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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
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बैत
घटा का'बे से बाला-ए-फ़राज़-ए-कोहसार आई
घटा का'बे से बाला-ए-फ़राज़-ए-कोहसार आईमुबारक बादा-नोशो रहमत-ए-परवरदिगार आई
क़मर बदायूँनी
सूफ़ी लेख
कलाम-ए-‘हाफ़िज़’ और फ़ाल - मौलाना मोहम्मद मियाँ क़मर देहलवी
‘हाफ़िज़’ का कलाम जिस तरह रिन्दान-ए-क़दह-ख़्वार के लिए सर-मस्ती और ख़ुश-ऐ’शी का ज़रीआ’ है, उसी तरह
सूफ़ीनामा आर्काइव
कलाम
फ़ना बुलंदशहरी
कलाम
फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह-ओ-दमनमुझ को फिर नग़्मों पे उकसाने लगा मुर्ग़-ए-चमन
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हम अहल-ए-इशक़ आसाँ इशक़ की मंज़िल समझते हैंना जब मुश्किल समझते थे ना अब मुश्किल समझते हैं
क़मर जलालवी
ना'त-ओ-मनक़बत
लो मेरी ख़बर बहर-ए-क़मर हज़रत-ए-सज्जादहो जल्द तवज्जोह की नज़र हज़रत-ए-सज्जाद
शैख़ इद्रीस चिश्ती
कलाम
क़मर जलालवी
ना'त-ओ-मनक़बत
क़मर देहलवी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
दर सीन: दारम कोह-ए-ग़म दानद अगर यार ईं क़दरशायद कि न-पसंदद दिलश बर जान-ए-मन बार ईं क़दर