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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
सूफ़ी कहानी
तपते बयाबान में एक शैख़ का नमाज़ पढ़ना और अहल-ए-कारवाँ का हैरान रह जाना- दफ़्तर-ए-दोउम
एक चटयल मैदान में एक ज़ाहिद ख़ुदा की इ’बादत में मसरूफ़ था। मुख़्तलिफ़ शहरों से हाजियों
रूमी
ग़ज़ल
हम अहल-ए-इशक़ आसाँ इशक़ की मंज़िल समझते हैंना जब मुश्किल समझते थे ना अब मुश्किल समझते हैं
क़मर जलालवी
ना'त-ओ-मनक़बत
क़िब्ला-ए-अहल-ए-सफ़ा मालिक-ओ-मुख़्तार अ'लीऐ ज़हे सल्ले-अ'ला नाएब-ए-सरकार अ'ली
यादगार शाह वारसी
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ना'त-ओ-मनक़बत
मत्मह-ए-अहल-ए-विला है सूरत-ए-तेग़-ए-अ’लीक़ाबिल-ए-मदह-ओ-सना है सीरत-ए-तेग़-ए-अ’ली
वासिफ़ रज़ा वासिफ़
ना'त-ओ-मनक़बत
नाज़िश-ए-अहल-ए-सुनन मख़दूम-ए-दौराँ आप हैंहामिल-ए-इ’ज़्ज़-ओ-शर्फ़ महबूब-ओ-ज़ीशाँ आप हैं
वासिफ़ रज़ा वासिफ़
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
शाह रा ख़्वाही कि बीनी ख़ाक शो दरगाह राज़े-आबरू आबी ब-ज़न दरगाह-ए-शाहंशाह रा