भी गर्म धुंध में ग़ायब हो गया।
पहला पहर बीत रहा था। गर्मी बढ़ रही थी। इस गर्मी से बेख़बर, बूढ़ा नियाज़ बहुत देर तक छत पर उदास खड़ा रहा। सफ़ेद बालों से भरा उस का सर कांपने लगता और गला रुंध जाता। अपनी बेटी और ख़ोजा नसरुद्दीन से उसे कोई शिकायत नहीं थी। उन के लिए वह हर ख़ुशी और आराम की दुआ कर रहा था। उसे अफ़्सोस था तो अपने लिए। उस का घर सूना हो गया।
बुढ़ापे के अकेलेपन में अब उस के घर में ख़ुशी के गानों और हंसी से ज़िन्दगी भर देने के लिए कोई नहीं था। गर्म हवा उठी और अंगूर की बेलों में सरसराती हुई धूल उड़ाने लगी। छत पर सूखते बर्तनों में हवा बज उठी। ऐसी पतली और आजीज़ी भरी आवाज़ उन बर्तनों से निकल रही थी मानो वे रुख़्सत होने वालों के विछोह में अफ़्सोस मना रहे हों।
यकायक अपने पीछे कोई आवाज़ सुनकर नियाज़ होश में आया। उसने पीछे घूमकर देखा। पड़ोस में रहनेवाले तीन भाई एक-एक कर सीढ़िया चढ़ रहे थे। ये तीनों कुम्हार तन्दुरुस्त, क़द्दावर और ख़ूबसूरत भाई थे। नियाज़ के पास पहुंच कर वे अदब से झुकेः
नियाज़ साहब, सबसे बड़ा भाई बोला, आप की बेटी ख़ोजा नसरुद्दीन के साथ चली गयी। लेकिन इसका आप को ग़म या अफ़्सोस नहीं होना चाहिए, क्योंकि दुनिया का यही रहन है। हिरनी हिरन के बिना नहीं रह सकती। गाय सांड़ के बिना नहीं रह सकती और बत्तख़ अपने नर के बिना नहीं रह सकती। फिर भला कोई हसीन दोशीज़ा एक सच्चे और वफ़ादार साथी के बिना कैसे रह सकती है? अल्लाह ने मख़्लूक़ को जोड़ों से बनाया है जो यहां दुनिया में रहते हैं। उस ने घास तक में नर और मादा के जोड़े बनाये है।
लेकिन आप का बुढ़ापा ग़म में न कटे, नियाज़ साहब, इस के लिए हम तीनों भाइयों ने एक फ़ैसला किया है जो आपसे कहने आये है। अब सुनिएः जो ख़ोजा नसरुद्दीन का रिश्तेदार है, वह बुख़ारा के शहरियों का रिश्तेदार है, और, इस तरह, नियाज़ साहब, आप हमारे रिश्तेदार हैं। आप जानते ही है कि पिछले साल आप के दोस्त और हमारे अज़ीज़ वालिद मरहूम मुहम्मद अली साहब को हमने रोत-बिलखते दफ़नाया था। और अब हमारे घर के अलाव के पास ख़ानदान के बुज़ुर्ग की जगह ख़ाली है। रोज़ाना इज़्ज़त से सफ़ेद दाढ़ी देखने की ख़ुशी से हम महरूम हैं और सफ़ेद दाढ़ी के बिना- जैसे कि मा’सूम बच्चे की किलकारी के बिना- घर सूना रहता है। किसी भी इंसान की रूह को तभी तस्कीन हासिल होती है जब उस के एक तरफ़ उस बुज़ुर्ग की सफ़ेद दाढ़ी हो जिस ने उसे पैदा किया है, और दूसरी तरफ़ पालने में पड़ा वह नन्हा मुन्ना हो, जिसे ख़ुद उसने पैदा किया है।
इसलिए, ऐ नियाज़ साहब, हम आप से इल्तिजा करने आये हैं कि आप हमारे आंसुओं की फ़रियाद सुनें और हमारी बात नामंजूर न करें। अब आप हमारे घर चलें, और हम तीनों के वालिद और हमारे बच्चों के दादा बनें।
उन भाइयों ने इतनी ज़िद पकड़ी कि नियाज़ से इनकार नहीं करते बना। नियाज़ उनके ख़ानदान का बाबा बन गया और उसे पूरी इज़्ज़त बख़्शी गयी। इस तरह बुढ़ापे में नियाज़ को ईमानदारी और नेक ज़िन्दगी का वह सबसे बड़ा सिला मिला जो इस दुनिया में मुसलमानों के लिए सब से बड़ी नेमत है। वह नियाज़ बाबा बन गया- एक बड़े ख़ानदान का बुज़ुर्ग, जिस के चौदह नाती-पोते थे। अंगूरों और शहतूत के रत से सने गुलाबी गालों के एक के बाद दूसरे जोड़े को देख कर उस की आंखे ख़ुशी से चमक उठतीं। अब कभी उस के कान ख़ामोशी से परेशान न होते थे, यहां तक कि कभी-कभी तो इस शोरग़ुल से घबरा कर वह अपने पुराने मकान में आराम करने चला जाता और उन दोनों की याद में खो जाता जो उस के दिल के इतने नज़दीक थे और अब इतनी दूर चले गये थे- न जाने कहां।
बाज़ार के दिन नियाज़ बाज़ार जाता और दुनिया के कोने-कोने से बुख़ारा आये काफ़िलों के सरदारों से पूछता कि क्या उन्होंने सड़क पर दो मुसाफ़िरों को देखा है- एक मर्द, जो भूरे गधे पर सवार था, और एक औरत- जो ऐसे सफ़ेद गधे पर सवार थी जिस के एक भी काला धब्बा नहीं? ऊंटवान धूप से तपे माथों पर शिकन डालकर थोड़ी देर सोचते फिर सर हिलाकर इन्कार कर देतेः नहीं, उन्हों ने ऐसे मुसाफ़िर नहीं देखे थे। हमेशा की तरह ख़ोजा नसरुद्दीन बिल्कुल लापता हो गया था... हमेशा की तरह किसी ऐसी जगह नमूदार होने के लिए जहां उस की क़तई उम्मीद नहीं थी...।
।। आख़िरी मंज़िल ।।
जो एक नये सफ़र की पहली मंज़िल बन सकती है
मैं ने सात सफ़र किये और हर सफ़र एक ऐसा अचम्भा है जो दिमाग़ को परेशान किये रहता है।- सिंदबाद जहाज़ी
और वह वहां जा पहुंचा जहां उ सकी क़तई उमीद नहीं थी। वह इस्तम्बूल में नमूदार हुआ। यह हुआ अमीर का ख़त सुल्तान को मिलने के तीसरे दिन। हज़ारों नक़ीब इस शानदार बन्दरगाह के गांवों व शहरों में जा कर ख़ोजा नसरुद्दीन की मौत का ऐलान कर रहे थे। मस्जिदों में मुल्ला अमीर का ख़त पढ़ते और सुब्ह-शाम दो बार अल्लाह का शुक्र अदा करते।
महल के बाग़ में, फ़व्वारों की नम फुहारों से सने चिनारों के साये में, सुल्तान जश्न मना रहे थे। उन के चारों तरफ़ वज़ीरों, आलिमों, शायरों व दूसरे मुसाहिबों की भीड़ थी, जो बख़्शिश और इनआ’म की उमीद में खड़े थे। सुराहियां, हुक़्क़े और गर्म पकवानों से भरी किश्तियां लिये हब्शी भीड़ में घूम रहे थे। सुल्तान आज बहुत ख़ुश थे और चुहुल में थे।
आंखों को दबाते हुए उन्होंने शायरों और आलिमों से पूछाः क्या बात है कि गर्मी के बावजूद हवा में आज ख़ुशबू और ख़ुशगवार नमी है?
इस के जवाब में सुल्तान के हाथ के चमड़े के बटुए को लालची निगाहों से ताकते हुए उन्होंने कहाः हमारे अज़ीमुश्शान
शहंशाह की सांस ने हवा में ख़ुशगवार नमी पैदा कर दी है और उस में ख़ुशबू इसलिए है कि काफ़िर ख़ोजा नसरुद्दीन की नापाक रूह ने सारी दुनिया में ज़हर फैलानेवाली अपनी गन्दी बदबू फैलाना बन्द कर दिया है।
इस्तम्बूल में नेकी और अमन क़ायम रखनेवाला महल के पहरेदारों का सरदार कुछ दूर खड़ा देख रहा था कि सब काम क़ायदे-क़ानून से चल रहा है या नहीं। बुख़ारा के मरतबे के अर्सलां बेग से उस में फ़र्क़ था तो सिर्फ़ इतना कि यह शख़्स अर्सलां बेग से ज़ियादा दुबला-पतला मगर उस से भी ज़ियादा बे-रहम था। उस की ये दोनों ख़ुसूसियतें इतनी जुड़ी-मिली थीं कि इस्तम्बूल के बाशिन्दों ने इन पर बहुत पहले ग़ौर कर लिया था और हर हफ़्ते अगले ग़ुस्ल के दिन महल के नौकरों से पूछते कि सरदार का वज़्न बढ़ा है या घटा। अगर ख़बर उनके मुआफ़िक़ न होती तो महल के पड़ोस के सभी शहरी अपने घरों से तब तक उस के ग़ुस्ल के अगले दिन न निकलते जब तक मजबूर न हो जाते। यही ख़ौफ़नाक शख़्स इस वक़्त सब से अलग खड़ा हुआ था। लम्बी-दुबली गर्दन पर उस का साफ़ेदारसर इस तरह टंगा था, गोया एक बांस पर जड़ दिया गया हो (इस्तम्बूल के बहुत से बाशिन्दे इस तश्बीह को सुनकर चैन की सांस लेते)।
सब कुछ ठीक चल रहा था। दावत बदस्तूर जारी थी। किसी ख़तरे का अन्देशा नहीं था। महल के गुमाश्ते को दरबारियों की भीड़ से बड़ी होश्यारी से सरदार की तरफ़ बढ़ कर उस के कान में कुछ कहते किसी ने भी नहीं देखा। सरदार चौंका।
उस के चेहरे का रंग बदल गया। वह तेज़ी से बाहर निकल गया। चन्द ही मिनटों में वह फिर लौटा। उस का रंग पीला पड़ रहा था। मुंह बराबर चल रहा था, हालांकि आवाज़ नहीं निकल रही थी। कोहनी से दरबारियों को एक तरफ़ हटाता वह सुल्तान के पास पहुंचा और कोर्निश में दोहरा झुक गयाः
ऐ शहंशाह-ए-आज़म! ...
क्यों? अब क्या मुसीबत है? सुल्तान ने चिढ़ कर कहा। क्या आज के दिन भी तुम हवालात और कोड़ों की ख़बर अपने तक नहीं रख सकते? बोलो, क्या बात है?
ऐ संजीदा, ऐ अज़ीमुश्शान सुल्तान! मेरी ज़बान बोलने से इनकार करती है।
सुल्तान ने कुछ परेशान होकर भवें तानीं। सरदार ने फुसफुसाकर कहाः ऐ आक़ा! वह इस्तम्बूल में ही है!
कौन ? सुल्तान ने कड़क कर पूछा, हालांकि वह समझ गये थे कि सरदार किस शख़्स का ज़िक्र कर रहा है।
ख़ोजा नसरुद्दीन!!
यह नाम सरदार ने तो बहुत धीमे से लिया था, लेकिन दरबारियों के कान तेज़ थे। उन्हों ने सुन लिया। महल के पूरे मैदान में कानाफूसी फैल गयी।
खाजा इसरुद्दीन इस्तम्बूल में है!
तुम्हें कैसे मा’लूम? यकायक सुल्तान ने खोखली आवाज़ में पूछा। तुम्हें कैसे मा’लूम? तुम से किसने कहा? यह हो ही कैसे सकता है जब कि बुख़ारा के अमीर का यह ख़त हमारे हाथ में है जिस में उन्होंने शाही यक़ीन दिलाया है कि ख़ोजा सरुद्दीन अब ज़िन्दा नहीं है?
सरदार ने महल के गुमाश्ते को इशारा किया और वह सुल्तान के पास एक शख़्स को ले आया। इस शख़्स की नाक चपटी थी, चेहरा चेचक के दाग़ों से भरा, आंखे पीली व काइयां थीं।
ऐ शहंशाह! सरदार ने कहा। यह शख़्स बुख़ारा के अमीर के दरबार में बहुत दिनों तक जासूस का काम कर चुका है और ख़ोजा नसरुद्दीन को बखूबी पहचानता है। जब यह शख़्स इस्तम्बूल आया तो मैं ने इसे जासूस का काम दे दिया और इसी ओहदे पर यह अब भी…तू ने उसे इस्तम्बूल में देखा ? सुल्तान जासूस की तरफ़ मुड़े और पूछा। तू ने उसे अपनी आंखों से देखा है?
जासूस ने हामी भरी।
शायद तूने ग़लती की है?
जासूस ने यक़ीन दिलाया। नहीं, इस मुआ’मले में वह ग़लती कर ही नहीं सकता था। ख़ोजा नसरुद्दीन के साथ एक औरत भी थी, जो सफ़ेद गधे पर सवार थी।
तू ने उसे वहीं क्यों नहीं पकड़ लिया ? सुल्तान चिल्ला उठे। तूने पकड़ कर सिपाहियों के हवाले क्यों नहीं कर दिया?
घुटनों के बल गिर कर कांपते हुए जासूस ने जवाब दियाः ऐ संजीदा सुल्तान! बुख़ारा में एक मर्तबा में ख़ोजा नसरुद्दीन के हाथों पड़ गया था। अल्लाह की मेहरबानी से ही मेरी जान बची थी। आज सबेरे जब मैं ने उसे इस्तम्बूल की सड़कों पर देखा तो डर के मारे मेरी नज़र धुंधली पड़ गयी। जब तक मेरे होश-हवास दुरुस्त हों तब तक वह ग़ायब हो चुका था।
सिपाहियों के सरदार को घूरते हुए, जो अदब से झुका खड़ा था, सुल्तान चिल्लायेः तो ये है तेरे जासूस ? मुजरिम को देखते ही डर के मारे इनके होश फ़ाख़्ता हो जाते हैं?
ठोकर मार कर सुल्तान ने चेचकरू जासूस को एक तरफ़ हटाया, उठ कर खड़े हुए और आरामगाह की तरफ़ चल दिये। पीछे-पीछे ग़ुलामों की क़तार भी चल पड़ी।
वज़ीर, शायर व आलिम बेचैन भीड़ में से बाहर निकलने के रास्ते की तरफ़ भाग चले। कुछ देर बाद, सरदार को छोड़ कर बाग़ में एक भी शख़्स बाक़ी नहीं रहा। मजबूरी में ख़ाली जगह को घूरता हुआ सरदार फ़व्वारे के संगमरमर के किनारे धम से बैठ गया। बहुत देर तक वहां बैठा वह पानी के हंसने और हौले-हौले उछलने की आवाज़ सुनता रहा। यकायक वह इतना सूख और सिकुड़ गया कि अगर इस्तम्बूल के बाशिन्दे उसे देख पाते तो उन में भगदड़ मच जाती। जूते छोड़ छाड़ वे हर तरफ़ को भाग निकलते।
इस बीच चेचकरू मुख़बिर शहर की गर्म गलियों से भागता हुआ तेज़ी से समुन्दर की तरफ़ जा रहा था। उस की सांस फूल रही थी। वहां उसने एक अरबी जहाज़ देखा, जो रवाना होने ही वाला था। जहाज़ के मालिक को ज़रा भी शक नहीं था कि यह शख़्स कोई भागा हुआ मुजरिम है। उसे जहाज पर ले जाने के लिए उसने बहुत ही ऊंचा किराया तलब किया। मोल-भाव करने के लिए जासूस रुका नहीं। फ़ौरन जहाज़ पर चढ़ गया और एक गन्दे कोने में छिप कर लद से गिर पड़ा।
बाद में जब इस्तम्बूल की पतली मीनारें नीले कोहरे में छिप गयीं और ताज़ी हवा से पल भर गये, वह अपनी पनाह की जगह से निकला, पूरे जहाज़ में घूमा और हर चेहरे को ग़ौर से घूरने लगा। जब उसे यक़ीन हो गया कि ख़ोजा नसरुद्दीन जहाज़ पर नहीं है, तो उस ने चैन की सांस ली। तब से वह चेचकरू जासूस लगातार डर और अन्देशे की ज़िन्दगी काटता रहा। जिस शहर भी वह जाता- बुख़ारा, क़ाहिरा, तेहरान, दमिश्क़- कहीं भी तीन महीने से ज़ियादा चैन से न ठहर पाता, क्योंकि ख़ोजा नसरुद्दीन हर जगह ज़रूर जा पहुंचता और जासूस उस से मुलाक़ात हो जाने के डर से दूर भाग निकलता। यहां ख़ोजा नसरुद्दीन की तश्बीह एक बहुत बड़े तूफ़ान से देना मुनासिब है, जिस की तेज़ सांस के सामने सूखी पत्तियां और घास उखड़ कर लगातार भागा करती हैं। इस तरह दूसरों पर मुसीबतें ढाने का बदला इस चेचकरू जासूस को मिल गया।
दूसरे दिन से ही इस्तम्बूल में अजीबोग़रीब और दिलचस्प वाक़िआत होने लगे।... लेकिन ऐसी बातों का चर्चा नहीं करना चाहिए जो कहनेवाले ने ख़ुद न देखी हों और ऐसे मुल्कों का ज़िक्र न करना चाहिए जहां क़िस्सा कहनेवाला ख़ुद न गया हों। इसलिए इन लफ़्ज़ों से हम अपनी कहानी का आख़िरी हिस्सा ख़त्म करते हैं। कोई होशियार और मेहनती शख़्स इसे ख़ोजा नसरुद्दीन के इस्तम्बूल, बग़दाद, तेहरान, दमिश्क़ और दूसरे मशहूर शहरों के सफ़र की नयी किताब की शुरुआत बना सकता है।
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