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ग़ज़ल
कूचा-ए-ज़ुल्फ़-ए-सनम में अहल-ए-दिल जाते हैं क्यूँऔर जाते हैं तो दिल सी चीज़ छोड़ आते हैं क्यूँ
आसी गाज़ीपुरी
ग़ज़ल
वहीं पर जाके ठहरा अहल-ए-दिल अहल-ए-दिल का कारवाँ पहलेमोहब्बत ने किसी की ली थी अंगड़ाई जहाँ पहले
महमूद अ’ली सबा
ग़ज़ल
बस-कि ढूँडे अहल-ए-दिल मिल उन से साहब-ए-दिल हुआजब फिरा मैं बरसों तब ये आबला हासिल हुआ
ग़ुलाम अ’ली रासिख़
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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
सूफ़ी कहानी
तपते बयाबान में एक शैख़ का नमाज़ पढ़ना और अहल-ए-कारवाँ का हैरान रह जाना- दफ़्तर-ए-दोउम
एक चटयल मैदान में एक ज़ाहिद ख़ुदा की इ’बादत में मसरूफ़ था। मुख़्तलिफ़ शहरों से हाजियों
रूमी
सूफ़ी लेख
उर्स के दौरान होने वाले तरही मुशायरे की एक झलक
दिल जो दीवाना था अपना फिर सियाना हो गयाअहल-ए-दिल जितने हैं उनका फ़ैज़ जारी है मुदाम
सुमन मिश्र
ग़ज़ल
हम अहल-ए-इशक़ आसाँ इशक़ की मंज़िल समझते हैंना जब मुश्किल समझते थे ना अब मुश्किल समझते हैं
क़मर जलालवी
ना'त-ओ-मनक़बत
क़िब्ला-ए-अहल-ए-सफ़ा मालिक-ओ-मुख़्तार अ'लीऐ ज़हे सल्ले-अ'ला नाएब-ए-सरकार अ'ली
यादगार शाह वारसी
सूफ़ी लेख
उ’र्फ़ी हिन्दी ज़बान में - मक़्बूल हुसैन अहमदपुरी
2۔ फ़ुग़ाँ न शेव:-ए-अहल-ए-दिल अस्त ऐ बुल्बुलव-गर्ना मन ज़े-तू अफ़्ज़ूँ ख़रोश मी-कर्दम
ज़माना
ना'त-ओ-मनक़बत
मत्मह-ए-अहल-ए-विला है सूरत-ए-तेग़-ए-अ’लीक़ाबिल-ए-मदह-ओ-सना है सीरत-ए-तेग़-ए-अ’ली