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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
कलाम
आरज़ू-ए-वस्ल-ए-जानाँ में सहर होने लगीज़िंदगी मानिंद-ए-शम्अ' मुख़्तसर होने लगी
ग़ुलाम मोईनुद्दीन गिलानी
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कलाम
फ़िराक़ गोरखपुरी
कलाम
सहर उस हुस्न के ख़ुर्शीद को जाकर जगा देखाज़ुहूर-ए-हक़ कूँ देखा ख़ूब देखा बा-ज़िया देखा
मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ
ना'त-ओ-मनक़बत
करता है वस्फ़-ए-शाह जो शाम-ओ-सहर दिमाग़नज़रों में अहल-ए-दिल की वो है मो'तबर दिमाग़
अमीर हमज़ा निज़ामी
बैत
मेरी मे'राज-ए-सुख़न ज़िक्र तेरा शाम-ओ-सहर
मेरी मे'राज-ए-सुख़न ज़िक्र तेरा शाम-ओ-सहरमेरी हस्ती की बक़ा तुझ में फ़ना हो जाना
मोहम्मद समी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
सहर चू बुलबुल-ए-बे-दिल दमे शुदम दर बाग़कि ता चू बुलबुल-ए-बे-दिल कुनम ई'लाज-ए-दिमाग़