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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
ग़म-ए-दहर दिल से निकाल दो मिरे आप से हैं सवाल दोमिरे सर को आप का दर मिले मिरे दिल में आप का घर रहे
ग़ुलाम क़ुतुबुद्दीन फ़रीदी
ना'त-ओ-मनक़बत
मंज़र फ़ज़ा-ए-दहर में सारा 'अली का हैजिस सम्त देखता हूँ नज़ारा 'अली का है
पीर नसीरुद्दीन नसीर
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ना'त-ओ-मनक़बत
कुछ ऐसे दहर में छाया है मय-ख़ाना मोहम्मद काकि हर कोई हुआ जाता है मस्ताना मोहम्मद का
मोहम्मद हुज़ैफ़ा
सूफ़ी कहावत
मर्द बायद कि दर कशाकश दहर संग ज़ेरीन आसिया बाशद
वास्तविक पुरुष को दुनिया की मुश्किलों में, चक्की में नीचे की पत्थर की तरह होना चाहिए।
वाचिक परंपरा
कलाम
वही कुछ दहर में राज़-ए-निज़ाम-ए-दिल समझते हैंजो तेरे इ'श्क़ को कौनैन का हासिल समझते हैं
माहिरुल क़ादरी
शे'र
फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू-ए-दहर मत खा मर्द-ए-आ'क़िल होसमझ आतिश-कदा इस गुलशन-ए-शादाब-ए-दुनिया को
मीर मोहम्मद बेदार
कलाम
आक़िल रेवाड्वी
शे'र
अगर चाहूँ निज़ाम-ए-दहर को ज़ेर-ओ-ज़बर कर दूँमिरे जज़्बात का तूफ़ाँ ज़मीं से आसमाँ तक है