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ना ज़ाया हो कर्ई सब बलायॉ थे बाँचरह्या था वतन करके अव्वल ते बाँच
रोज़े कि तू बे-’इश्क़ बसर ख़्वाही बुर्दज़ाया तर अज़ाँ रोज़ तुरा रोज़े नीस्त
ब-मर्दी वा रहाँ ख़ुद रा चू मर्दांव लेकिन हक़-ए-कस ज़ाया मगर दाँ
कर इबादत पच्छोतासें ज़ाया गई जवानी हूहक़्क़ हुज़ूर उन्हाँ नूँ हासल जिन मिलिया पीर जिलानी हू
देन गयाँ गल घोटू आवे लेन गयाँ झट शीहाँ हूपत्थर चित्त जिन्हाँ दे ओथे ज़ाया वसणा मीहाँ हू
ज़ायाضائع
waste
आधी रात तक वह मीनार में रहा। आख़िरकार सारा शहर और महल ख़ामोशी में डूब गये। ज़ाया करने के लिए अब वक़्त नहीं था। गर्मी की रातें तेज़ परों पर उड़ती हैं। ख़ोजा नसरुद्दीन चुपचाप नीचे उतरा और चोरी-चोरी अमीर के हरम की तरफ़ बढ़ा।वह सोच रहा था कि पहरेदार अब तक नींद में ग़ाफ़िल हो चुके होंगे। लेकिन, वहां पहुंच कर उसे धीमे-धीमे बोलने की आवाज़ें सुनाई दीं। उसे बहुत नाउम्मीदी हुई।
हज़ाराँ-हज़ार ता’रीफ़ें ज़ात-ए-बारी के लिए हैं जो अपने मर्तबा-ए-अहदीयत में फ़र्द है और उस की इलाही
‘हु-वलअव्वलु वल-आख़िरु वल-ज़ाहिरु वल-बातिनु’ ता’रीफ़ उस ज़ात की जो कि मौजूद-ए-मुतलक़ है और ना’त उस नबी
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