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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
फ़ारसी कलाम
जहान-ओ-अहल-ए-जहाँ रा ज़े-ज़ात-ए-ऊ रौनक़नगीन-ए-ख़ातम-ए-आ'लम जनाब-ए-मुनइ'म-ए-पाक
शाह मोहसिन दानापुरी
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ना'त-ओ-मनक़बत
जहान-ए-ख़ाक था महरूम साए से तेरे लेकिनरहा अहल-ए-जहाँ के सर पे साया तेरी रहमत का
सूफ़ी तबस्सुम
नज़्म
तल्बा से ख़िताब
बताओ अहल-ए-जहाँ को मआ'नी-ए-ग़म-ए-इ’श्क़हर इक दिल को ग़म ये दे के सोगवार करो
बर्क़ वारसी
ना'त-ओ-मनक़बत
तमाम अहल-ए-जहाँ भर लें झोलियाँ अपनीबढ़ाएँ आप को जो दस्त-ए-करम ग़रीब-नवाज़
डाॅ. ज़ुहूरुल हसन शारिब
ग़ज़ल
हम अहल-ए-इशक़ आसाँ इशक़ की मंज़िल समझते हैंना जब मुश्किल समझते थे ना अब मुश्किल समझते हैं
क़मर जलालवी
ना'त-ओ-मनक़बत
क़िब्ला-ए-अहल-ए-सफ़ा मालिक-ओ-मुख़्तार अ'लीऐ ज़हे सल्ले-अ'ला नाएब-ए-सरकार अ'ली
यादगार शाह वारसी
ना'त-ओ-मनक़बत
मत्मह-ए-अहल-ए-विला है सूरत-ए-तेग़-ए-अ’लीक़ाबिल-ए-मदह-ओ-सना है सीरत-ए-तेग़-ए-अ’ली
वासिफ़ रज़ा वासिफ़
ना'त-ओ-मनक़बत
नाज़िश-ए-अहल-ए-सुनन मख़दूम-ए-दौराँ आप हैंहामिल-ए-इ’ज़्ज़-ओ-शर्फ़ महबूब-ओ-ज़ीशाँ आप हैं