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जानी जीवन चार देहाड़े
जानी जीवन चार देहाड़े, इह सदा न रहन बहारीं ।एस चमन विच फिर फिर गईआं, कोट बेअंत शुमारीं ।
हाशिम शाह
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सूफ़ी कहानी
ज़बान ना जानने की वजह से अंगूर पर चार आदमियों का आपस में झगड़ा - दफ़्तर-ए-दोउम
चार आदमी चार मुल्कों के एक जगह जम्अ’ थे।किसी ने उन चारों को एक दिरम (चांदी
रूमी
कलाम
फिरा ज़माना में चार जानिब सनम सरापा तुम्हीं को देखाहसीन देखे जमील देखे पर एक तुम सा तुम्हीं को देखा
अज्ञात
कलाम
फिरे ज़माने में चार जानिब निगार यकता तुम्हीं को देखाहसीन देखा जमील देखा व-लेक तुम सा तुम्हीं को देखा
अज्ञात
बैत
तू अबद आफ़रीं मैं हूँ दो-चार पल
तू अबद आफ़रीं मैं हूँ दो-चार पलतू यक़ीं मैं गुमाँ मैं सुख़न तू अ’मल
मुज़फ़्फ़र वारसी
कलाम
चार दिन की फ़क़त चाँदनी है चाँदनी का भरोसा नहीं हैइस लिए हूँ अँधेरों का शैदा रौशनी का भरोसा नहीं है
अज्ञात
पद
महल बनाया ऊँचा सा और चार तरफ़ से घेरा है
महल बनाया ऊँचा सा और चार तरफ़ से घेरा हैतकया दे मसनद पर बैठा ये जाना घर मेरा है
कवि दिलदार
ना'त-ओ-मनक़बत
कमाल-ए-सिद्क़-ए-अ’दालत शुजाअ'त और हयाउन्हीं से निखरा है लारैब चार यार का रँग
वासिफ़ रज़ा वासिफ़
ग़ज़ल
कभी चार फूल चढ़ा दिए जो किसी ने मेरे मज़ार परतो हज़ारों चर्ख़ से बिजलियाँ गिरीं एक मुश्त-ए-ग़ुबार पर