रिसाल:-ए-साहिबिया
रिसाल:-ए-साहिबिया
(अलिफ़)
तालीफ़: शहज़ादी जहाँ आरा बिन्त-ए-शाह-जहाँ
अनुवाद: डाक्टर तनवीर अहमद अ’लवी
बे-शुमार ता’रीफ़ें और अन-गिनत सताइशें उस ख़ुदा के लिए हैं जो अपनी ज़ात में बे-मिसल-ओ-यकता है और जिस की इलाही सिफ़ात में तमसील-ओ-तश्बीह की कोई गुंजाइश नहीं और हज़ारों हज़ार दुरूद-ओ-सलाम रसूल-ए-मक़बूल के लिए हैं जिन के दीन-ए-मुबीन की सच्चाई में शुकूक–ओ-शुबहात को दख़ल नहीं और उन की पाक औलाद और अस्हाब-ए-कराम की अर्वाह-ए-मुक़द्दस पर कि उन में से हर एक अहादीस का परस्तार और रसूल –ए-ख़ुदा के लाए हुए दीन का मानने वाला और ख़िदमत गुज़ार था और जिन्हों ने इस दीन-ए-बर-हक़ की पैरवी के सिवा किसी से कोई निस्बत नहीं रखी।(रिज़वानुल्लाह-ए-तआ’ला अलैहिम अजमई’न)
अम्मा बाद ये एक मुख़्तसर रिसाला है जिसे इस फ़क़ीरा-ए-नहीफ़ और औलिया उल्लाह की इस ख़ादिम:-ए-ज़ई’फ़ जहाँ आरा बिंत-ए-शाह-जहाँ ने तरतीब दिया है। अल्लाह पाक उस की कोताहियों को मुआ'फ़ फ़रमाए और उस के उयूब की पर्दा-पोशी करे(आमीन)
इस मुख़्तसर रिसाला में मुर्शिद वाला मुल्ला शाह की पाक ज़िंदगी और सआ’दतों से भरे हुए वाक़िआ'त का बयान है जो इस ज़मीमा-ए-बे-बिज़ाअ’त के दस्तगीर और मुर्शिद-ए-रौशन ज़मीर हैं।
इस के साथ इन औराक़ में इस ज़मीमा से अपना भी कुछ-कुछ अहवाल-ए-पुर- इख़्तिलाल क़लम-बंद किया है कि इस फ़क़ीरा के दिल में किस तरह तलब-ओ-आगही का ज़ौक़ पैदा हुआ, कैसे हज़रत-ए-वाला से उल्फ़त-ओ-अ'क़ीदत पैदा हुई और मैं ने हज़रत मुल्ला शाह का दामन थामा, इस में कुछ वो हालात दर्ज हैं जो इस रिसाला की तालीफ़ का सबब बने जिस का नाम फ़ुक़रा-ए-बाबुल्लाह की इस ख़ादिमा और हज़रत मुल्ला शाह की बारगाह की इस दरयूज़ा-गर ने रिसाला-ए-साहिबीया रखा है। क़लम-ए-शिकस्ता ज़बाँ को ये मजाल कहाँ कि हज़रत की किताब-ए-औसाफ़ का एक हर्फ़ भी सही तौर पर लिख दे और मुझ आ’जिज़ा की ज़बान-ए-कज-मज बयाँ में ये क़ुदरत कहाँ कि वो इस मुर्शिद-ए-कामिल की सिफ़ात-ए-हसना का (क़र्न दर क़र्न मुद्दत याबी के बा-वस्फ़) कोई शुबह कर सके लेकिन हज़रत के अहवाल-ए-सआ’दत के बयाँ को अपने लिए फ़ैज़-ओ-बरकत का मूजिब मानते हुए मैं ने इस मौज़ू’ पर क़लम उठाया है।
और इस के ज़ैल में अपने अहवाल पुर-इख़्तिलाल की तहरीर का मक़सद इस के सिवा कुछ नहीं कि इस फ़क़ीरा-ए-बे-दास्त्गाह और इस ज़मीमा का नामा हज़रत के इस्म-ए-मुबारक व अहवाल-ए-मुक़द्दस के ज़ैल में लिख दिया जाए शायद हज़रत-ए-वाला के इस्म-ए-शरीफ़ की बरकत-ओ- सआ'दत से अल्लाह पाक इस फ़क़ीरा-ए-बे-नवा को भी बख़्श दे (जिस ने अपनी उम्र-ए-अ'ज़ीज़ को बेहूदा बातों में सर्फ़ किया है) और क़यामत के रोज़ हज़रत के मुख़्लिसीन-ओ- मो'तक़िदीन के ज़ुमरा में शामिल फ़रमाए।
मैं ने कुछ किताबों में पढ़ा था कि पहले बुज़ुर्गों ने अपनी और दूसरों की हिदायत के लिए अपने मशायख़ का अहवाल लिखा है क्यों ना में भी उनकी सुन्नत पर अ'मल करूँ वर्ना ये फ़क़ीरा-ए-बे-बिज़ाअत इस क़ाबिल कहाँ कि हज़रत मुल्ला शाह के औसाफ़-ए-आ’लीया के दरिया-ए-बेकराँ से लेकर उन से एक क़तरा भी बाहर ला सकूँ या मुर्शिद-ए-हक़ीक़ी के ख़साएल-ओ-फ़ज़ाएल के बोस्ताँ से कोई एक फूल भी चुन सकूँ, इसी के साथ, ख़ुद मैं किस शुमार-ओ-क़तार में हूँ कि हज़रत के हालात के साथ (गोना-गों ख़ामीयों और ख़राबियों से भरे हुए) अपने हालात को सिपुर्द-ए-क़लम कर सकूँ कि ये इंदिराज भी एक सू-ए-अदब से कम नहीं।
मैं ख़ुदा की ज़ात से ये उमीद रखती हूँ कि जो बात बयान-ए-वाक़िआ की सी नौइयत रखती है, वो बग़ैर किसी ज़्यादती और नुक़्सान के ज़बान-ए-क़लम से तराविश पाए।अल्लाह पाक मुझे इस की तरतीब –ओ-तालीफ़ की तौफ़ीक़ अ’ता फ़रमाए। आमीन।
हज़रत मुल्ला शाह बदख़्शी के हालात
मा’लूम होना चाहीए कि हज़रत-ए-वाला का वतन-ए-मालूफ़ और मौलिद-ए-शरीफ़ मौज़ा अरकसा है (जो तवाबेअ’-ए-बदख़्शां है)। हज़रत इर्फ़ान-ए-ज़ात में यकता-ए-दौरां और नुकता-ए-तौहीद की रम्ज़-शनासी में यकता-ए-ज़माना हैं। पैरवी-ए-रुसूम से मुबर्रा और मरातिब-ए-ज़ात की तरक़्क़ी-ओ-तनज़्ज़ुल से मुनज़्ज़ह हैं। हक़ीक़त के अथाह समुंद्र में डूबे हुए हैं। ख़ज़ाएन-ए-वजूद का सर-चश्मा और लुत्फ़-ओ-इनायात का मंबा हैं। रुमूज़-ए-क़ुरआन के काशिफ़ और हक़ीक़त के भेदों से वाक़िफ़ हैं जहाँ नैरंगी के तिलिस्म से आज़ाद और बे-रंगी की फ़ज़ा-ए-लतीफ़ में महव-ए-परवाज़ हैं। बारगाह-ए-इलाही के मुक़र्रब, शरीअ’त के रम्ज़ आश्ना हैं और मा’रिफ़त-ए-ज़ात-ए-ना-मुतनाही के जरीबा दार हैं।
हज़रत दौर-ए-मौजूद में क़ुतुबुलअक़ताब और ग़ौसुलआफ़ाक़ हैं। मेरे शैख़-ए-तरीक़त और मेरे मुर्शिद-ओ-मौला हैं और आप का नाम-ए-नामी इस्म-ए-सामी मुल्ला शाह है। अल्लाह पाक आप को सलामत रखे और मर्तबा-ए-बक़ा अ’ता फ़रमाए। मौज़ा अरकसा रोशताक़, तवाबेअ’-ए-मुल्क-ए-बदख़्शाँ से है जैसा कि हज़रत वाला ने अपने एक शे'र में इस की तरफ़ इशारा फ़रमाया है।
मुल्क-ए-मन अज़ मुल्कहा मुल्क-ए-बदख़्शाँ आमद:
अज़ बिलाद-ए-रोशताक़ अज़ क़ुरा अज़ अरकसा
हज़रत के वालिद-ए-माजिद का इस्म-ए-शरीफ़ मौलाना अ’ब्द अहमद, बिन मौलाना सुलतान अ’ली, बिन हज़रत क़ाज़ी फ़तह-उल्लाह है।
[अल्लाह पाक उन की रूहों पर अपनी रहमतों के फूल बरसाए]
हज़रत के क़ाबिल-ए-एहतिराम अस्लाफ़ में हर शख़्स क़ाज़ी के लक़ब से इम्तियाज़ रखता था लेकिन उन का मक़सूद-ए-आला और मतलूब-ए-वाला, राह-ए-हक़ की तलब और ज़ात-ए-मुतलक़ की शनाख़्त से था, इसलिए ये लोग उमूर-ए-क़ज़ा से कोई ख़ास दिलचस्पी ना रखते थे, और इस जहान-ए-फ़ानी के रंज–ओ-राहत को अपनी निगाह-ए-हक़-शनास में कोई मक़ाम ना देते थे और इस जहान-ए-गुज़राँ की मसर्रत-ओ- मोहब्बत को यकसाँ शुमार करते हुए अपने औक़ात-ए-गिरामी को इत्मिनान-ए-क़ल्ब और तमानीयत-ए-ख़ातिर के साथ गुज़ारते थे।उन अज़ीज़ों में से हर एक ने वक़्त-ए-मौऊद आने पर सफ़र-ए-आख़िरत इख़्तियार फ़रमाया और आग़ोश-ए-रहमत में जगह पाई।
मेरे हज़रत की वालिदा का नाम बी-बी ख़ातून था जो राबिया-ए-वक़्त और ख़दीजा-ए-ज़माना थीं। बहुत रियाज़त-ओ-मुजाहिदा करने वाली बीबी और साहिबा-ए-हालात-ओ-मक़ामात ख़ातून थीं, उन्हें निसा-ओ-औरात में आरिज़ा-ए-कामिल का दर्जा हासिल था।उन्हों ने अपनी उम्र-ए-तबई की मुख़्तलिफ़ मंज़िलों को तय कर के वक़्त-ए-मुक़र्ररा के आने पर आलम-ए-फ़ानी से मुल्क-ए-जाविदानी की तरफ़ रुख़ किया और हज्ला-ए-बक़ा को ज़ीनत बख़्शी।
मेरे मुर्शिद मौलाना शाह के दो भाई और एक बहन हैं जो आप से उम्र में छोटे हैं, ब-क़ैद-ए-हयात हैं।अपने वतन मौज़ा अरकसा में क़याम पज़ीर हैं।आप के दोनों भाईयों के नाम मुल्ला बैग मुहम्मद और मुल्ला सुलतान अ’ली हैं। ये दोनों भाई हज़रत की ख़िदमत में कस्ब-ए-फ़ैज़ और हुसूल-ए-सआ’दत के लिए इधर हिन्दोस्तान भी आए थे। हज़रत इलाही और वुसूल-ए-ज़ात-ए-ना-मुतनाही के मुख़्तलिफ़ मराहिल तय कर के आप के फ़रमान के ब-मूजिब अपने क़र्या की तरफ़ वापस लौट गए।
अपनी हमशीरा को हज़रत-ए-वाला ने अपनी तवज्जोह-ए-ग़ायबाना से आलम-ए-बातिन की राह दिखलाई और मशग़ूल (ब-हक़) फ़रमाया अ’लावा अज़ीँ आप के बहुत से अह्ल-ए-वतन आप की बातिनी तवज्जोह की बदौलत हैं। इस लिए वो आप से अ’क़ीदा-ए-दुरुस्त और इख़्लास-ए-दिल रखते थे। हज़रत-ए-वाला की बे-कराँ बख़्शाइशों और अपनी बे-पायाँ बरकात से बहरायाब हुए और हज़रत ने तरीक़ा-ए-औलिया के मुताबिक़ उन की तरबीयत फ़रमाई।
उस मुल्क और उस दरबार के रहने वालों की एक बड़ी जमाअ’त महज़ हज़रत-ए-वाला के दीवान के मुताला’ और मुशाहेदा से [कि वो शुरू से लेकर आख़िर तक मआ’रिफ़-ए-सिफ़ात और हक़ायक़-ए-ज़ात पर मुश्तमिल है] असरार-ए-तौहीद और रुमूज़-ए-उलूहियत से आगाह और मक़ामात-ए-तरीक़त और मरातिब-ए-हक़ीक़त पर फ़ाइज़ और गोना-गों फ़ुयूज़-ओ-बरकात से बहरा-वर हुई और उन्हों ने तरक़्क़ी के आ’ला मराहिल तय किए।
हज़रत-ए-वाला ने [कि मेरे मुर्शिद और मुरब्बी हैं]अपने दीवान-ए-फ़साहत-ओ-बलाग़त का एक नुस्ख़ा इस ज़ईफ़ा को इनायत फ़रमाया जो बुलंद रुत्बा क़सायद और शोर अंगेज़ ग़ज़लियात से मुज़य्यन एक मुरक़्क़ा है और इस का हर बैत लमआ-ए-नूर और हर मिस्रा बैतुलमा’मूर है। ये ज़ईफ़ा भी कि हज़रत के साथ इख़्लास-ए-हक़ीक़ी और इरादत-ए-तहक़ीक़ी में ख़ुद को किसी से कमतर नहीं जानती, इस दीवान-ए-सदाक़त तर्जुमान को शब-ओ-रोज़ अपने पेश-ए-नज़र और इस के अशआ’र को हमेशा विर्द-ए-ज़बान रखती है। और उन मा’रिफ़त से भरे अब्यात को पढ़ने से बेशुमार फ़ायदे और बे-निहायत फ़ुयूज़-ओ-बरकात इस ज़ईफ़ा को हासिल हुए हैं। इस फ़िदविया के अ’क़ीदा-ओ-ख़याल के मुताबिक़ नुक्ताहा-ए-तौहीद को मुल्ला शाह से ज़्यादा बेहतर अंदाज़ से इस ज़माने में किसी ने पेश नहीं किया।
मेरे मुर्शिद–ओ-मौला हज़रत मुल्ला शाह ने ज़माना-ए-तुफ़ूलियत से ले कर इक्कीस बरस तक मौज़ा अरकसा ही में ज़िंदगी ब-सर फ़रमाई।उन्नीसवीं उम्र तक पहुंचने के दौरान हज़रत से ख़वारिक़-ए-आ’दत और बड़ी बड़ी करामतों का ज़ुहूर हुआ। वहां के रहने वालों को मेरे मुर्शिद की ख़िदमत में कमाल-ए-बंदगी-ओ- ए'तिक़ाद हासिल था।
बाद अज़ाँ अपने हाल को छिपाने और ज़ाहिरी उलूम की तहसील के लिए हज़रत ने बलख़ की तरफ़ सफ़र इख़्तियार किया और अह्ल-ए-अरकसा को हज़रत की जुदाई और मुफ़ारक़त ने बहुत सताया। सरज़मीन-ए-बलख़ हज़रत के क़ुदूम-ए-मैमनत की बरकत से मुशर्रफ़ हुई और आप उलूम-ए-ज़ाहिरी के कस्ब-ओ- इकतिसाब में मश्ग़ूल हुए। बहुत थोड़ी सी मुद्दत में हज़रत ने उलूम-ए-ज़ाहिरी को हासिल कर लिया और मर्तबा-ए-कमाल को पहुंच गए।
चूँकि हक़ीक़तुलहक़ाइक़ की तलब का ज़ौक़ और मा'रिफ़त की जुस्तुजू का शौक़ हज़रत की तबीयत पर ग़ालिब था इस लिए बलख़ में ज़्यादा दिनों तक क़याम ना फ़र्मा सके। और अव्वलन सरज़मीन-ए-कश्मीर को अपने मक़दम-ए-फ़ैज़ से नूरानी फ़रमाया। उस वक़्त तक हज़रत की उम्र (कि अल्लाह आप को सलामत ता क़यामत रखे] पच्चीस बरस हो गई थी और सर-ज़मीन-ए-कश्मीर के क़याम के दौरान भी तीन साल तक हज़रत-ए-वाला ने ख़ुद को तालिब इल्मी के लुबादा में छुपाए रखा चूँकि अभी तक आप का दस्त-ए-तलब किसी पीर-ए-कामिल के दामन-ए-मुराद तक ना पहुंचा था। [ जिस के तहत वो ख़ास तरीक़ा को इख़्तियार करें और ज़िक्र-ए-हक़ में मश्ग़ूल हों ] इस लिए कश्मीर-ए-दिल पज़ीर से लाहौर का रुख़ किया।
इस ज़माना में शहर-ए-लाहौर हज़रत मियाँ जब्बू मियाँ मीर क़ुद्दीसल्लाह के वजूद-ए-मसऊद और अनवार-ए-ला-महदूद से मुशर्रफ़-ओ- मुनव्वर था जो सग़ीर-ओ-कबीर के पेशवा और जय्यद-ए-अ’स्र थे।
सच्च यह है कि मियाँ जब्बू [मियाँ मीर] आरिफ़ों के शैख़-ए-तरीक़त, वासिलों के रहनुमा-ए-कामिल, दरिया-ए-हक़ीक़त की मौज-ए-बे-कराँ, शरीअ’त-ओ-तरीक़त के आसमान-ए-रौशन, कोह-ए-अज़मत-ओ-वक़ार, आरिफ़-ए-नामदार, मुहक़्क़िक़ीन के सरख़ैल, अह्ल-ए-मा'रिफ़त के मुक़्तदा, औलया-ए-किबार के सिलसिला के दुर्र-ए-यकता, आलीक़द्र मशायख़ के लिए उस्वा-ए-जमील, अह्ल-ए-ज़माना के हादी, बे अदील मुवह्हिदों के इमाम, रुमूज़-ए-तौहीद के नुक्ता शनास, हिजाब-ओ-उस्ताद के पर्दा कुशा थे।
जब मेरे मुर्शिद हज़रत मुल्ला शाह, हज़रत मियाँ जब्बू के अहवाल-ओ- मर्तबा-ए-कमाल से आगाह हुए तो कमाल-ए-शौक़ के साथ हज़रत की ख़िदमत में (लाहौर) हाज़िर हुए।मियाँ जब्बू मुर्शिदी मुल्ला शाह के सिद्क़-ए-तलब और जुस्तुजू-ए-हक़ की सच्ची ख़्वाहिश को आज़माने के लिए आप की तरफ़ से दानिस्ता तग़ाफ़ुल फ़रमाते रहे और एक साल तक हज़रत को अपनी ख़िदमत-ए बा-बरकत में बाज़याबी अ’ता फ़रमाने से गोया दानिस्ता इज्तिनाब फ़रमाते रहे और आप के हाल पर तवज्जोह फ़रमा ना हुए।
ख़ुद हज़रत-ए-वाला मुल्ला शाह ने [ कि ग़लबा-ए-शौक़, वफ़ूर-ए-ज़ौक़, विसाल-ए-हक़ की तलब और हक़ीक़त-ए-मुतलक़ की दरयाफ़्त के शदीद जज़्बा के ज़ेर-ए-असर, अक्सर ख़ुर्द नोश से भी ग़ाफ़िल रहते थे और हमा वक़त बह्र-ए-शौक़ में मुसतग़रक़ और बक़ा-ए-ज़ात-ए-मुतलक़ के ख़याल में मह्व रहते थे ] मियाँ जब्बू की मुलाज़मत को कभी तर्क ना फ़रमाया।
एक साल इस तरह गुज़र गया कि हज़रत मियाँ जब्बू से जब हज़रत-ए-वाला की तलब-ए-हक़ को सादिक़ और आप को ख़ुदा जोई की ख़्वाहिश में साबित-क़दम पाया तो इनायत-ओ-मेहरबानी के गहरे जज़्बात, जो हज़रत मियाँ जब्बू के दिल में मौज-ज़न थे उन को ज़ाहिर फ़रमाया और अपनी सोहबत में बाज़याबी अ’ता की और उसी वक़्त मशग़ूल ब-हक़ फ़रमाया।
चूँकि हज़रत-ए-वाला में हक़शनासी-ओ-हक़-रसी की सलाहीयत ब-दरजा-ए-कमाल थी, जैसे ही मश्ग़ूल-ए-हक़ किए गए दर्जात-ए-आ’लीया और मरातिब-ए-उलिया तक रसाई में देर ना लगी और आ’लम-ए-मलकूत-ओ-आलम-ए-अर्वाह और आलम-ए-मिसाल में उलूम-ए-बातिनी के अबवाब हज़रत मुल्ला शाह पर मक्शूफ़ हो गए। हज़रत मियाँ जब्बू, मियाँ मीर की ख़ुसूसी तवज्जोह की बदौलत मेरे मुर्शिद के दर्जात-ए-आ’ली बुलंद से बुलंद तर होते रहे, मुख़्तसर ये कि मेरे हज़रत ने उन्नीस साल मियाँ मीर की सोहबत में गुज़ार दिए कि सरासर इक्सीर का हुक्म रखती थी इस तरीक़ा पर कि जाड़ों के मौसम में लाहौर क़याम फ़रमाते थे और अपने मुर्शिद-ओ-मौला की ख़िदमत में रह कर गोना-गों सआ’दतों से बहरा-मंद होते थे और गर्मियों के मौसम में [चूँ कि हज़रत-ए-वाला का मिज़ाज बहुत गर्म है ] हज़रत मियां मीर से रुख़स्त ले कर कश्मीर-ए-जन्नत नज़ीर में रौनक़ अफ़रोज़ होते थे और रियाज़त-ए-फ़ाइक़ा और मेहनत-ए-शाक़्क़ा में अपने औक़ात बसर करते थे।
हज़रत की एक रियाज़त ये थी कि हज़रत मियाँ जब्बू की ख़िदमत में रहते हुए उन्नीस साल तक और चंद साल इस से पहले और हज़रत की वफ़ात के बाद भी , कि इस पर पाँच साल का अरसा बीत रहा है,कभी ज़मीन पर पांव फैला कर नहीं सोए लेकिन आज कल ज़मीन पर पहलू-ए-मुबारक दराज़ फ़रमाते हैं और पहलू बदलते भी हैं लेकिन हज़रत-ए-वाला इस्तिराहत के आ’लम में भी कभी सोते हैं और यह कहा जा सकता है कि आप की पलक नहीं झपकती। ये बात हज़रत ने ख़ुद अपनी ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाई है जो आ’लम-ए-ख़्वाब की नफ़ी करती है।
अपने मुरीदों की तरफ़ तवज्जोह-ए-ख़ास फ़रमाते हुए हज़रत ने कहा है:
ता-चंद ख़रोशेम कि बेदार शवेद
बेदार शवेद कि दुश्मन-ए-दिल ख़्वाबस्त
कब तक बार-बार शोर करते हुए ये कहा जाए कि तुम बेदार रहो।जागो और जागते रहो कि आ’लम-ए-ख़्वाब दिल-ए-बेदार का दुश्मन है।
हज़रत-ए-वालिद शोरीदा दिल हो गए हैं और आप ने दुनिया-ए-फ़ानी की मसर्रतों और लज़्ज़तों से बेगानगी इख़्तियार कर ली है और मुजाहिदा के बाइस जिहात-ए-तौहीद के मब्दा तक रसाई हासिल की है ये जुस्तुजू एक नूरानी सुब्ह की तरह हज़रत के दीद-ओ- दिल पर छा गई है [ कि बरकात इलाही व फ़ुयूज़-ए-ना-मुतानाही से इबारत है ] इल्म-ए-लदुन्नी के दरवाज़े और आलम-ए-मलकूत-ओ-जबरूत-ओ-लाहूत के पुर-असरार पर्दे, हज़रत की निगाहों से हट गए और तमाम हक़ायक़, आप के दिल पर मुन्कशिफ़ हो गए। तमाम हिजाबात उठ गए और मेरे मुर्शिद अपनी मुरादात-ए-आ’लीया और मतालिब-ए-वाला तक पहुंच गए।
फ़रमाते हैं कि इस फ़त्ह-ए-बाब-ओ-हुसूल-ए-मुरादात की इस मंज़िल, नीज़ इस सआ’दत-ए-उज़्मा और दौलत-ए-कुबरा तक रसाई, किसी ग़ैर और ग़ैरियत के एहसान के ब-ग़ैर इन रौशन आयात-ए इलाही के इक़्तिज़ा मुझे हासिल हुई-
ज़ालिका फ़ज़्लुल्लाहि यूतीहि मय्यशाउ वल्लाहु ज़ुल-फ़ज़्लील-अ’ज़ीम
ये अल्लाह पाक का फ़ज़्ल-ओ-रहमत है वह जिसे चाहे रहमत फ़रमाए और वह बहुत बड़ा फ़ज़्ल करने वाला है।
सच्च ये है कि वस्ल-ए-ज़ात और हुसूल-ए-मआ’नी-ए-सफ़ा का ये अंदाज़ा, मेरे हज़रत से मख़्सूस है और उन पर अल्लाह की इनायात-ए-बे-पायाँ का इज़हार है। हज़रत की की ता’रीफ़ कोई कैसे कर सकता है।जो कुछ कि तहरीर-ओ-तक़रीर में समाता है या हर्फ़-ओ-सौत के मलबूस में जल्वा-गर होता है या अक़्ल-ओ- औहाम जिस का इहाता कर सकते हैं मेरे मुर्शिद-ओ-मौला हज़रत मुल्ला शाह बदख़्शी की सिफ़ात-ए-आ’लीया उन से बाला-तर बल्कि मुबर्रा-ओ-मुनज़्ज़ह हैं। हज़रत-ए-वाला अपने दोस्तों और बा-इख़्लास मुरीदों को इस तरह की तजरीद–ओ-तफ़रीक़ की दा’वत नहीं देते और उन से कभी इतनी मशक़्क़त-ओ-रियाज़त नहीं कराते।
मेरे अखुंद का मंशा-ए-दिली तो तबीयत की यकसूई ,ख़्वाहिशात की पैरवी से गुरेज़ और ग़ैर-ए-हक़ से ज़ेहन-ओ-दिल की तजरीद है इस लिए एक हद तक बेदारी-ए-शब के लिए हुक्म फ़रमाते हैं और गाह गाह बतौर किनाया कहते हैं कि हमारे दोस्तों को चाहिए कि वो भी हमारे साथ बैठें, मुराक़बे और मुजाहिदा में शरीक रहें और इस का मक़्सद, काहिलों और ग़फ़लत-कारों की तंबीह-ओ-सरज़निश है।
हज़रत-ए-वाला आज असरार-ए-तौहीद की तफ़्हीम और मरातिब-ए-वहदत तक रसाई के मुआ’मला में रु-ए-ज़मीन के तौहीद परस्तों और रुमूज़-ए-तजरीद के नुक्ता दानों में बे-मिस्ल-ओ-यकता हैं और आप को मुहक़्क़िक़ों का सर-बराह और मुवह्हिदीन का इमाम कहा जा सकता है।
हज़रत की ज़बान और आप का कलाम तमाम-तर मआ’नी-ए-तौहीद का पर्दा कुशा होता है। और जो नुक्ते आप की बात बात से पैदा होते हैं, उन से कैफ़ियात-ए-तजरीद की नक़्श गहरी होती है और हज़रत वाला यगानगी-ओ-क़ुर्बत के रिश्ते से इतनी हम-आहंगी और ग़ैरियत-ओ-दुई के एहसास से इस दर्जा दूरी रखते हैं कि आ’लम-ए-ग़ैब से ‘सुबहानी मा आज़मा शानी’ के ख़िताब से नवाज़े गए हैं। हज़रत की ये दो रुबाईयाँ इन मआ’नी पर दलालत करती हैं।
गर ज़ात-ओ-सिफ़ात, बर रुख़-ए-शख़्स कुशाद
शुद ख़ान:-ए-इल्म-ओ-दिल अज़ ईंहा आबाद
उ सुलतानीस्त कि बा-यज़ीद अस्त गदाश
मा आ’ज़मा शानश, मुबारकहा बाद
ज़ात-ओ-सिफ़ात ने अगर अपना दरवाज़ा किसी शख़्स पर खोल दिया और उस का ख़ाना-ए-दिल उस के इल्म की रौशनियों से आबाद हो गया तो बिला-शुब्हा सुल्तान और बायज़ीद उस के दरवाज़े का फ़क़ीर है और मा आ’ज़मा शानी का लक़ब उसे मुबारक हो।
रुबाई:
इंसाँ चू बूवद बस्त:-ए-तन हैवाँ अस्त
उफ़्ताद ब-आ’लम दिल-ए-उ इंसाँ अस्त
उफ़्ताद ब-तन ज़े आ’लम दिल शुद
मा आज़मा शानी बख़्शिश-ए-रहमाँ अस्त
रूह जब वाबस्ता-ए-तन होती है तो ब-मंजिला-ए-हैवाँ होती है और जब दुनिया से उस ने अपने होश-ओ-ख़िरद के साथ लौ लगाई तो वो गोया इन्सान का क़ालिब इख़्तियार कर गई और जब इस माद्दी दुनिया की मोहब्बत सिमट कर अपने जान –ओ-तन से वा-बस्ता हुई तो दिल उस का मर्कज़-ए-इश्क़-ओ-अ’क़ीदत हो गया और उन मराहिल-ए-तअ'ल्लुक़-ओ-तअश्शुक़ से गुज़र कर जब एहसास-ए-वजूद-ए-ज़ात और सिफ़ात-ए-इलाहिया का आईना बन गया तो सुबहानी मा आज़मा शानी के मर्तबा तक पहुंच गया और अब उस की बात सुख़न-ए-रहमान बन गई।
हज़रत-ए-वाला अपने साहिब-ए-असरार दोस्तों और इख़्लास शिआ’र मो’तक़िदों के मा-सिवा किसी से हम-सोहबत नहीं होते। और मेरे मुर्शिद की महफ़िल में मशाग़िल-ए-क़ुद्सी और हक़ीक़त-ए-वजूदीयत की बातों के मा-सिवा कोई बात किसी की ज़बान-ओ-लब पर नहीं आती और हज़रत [मुल्ला शाह बदख़्शी] की मोहब्बत को अल्लाह पाक ने असर-ओ-नुफ़ुज़ बख़्शा है कि कोई शख़्स कितना ही संग-दिल हो हज़रत की नज़र-ए-कीमिया असर की बरकत और नफ़्स-ए-गर्म की तासीर से उस के क़ल्ब में नरमी-ओ-रास्ती पैदा हो जाती है।
हज़रत के रु-ए-मुबारक और पुर-नूर पेशानी पर नज़र पड़ते ही इंशिराह-ए-ज़ाहिर-ओ-बातिन और हुज़ूरी-ए-ख़ातिर मुयस्सर आ जाती है और अल्लाह तबारक-ओ- तआ’ला ने मुर्शिद के कलाम में कुछ ऐसा तअस्सुर-ओ-दिल-आवेज़ी, वदीअ’त फ़रमाई है कि अक्सर शीआ फ़िर्क़ा के अफ़राद ने हज़रत के साथ गुफ़्तुगू की और वो महज़ आप की बातों से इस क़दर मुतअस्सिर हुए कि अपने फ़िर्क़ा के अक़ाएद से ताइब हो कर मज़हब-ए-अह्ल-ए-सुन्नत-वल-जमाअत के पैरौ हो गए।
बहुत से अह्ल-ए-कुफ़्र भी आप की तवज्जोहात की बरकत-ओ-सआ’दत से रौशनी -ओ-रहनुमाई हासिल कर के अपने मसलक-ए-कुफ़्र-ओ-काफ़िरी से बेज़ार हो कर इस्लाम के दीन-ए-मुबीन पर आ गए।
मेरे हज़रत के नफ़्स को अल्लाह पाक ने मो’जिजज़े की सी ख़ूबी बख़्शी है कि वो तालिबान-ए-सादिक़ में से जब किसी को मश्ग़ूल ब-हक़ फ़रमाते हैं और रोज़-ए-अव्वल जब उस को तरीक़ा-ए-शुग़्ल की तल्क़ीन करते हैं तो वो शख़्स आप की तवज्जोह की बरकत और आप की सोहबत की सआ'दत से कुछ इस तरह बहरा-वर होता है तो सरवर-ए-कायनात, फ़ख़्र-ए-मौजूदात , रसूल-ए-मक़बूल को और आप के चारों ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन को और अस्हाब-ए-किराम(रिज़वानुल्लाह ता’ला अलैहिम अजमईन)को, जो इस मज्लिस में रौनक़-अफ़ज़ा होते हैं,मुआइना-ओ-मुशाहेदा करता है और वह शख़्स इस मज्लिस पुर-तक़्दीस में रहते हुए रसूल-ए-मक़बूल से हम-सुख़नी के मर्तबा-ए-ख़ास पर सरफ़राज़ होता है और अपने मतालिब को आप के हुज़ूर में पेश करता है और आप के मुक़द्दस-ओ-मुबारक लबों से उस का जवाब-ए-बा-सवाब सुनता है और इसी तरह वो औलियाउल्लाह से हम-कलाम होता है और उन के साथ गुफ़्त-ओ-शुनूद में हिस्सा लेता है और उन में से ऐसे भी हैं जिन्हें इस मुराक़िबा-ए-अव्वल में कश्फ़-ए-आ’लम-ए-मलकूत हासिल हो जाता है और वह उस मोहब्बत-ए-मुक़द्दस की बरकत से आ’लम-ए-मलकूत की सैर करता है और वहाँ के अ’जाइबात (आ’लीया) की सैर करता है।
आप के उन यारान-ए-मक़बूल में से बा’ज़ वो भी होते हैं, जिन्हें शुऊर-ए-ज़ात और तसव्वुर-ए-वहदत कुछ इस तरह मुयस्सर आता है कि वो हज़रत की तवज्जोहात की बरकत से मुशाहेदा-ओ-मुआइना करता है। ख़याल-ए-ग़ैर से पाक –ओ-साफ़ हो जाता है और उस पर मुशाहेदा-ए-जल्वा-ए-हक़ से एक वज्द-ओ-कैफ़ का आ’लम तारी होता है जिस पर वो रफ़्ता-रफ़्ता क़ाबू पाता है और यह शोरिश-ए-अहवाल कुछ कम होती है हक़ सुब्हानाहु ता’ला ने मेरे मुर्शिद को वो क़ुव्वत मरहमत फ़रमाई है कि अगर कोई सिद्क़-ओ-ख़ुलूस के साथ ये चाहता है कि वो ख़ुदा तक पहुंच जाये तो आप के नफ़्स-ए-क़दमी असर के ब-दौलत वो बहुत जल्द अपनी मुराद को पा लेता है इस मआ’नी को आप ने बहुत सी रुबाईयात में बयान किया है। उन में से चंद रुबाईयात तयम्मुनन-ओ-तबर्रुकन यहां पेश की जाती हैं।
रुबाई:
हर कस कि दरोग़ गुफ़्त उरा अस्त गुनाह
गोयम सुख़न-ए-रास्त, ख़ुदा हस्त गवाह
चूँ मुल्ला शाह याफ़्त, राह ता दरगाह
दर वास्त, बर वै मुख़्लिस-ए-मुल्ला शाह
जिस शख़्स ने झूट बोला गुनाह उस की गर्दन पर है। मैं तो ख़ुदा-गवाह है कि सच्च बात कर रहा हूँ।जब मुल्ला शाह को बारगाह-ए-इलाही तक पहुंचने का रास्ता मिल गया अब जो शख़्स भी मुल्ला शाह का मुख़्लिस होगा वो इस रास्ते से दरवाज़ा-ए-हक़ तक पहुंच जाएगा।
रुबाई:
ता मुद्दत-ए-बीस्त साल दर जुस्तुजू
दीदेम कि ज़ाहिरन बयायमश बू
तहक़ीक़ शुद ईं दर तलब-ए-ख़ुद बूदेम
मा’लूम शुद ईं रम्ज़ कि ख़ुद बूदेम उ
बीस साल हम ने उस की तलाश-ओ-जुस्तुजू में गुज़ार दिए तो मा’लूम हुआ कि हम आ’लम-ए-ज़ाहिर में भी उस की ख़ुशबू को पा सकते हैं। ये बात तहक़ीक़ है कि हम उस की तलब में नहीं ख़ुद अपनी तलाश में थे और बिलआख़िर ये राज़ खुला कि हम ख़ुद वो ही तो थे जिस को हम ढूंढ रहे थे।
अन्दर बुते आँ निगार-ए-शोख़-ओ-सरमस्त
बूदम कि शवम ज़े ला’ल-ए-उ मस्त-ए-अलस्त
नागह यके ब-जानिब-ए-ख़ुद दीदेम
दर सीना-ए-ख़ुद याफ़्तमश दस्त-ब-दस्त
हम उस मा'शूक़-ए-बेहमता और निगार-ए-शोख़-ओ-सरमस्त की जुस्तुजू में मारे मारे फिरते रहे और इस तमन्ना में रहे कि इस के ला’ल-ए-शकर के बोसा से कभी हम भी मस्त-ए-अलस्त हो जाएँ नागाह हमारी नज़र ख़ुद अपने उपर पड़ी तो एहसास हुआ कि वो तो हमारे दिल में बैठा है और उस का हाथ हमारे हाथ में है।
रुबाई:
तौहीद ज़े अह्ल-ए-राज़ कर्दी मा रा
दर मसनद-ए-इज़्ज़-ओ-नाज़ कर्दी मा रा
मा रा बख़्शुदी सिफ़त-ए-इस्तिग़्ना
शाद बाश चूँ बे-नियाज़ कर्दी मा रा
तू ने अह्ल-ए-राज़ में से हमें इंतिख़ाब किया और इज़्ज़त-ओ-नाज़ की मसनद पर जगह दी,हम को बे-नियाज़ी की सिफ़त से मुत्तसिफ़ किया, ऐ ख़ुशा कि तू ने हमें इस्ति़ग़्ना की दौलत से माला-माल किया।
गर मैल-ए-दिलत मा'रिफ़तुल्लाह अस्त
अज़ ख़ूबी-ए-मा'रिफ़त दिलत आगाह अस्त
ऐ गुरसन: ख़्वान-ए-गदाईयाँ चिह् ख़ूरी
शीरीं-ओ-चर्ब लुक़्मा पेश-ए-शाह अस्त
अगर तेरा दिल मा'रिफ़त-ए-इलाही की तरफ़ माइल है और इरफ़ान-ए-हक़ की कशिश से तेरा दिल आश्ना है , तो समझ ले कि कोई भूका गदा-गरों के दस्तर-ख़्वान पर बैठ कर क्या खाएगा,वहाँ तो है ही कुछ नहीं। अगर तुझे मुरग़्ग़न-ओ-शीरीं लुक़्मा चाहिए तो वो बादशाह के दस्तर-ख़्वान की चीज़ है वहीं जा कर तुझे लज़्ज़त-ए-काम-ओ-दहन मुयस्सर आएगी।
रुबाई:
आँ कस कि अज़ रु-ए-सिद्क़ दौलत-ख़्वाह अस्त
उ रा ब-सू-ए-दौलत राह अस्त
दौलत या’नी मा'रिफ़त-ए-ज़ात-ए-मुतलक़
ईं दौलत, दर ख़ाना-ए-मुल्ला शाह अस्त
जो शख़्स कि सिद्क़-ओ-ख़ुलूस के साथ तमन्ना-ए-दौलत रखता है उस से कह दो कि दर-ए-दौलत की तरफ़ तो रास्ता खुला है। दौलत दर अस्ल मा'रिफ़त-ए-ज़ात-ए-मुतलक़ है या दौलत-ए-बेदार मुल्ला शाह के दर-ए-दौलत से मुयस्सर आई है।
रुबाई:
आँ कस कि ज़े राह-ए-मा'रिफ़त आगाह अस्त
मुल्ला शाह अस्त कि आरिफ़-ए-ईं राह अस्त
अज़ तासीर-ए-ज़बान-ए-उ मा’लूम अस्त
कि इमरोज़ मुलक़्क़ब, ब-लिसानुल्लाह अस्त
जो शख़्स कि राह-ए-मा’रिफ़त से आगाही रखता है वो मुल्ला शाह है कि नशेब-ओ-फ़राज़ से ब-ख़ूबी वाक़िफ़ है। उस की ज़बान की तासीर से मा’लूम होता है कि वो आज ‘लिसानुल्लाह’ के लक़ब से बजा तौर पर मुलक़्क़ब है।
रुबाई:
अज़ हक़ ब-समा नुज़ूल-ए-अस्मा गर्दद
इसमे दरख़ोर-ए-कस मुहय्या गर्दद
शाहम ब-उमीद-ओ-दौलत-ए-शाही दाद
ता इस्म मुवाफ़िक़-ए-मुसम्मा गर्दद
सरा पर्दा-ए-बारगाह-ए-हक़ से जब आसमानों पर नुज़ूल-ए-अस्मा होता है और जो नाम जिस शख़्स के मुनासिब होता है वो उस को दिया जाता है। उस वक़्त मेरा नाम बादशाह रखा गया और मुझे दौलत-ए-शाही अ’ता की गई ताकि मेरा नाम मेरे इस्म के साथ इस्म बा-मुसम्मा हो जाए।
रुबाई:
मा रा ब- मताअ'-ए-दुनिया-ओ-ब-उक़्बा नीज़
बे-सामानीम मुफ़्लिस-ओ-बे-हम: चीज़
गुफ़्तन न-तवाँ दरोग़ आरे दारेम
सामाँ ब-हक़ रसानदन यार-ए-अ’ज़ीज़
हमें मताअ'-ए-दुनिया-ओ-उक़्बा कुछ भी तो हासिल नहीं, हम बे-सामान मुफ़्लिस और बे चीज़ हैं लेकिन उस पर ये झूट नहीं कि हम अपने यार-ए-अज़ीज़ को हक़ तक पहुंचाने के लिए तमाम तर साज़-ओ-सामान रखते हैं।
रुबाई:
ऐ कर्द: फ़राज़ रहमत-ओ-राहत रा
वै बुर्द: फ़रो रियाज़त-ओ-मेहनत रा
शाहा कि तू दर चश्मज़दन ब-नुमाई
ता अर्श-ओ-फ़र्श-ओ-दोज़ख़-ओ-जन्नत रा
ऐ कि तूने राहत-ओ-राहत के दर्जा को बुलंद और रियाज़त-ओ-मेहनत को पस्त कर दिया है।ऐ बादशाह तू पलक झपकने में अर्श-ओ-फ़र्श और दोज़ख़-ओ-जन्नत को दिखला देता है।
रुबाई:
शाहा शक नीस्त ज़े अह्ल-ए-इरफ़ानी तू
अन्दर तौहीद तू मर्द-ए-मर्दानी तू
यारान-ए-तू मर्द-ए-मर्दानंद इमरोज़
ईं तहक़ीक़ हस्त शाह-ए-मर्दानी तू
ऐ मुल्ला शाह, इस में शक नहीं कि तो अह्ल-ए-इरफ़ान में से है और रुमूज़-ए-तौहीद की उक़्दाकुशाई में तो बे-मिस्ल है।आज ऐ मुल्ला शाह तेरे दो मैदान हैं और या बात तहक़ीक़ है कि ये सब इस लिए है कि तू दो मैदाँ है।
रुबाई:
शाहा दारी ख़ान:-ए-दिलहा आबाद
आबाद तोरा ख़ान:-ए-आबादी बाद
ज़ीनसाँ कि तू ई ब-फ़त्ह-ए-दिलहा उस्ताद
फ़त्ताहुलक़ल्ब, बायदत नाम निहाद
ऐ मुल्ला शाह तू अपनी निगाह-ए-मा’रिफ़त आगाह से दिलों की दुनिया आबाद रखता है। अल्लाह पाक तेरे दिल को भी आबाद रखे। जिस तरह तू दिलों की गिरह-कुशाई में दर्जा-ए-उस्तादी रखता है उस के एतिबार से तो तेरा नाम फ़त्ताहुलक़ल्ब रखा जाना चाहिए।
रुबाई:
अज़ ज़ुल्मत रस्त हर कि रू-ए-मह दीद
रू-ए-मह दीद उ हम रू-ए-बे-दीद
ज़े इख़्लास-ए-दुरुस्त हर कि रू-ए-शह दीद
बर हर तरफ़े कि दीद वजहुल्लाह दीद
जिस शख़्स ने माह-ए-ताबाँ का रुख़-ए-ताबाँ देख लिया वो अंधेरों से छुटकारा पा गया और जब चांद पर नज़र पड़ गई और बाक़ी चीज़ें बे-दीदा रह गईं(कि उन पर नज़र-दारी की ज़रूरत ना रही ) जिस ने इख़्लास-ए-दुरुस्त के साथ मुल्ला शाह के चेहरे को देख लिया अब जिस तरफ़ उस की नज़र गई सिवाए वजहुल्लाह के उसे कुछ नज़र ना आया।
मेरे हज़रत मुल्ला शाह अपने हाल-ए-बा-कमाल और मर्तबा-ए-जाह-ओ-जलाल के मुताबिक़ बहुत ही दक़ीक़ और बुलंद बातें कहते हैं और जिस शख़्स के मशाम-ए-जाँ में फ़िल-जुमला बू-ए-इरफ़ाँ पहुंच चुकी है और हक़ीक़त की चाशनी जिस के काम-ओ-दहन को मुयस्सर आ गई है वो ये जान सकता है कि हज़रत-ए-वाला क्या फ़रमाते हैं। जिस ज़ाहिर परस्त-ओ-सूरत बीं गिरोह ने अपने एतिक़ाद के मुताबिक़ उन के दीदा-ए-बसीरत से इनकार को रवा रखा है वो राह-ए-हक़ से ग़ाफ़िल है।
मेरे हज़रत ने इस जमाअ’त के हक़ में फ़रमाया है।
आँहा कि न-दारन्द सर-ए-लुत्फ़ ब-मन
दर अफ़आ'ल-ए-मन हम: दारनद सुख़न
क़ाइल-ए-शरीअ'त मुहम्मद हस्तन्द
लेकिन ब-तरीक़त-ए-मुहम्मद दुश्मन
जो लोग मुझ से लुत्फ़-ओ-मेहरबानी का रिश्ता नहीं रखते और मेरे अफ़आ'ल-ओ-आ’माल पर जो हर्फ़गीरी करते हैं वो शरीअ'त-ए-मुहम्मद के क़ाइल हैं लेकिन ये नहीं देखते कि वो तरीक़त–ए-मुहम्मदी के दुश्मन हैं।
हज़रत मुल्ला शाह आज के क़ुतुब-ए-ज़माँ और हमारे अपने अह्द के ग़ौस-ए-दौरां हैं और तालिबान-ए-हक़ के मिस-ए-वजूद को कुन्दन बनाने के लिए इक्सीर का हुक्म रखते हैं और आज दुनिया गोया उन के वजूद-ए-मुनफ़रिद के सहारे क़ायम है।वो सआ’दत-मंद कितने ख़ुश-क़िस्मत–ओ- अर्जुमंद हैं कि हज़रत-ए-वाला के इरादत मंदों के नूरानी हलक़ा में शामिल हैं। उन इरादत मंदों ने आप से तअल्लुक़-ए-ख़ातिर और रिश्ता-ए-अक़ीदत को अपना हिर्ज़-ए-जाँ बना रखा है और आप के दामन को अपनी इरादत-मंदी के हाथों से थामे हुए हैं। और दीन-ओ-दुनिया में अपना मुक़्तदा और पेशवा क़रार दिया है। मुरीदों की तर्बीयत-ओ-पर्दाख़्त का जो मलिका हज़रत को बारगाह-ए-क़ुद्सीयत पनाह से बख़्शा गया है वो बरसों क़रनों में जा कर कहीं मिलता है।
ज़े हर कस नायद ईं उस्ताद-ए-शागिर्दी, ना हर गौहर
बदख़्शाँ बाशद,-ओ-हर संग-रेज़:, ला’ल-ए-रुख़शानश
हर कस-ओ-ना-कस के बस की बात नहीं कि वो इस तरह उस्ताद बने और इस दर्जा पर शागिर्दी का हक़ अदा करे ना हर मोती बदख़शाँ से आया है और ना हर संग-रेज़ा लाल-ए-रुमानी की शक्ल इख़्तियार करता है।
हज़रत-ए-वाला ख़ुद अपनी ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाते हैं कि मेरी कोई नमाज़ क़ज़ा नहीं हुई और ना अल्लाह पाक ने मुझे किसी ऐसी बीमारी या आ’रिज़ा में मुब्तला किया कि मैं अदायगी-ए-नमाज़ से क़ासिर रहूं।मैं ने हमेशा वक़्त पर नमाज़ अदा की है और आज तक यही सूरत है।आप इस बात की तरफ़ ख़ुसूसन बहुत तवज्जोह फ़रमाते हैं कि नमाज़ वक़्त पर अदा की जाये और बा-जमाअ’त अदा की जाये।
मुल्ला मुहम्मद सईद की मौजूदगी में किसी दूसरे को इक़ामत के फ़राइज़ नही सौंपते। [ कि वो हज़रत-ए-वाला के मुरीदान-ए-ख़ास और यारान-ए-बा-इख़्लास में से हैं ] [और साहिब-ए-रियाज़त-ओ-मुजाहिदा और अह्ल-ए-हाल-ओ-मक़ामात-ए-आलीया हैं ] और जब मुल्ला मुहम्मद सईद नहीं होते तो ख़ुद इक़ामत फ़रमाते हैं और ज़ाहिर-ए-शरीअ'त की मुताबअ’त पर बहुत ज़ोर देते हैं और फ़रमाते हैं कि शरीअ'त में ज़ाहिर-ओ-बातिन का कोई फ़र्क़-ओ- इम्तियाज़ नहीं।
बस हर मुस्लमान और सालिक-ए-राह-ए-हक़ को चाहिए कि वो ख़ुद को ज़ाहिर-ए-शरीअ'त से आरास्ता रखे और अपने बातिन को शरीअ’त के बातिन के मुताबिक़ [ कि वो ऐ’न मुताबिक़ है ] ढालने की सई करे।
फ़रमाते हैं कि अक्सर उलमा-ए-ज़ाहिर, कि राह-ए-मा’रिफ़त और तरीक़-ए-हक़ीक़त की बू, उनके मशाम-ए-जाँ तक नहीं पहुंची है, हम पर ता’ना-ज़नी और हर्फ़गीरी करते हैं। हज़रत उन लोगों से कहते हैं कि हम से कोई अम्र ख़िलाफ़-ए-शरीअ’त सर-ज़द नहीं हुआ जिसे मज़हब के मुनाफ़ी कहा जा सके और अगर ऐसा है तो हमें बतलाएँ ता कि हम भी जान लें कि हम फ़ुलाँ काम ख़िलाफ़-ए-शरा कर रहे हैं या करते रहे हैं लेकिन चूँकि ये सब बातें वो अज़ राह-ए-गुमान करते हैं इस लिए वो अपने दा’वों के हक़ में कोई दलील फ़राहम नहीं कर सकते।
मेरे हज़रत की सीरत का एक ख़ास पहलू ये है कि वो अहल-ए-दुनिया, ख़ास तौर पर सलातीन-ओ-उमरा, से नज़र-ओ-नियाज़ क़ुबूल नहीं करते अगर कभी ऐसा करते भी हैं तो एक दो रुपया से ज़्यादा नहीं। आप के मुख़्लिसों और मुरीदों में से हर एक आप पर दिल-ओ-जान निछावर करता है, माल-ओ- मताअ' भला क्या चीज़ है? वो लोग जो भी थोड़ी बहुत फ़ुतूह या नज़राना लेकर आते हैं आप उसे क़ुबूल फ़र्मा लेते हैं और उसे दूसरों की मदद-ओ- तआ'वुन पर सर्फ़ करते हैं।
आजकल आप की ख़िदमत में एक या दो शख़्स बतौर-ए-ख़ादिम रहते हैं अवाइल में कोई ख़ादिम बा-क़ायदा नहीं रहता था, हाँ अह्ल-ए-इरादत हज़रत के अह्वाल पर नज़र रखते थे इस दौर में हज़रत बहुत ही ख़ुलूस दोस्त और तन्हाई पसंद थे और तहरीर-ओ-तक़रीर का तसव्वुर हज़रत के ज़हन -ओ-ज़िंदगी पर ग़ालिब था।
हज़रत अक्सर दो ज़ानू पर बैठते हैं। गाह गाह हज़रत की नशिस्त चार ज़ानू और कभी कभी तकिया के सहारे से भी होती है और कभी पांव फैला लेते हैं। कभी ऐसा होता है कि चाँदनी-रात में नशिस्त रहती है और कभी तारीक गोशा को पसंद फ़रमाते हैं।
जब कोई शख़्स हज़रत की ख़िदमत में हाज़िर होता है तो दरयाफ़्त-ए-अहवाल के लिए इस से दो तीन बातें पूछते हैं। तुम्हारा नाम क्या है, तुम कहाँ से आ रहे हो। उस के बाद दस्त-ए-मुबारक फ़ातिहा के लिए उठाते हैं और उस शख़्स को रुख़्स्त फ़र्मा देते हैं लेकिन हज़रत के मुख़्लिस दोस्तों और इरादत मंद साथीयों की जो जमाअ’त आप की ख़िदमत में रहती है उस की बात अलग है। वो सुब्ह-ओ-शाम ख़िदमत में हाज़िर रह कर कस्ब-ए-फ़ुयूज़-ओ-बरकात करते हैं और गोया हमा वक़्त दीदार-ए-फ़ैज़ आसार से नवाज़े जाते हैं।
आप के अह्वाल-ए-शरीफ़ा के बारे में ये बात ख़ुसूसीयत से कही जा सकती है कि आप की ज़िंदगी दवाम-ए-हुज़ूरी और मुशाहिदा-ए-ज़ात-ए-मुतलक़ की मह्वियत से इबारत है।आप का खाना, पीना, बैठना, उठना ग़रज़ कोई अ’मल भी इस से ख़ाली नहीं। इस लिए हमेशा ख़ुशवक़त शगुफ़्ता-ख़ातिर और तबस्सुम ब-लब रहते हैं और तबीअ'त की बद-मज़गी और बे कैफ़ी आप के यहाँ देखने में नहीं आती। कभी कभी ऐसा भी होता है कि फ़र्त-ए-इंबिसात में आप क़हक़हा लगा लेते हैं और गाह गाह हज़रत मज़ाहुल्मोमिनीन के तौर पर कुछ बातें कर लेते हैं। चूँकि हज़रत-ए-वाला को दवाम-ए-मुशाहेदा की सआ’दत भी मुयस्सर है इसलिए लुत्फ़-ओ-ज़राफ़त की बातें भी तौहीद और नुक्ताहा-ए-मा’रिफ़त से ख़ाली नहीं होतीं।
आप हमेशा बेदार रहते हैं और जब गेया दीद-ओ-दीद का सिलसिला आँखों से ओझल होता है तब भी कस्ल-ओ-काहिली या नींद का ग़लबा कि लाज़िमा-ए-बशरियत है आप की रौशन आँखों और पुर-नूर पेशानी से ज़ाहिर नहीं होता।
हज़रत के वुज़ू करने का तरीक़ा ये है कि अक्सर अपने दस्त-ए-मुबारक से पानी डालते और वुज़ू फ़रमाते हैं और ऐसा बहुत कम होता है कि कोई ख़ादिम आप को वुज़ू कराए। हज़रत-ए-वाला का लिबास ये है कि आप ख़िर्क़ा नहीं पहनते,जामा ज़ेब तन फ़रमाते हैं और अह्ल-ए-विलायत की रविश के मुताबिक़ फेटेदार पगड़ी बाँधते हैं,दस्तार हमेशा सफ़ैद होती है और इस के पीछे ताफ़ी रखते हैं। रंगीन कपड़े की दस्तार पसंद नहीं फ़रमाते। कभी गोल ताफ़ी गर्मी-ए-हवा के लिए सर पर रखते हैं और कभी ताफ़ी के गिर्द सरपेच बाँधते हैं।
कपड़ों में कोई ख़ास एहतिमाम नहीं बरतते कम क़ीमत-ओ-बेशक़ीमत जैसा भी कपड़ा मिल जाता है पहन लेते हैं। अक्सर बर्मा का जामा पहनते हैं कि कश्मीर की हवा बहुत ठंड होती है।
खाने की क़िस्म की कोई शैय आप की मंज़िलगाह में नही पकती। मुरीदान-ए-बा-इख़्लास और यारान-ए-ज़वील इख़्तिसास में जो शख़्स भी (हुसूल-ए-सआ’दत के लिए) अपने घर से जो खाना ले आता है आप उसे रग़बत के साथ तनावुल फ़रमा लेते हैं। हज़रत के इरादत-मंदों और मो’तक़िदों में से कोई शख़्स अगर अज़ राह-ए-इख़्लास दा’वत-ए-आश देता है तो आप नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत-ए-मुक़द्दस पर अ’मल करते हुए उसे क़ुबूल फ़रमाते और उस के घर तशरीफ़ ले जाते और जो मा-हज़र वो पेश करता है उसे नोश-ए-जान फ़रमाते हैं।
और कभी ऐसे दोस्तों के साथ मिल कर एक वक़्त खाना खाते हैं कभी दो वक़्त, तआ’म लज़ीज़ हो या ग़ैर-लज़ीज़ उस की कोई ख़ास अहमियत नहीं।कभी सैर तमाशे के लिए सहरा की तरफ़ भी निकल जाते हैं। अगर इस सैर-ए-दश्त-ओ-सहरा के माबैन खाने के लिए कोई चीज़ मुयस्सर नहीं आती तो बे-तआ’म रहते हैं। चूँकि आप की तबीअ’त में गर्मी बहुत है इस लिए हमेशा ठंडी चीज़ें ज़्यादा खाते हैं।
चूँकि कश्मीर-ए-दिल पज़ीर के अतराफ़-ओ- जवानिब का इलाक़ा बहुत ही सर-सब्ज़ –ओ-ख़ुश हुआ है और ज़राफ़त-ओ-लताफ़त में अपनी नज़ीर आप है इस लिए हज़रत-ए-वाला इस दिल-आवेज़ ख़ित्ता की दीद, शादाब वादीयों की सैर और उन वादीयों में गुज़रती जोइबारों और नहरों के तमाशे के लिए जब निकलते हैं [ कि ये अल्लाह पाक की बेहतरीन कारी-गरी-ओ- सनअ'त की सैर है ] अतराफ़-ए-शहर में भी तशरीफ़ ले जाते हैं और चंद रोज़ शहर से बाहर रह कर फिर अपने मुबारक क़दमों और वजूद-ए-मसऊद से शहर और अह्ल-ए-शहर को इज़्ज़त बख़्शते हैं।कभी घोड़े पर सवार होते हैं और अक्सर बे-तकल्लुफ़ी के साथ पियादा सैर-ओ-सफ़र के लिए निकल जाते हैं।इस मुल्क की सवारी तो कश्ती है इसलिए आप गाह गाह कश्ती में बैठ कर भी सफ़र करते हैं।
मेरे मुर्शिद हज़रत मुल्ला शाह के ख़वारिक़-ए-आदात बेशुमार हैं और उन को गिना नहीं जा सकता। अगर कोई शख़्स उन में से कुछ को भी लिखने बैठे तो किताब तैयार हो जाएगी चूँकि हज़रत को उन का इज़हार फ़रमाना अच्छा नहीं लगता इस लिए उन्हें लिखने से मना फ़रमाते हैं। हज़रत की सहल तरीन करामत ये है कि जो कुछ आप के तालिब के बातिन में होता है आप एक नज़र में उसे ज़ाहिर फ़रमा देते हैं।
हज़रत की ये रुबाई इस पर दलालत करती है।
रुबाई:
चूँ लाफ़-ए-मुवह्हिदी ज़नी दर हर गो
बातिन, ज़ाहिर साज़, ज़े कस हर्ज़: मगो
दर आलम-ए-दिल कुन फ़याकून पैदा कुन
वहदत दारी कुन फ़याकून मगो
तू जब तौहीद परस्ती का दा’वा करता है और इसी एक नुक्ता पर तू ने इर्तिकाज़ इख़्यतार किया तो गेंद की तरह लुढ़कते फिरने से किया फ़ायदा। जो बातिन है उस को ज़ाहिर करना बाक़ी हर आदमी से इधर उधर की बात, हर्ज़ागोई से ज़्यादा कुछ नहीं। आ’लम-ए-दिल में कुन फ़याकून की सूरत पैदा कर, जब तुझे रम्ज़-ए-वहदत की शनासाई मिल गई तो अब कुन फ़याकून कहने की ज़रूरत बाक़ी नहीं रही।
मेरे मुर्शिद हज़रत मुल्ला शाह कार-ए-मसीहाई करते हैं। हज़रत ईसा अलैहिस सलाम तो कभी कभी मुर्दों को ज़िंदा करते थे आप हैं कि मुर्दा दिलों को हमेशा के लिए ज़िंदगी बख़्शते हैं। ग़फ़लत,आदमी के लिए मौत से बदतर है और हज़रत के अन्फ़ास-ए-मुक़द्दस की बरकत से ग़फ़लत तालिबान-ए-कमाल के दिल से हमेशा के लिए ज़ायल हो गई।ज़िंदगी इसी बात का इज़हार और इसी हक़ीक़त की रौशन अ’लामत ही तो है।
मेरे मुर्शिद हज़रत मुल्ला शाह बदख़्शी को अल्लाह पाक ने ये क़ुदरत-ओ-क़ुव्वत भी वदीअ’त फ़रमाई है कि वो अगर चाहें, तो इस हदीस-ए-नबवी के ब-मूजिब कि मेरी उम्मत के उलमा अंबिया-ए-बनीइसराईल की तरह हैं [ उलमा-उ-उम्मती क-अंबिया-ए-बनीइसराईल] मुर्दा-ए-ज़ाहिरी को ज़िंदा फ़र्मा दें लेकिन आप करामात की तरफ़ तवज्जोह फ़र्मा नहीं होते बल्कि उस के दरपे रहते हैं कि अपनी करामात और ख़ारिक़-ए-आदात को दुनिया से छुपाए रखें, और कभी कभी तो ये मिस्रा बे-इख़्तियार आप की ज़बान पर आता है:-
कश्फ़ रा, कफ़श साज़-ओ-बर सर ज़न
[कश्फ़ को कफ़श या'नी जूता बना ले और अपने नफ़्स के सर पर मार]
और तक़रीबन बीस साल हो गए कि हज़रत-ए-वाला ने (अल्लाह पाक आप को सलामत बा-करामत रखे ) शहर-ए-कश्मीर (श्रीनगर) को अपना वतन बना लिया है और इस तरह वो सरज़मीन हज़रत के क़ुदूम-ए-लुज़ूम की बरकत से रश्क-ए-आसमान बनी हुई है। आप ने यह रुबाई अपने क़याम-ए-कश्मीर से मुतअ’ल्लिक़ फ़रमाई है।
रुबाई:
उफ़्ताद ब-गोश:-ए-आ’लम आ’लम गीरम
वाँ गोशा:-ए-ब-कशमीर बुवद ता’मीरम
शम्अ’ए ब-दरून-ए-कूज़: रौशन शुद
माही ब-दरून-ए-चाह शुद दिलगीरम
मैं ने ये ख़्वाब देखा था कि एक गोशा में पड़ा हूँ और दुनिया-जहाँ मेरे तसर्रुफ़ में है। वो गोशा, शहर-ए-कश्मीर है जो मेरे इस ख़्वाब की ता’बीर बन गया। मेरी मिसाल उस शम्अ’ की सी है जिसे किसी कूज़ा में रौशन कर दिया गया या दूसरे लफ़्ज़ों में यूं कहिए कि मैं वो मछली हूँ कि वो पानी में तो है लेकिन दजला-ओ-दरिया में नहीं कुँए में है।
अल-हक़ कि हज़रत-ए-वाला अब सिवाए कश्मीर के कि वह एक गोशा-ए-विलायत है कहीं उधर नहीं जाते और वहीं रौनक़ अफ़रोज़ रहते हैं। और वहीं से एक आ’लम उन से फ़ैज़ उठाता है और हज़रत के सिलसिला से वाबस्ता अह्ल-ए-इरादत [ अल्लाह पाक आप को सलामत–ओ-ज़िन्दा रखे ] आप की नज़र-ए-कीमिया असर की ब-दौलत साहिबान-ए-कमाल और अह्ल-ए-मुरादात बन गए हैं। लेकिन आज हज़रत के मुरीदों और मुख़्लिसों में से मुल्ला मुहम्मद सईद अपने हम-चश्मों में सब से मुमताज़ और सरबर आवर्दा हैं। उन की अस्ल भी रोशताक़, इलाक़ा बदख़्शाँ से है और हज़रत वाला से निस्बत-ए-ख़्वेशी भी रखते हैं। आप की ख़िदमत में रह कर उन्हों ने उलूम-ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी का ख़ज़ाना जमा’ कर लिया है और साहिब-ए-मक़ामात-ओ-मरातिब-ए-आ’लीया बन गए हैं और हज़रत वाला आप के हाल पर तवज्जोह फ़रमाते हैं।अगर मुल्ला मुहम्मद सईद हाज़िर होते हैं तो किसी दूसरे को कार-ए-इमामत सिपुर्द नहीं फ़रमाते। मुल्ला साहिब का बहुत अदब करते हैं चूँकि हज़रत की रिहाइश-गाह मुल्ला मुहम्मद सईद के मकान के क़रीब है तो अक्सर अपनी तशरीफ़ आवरी से उन की इज़्ज़त बढ़ाते हैं और उनके बेटों को अपने बच्चों की तरह समझते हैं और बहुत लुत्फ़-ओ-मेहरबानी से पेश आते हैं।
हज़रत-ए-वाला के साहिब-ए-निस्बत मुरीदों में दूसरे मुल्ला मिस्कीन हैं। वो भी मुल्क-ए-बदख़्शाँ के रहने वाले हैं। साहिब-ए-रियाज़त-ओ-अह्ल-ए-मुजाहिदा और हाल–ओ-मक़ामात-ए-जलीला से हैं और अपने मुरीदों में से हज़रत-ए-वाला जिन को इब्तिदाअन तलक़ीन-ओ-इरशाद की मंज़िल से गुज़ारते हैं। उन्हें मुल्ला मुहम्मद और मिस्कीन ही के सिपुर्द करते हैं कि उन्हें मश्ग़ूल करें। (यानी तवज्जोह फ़रमाएँ और ज़िक्र-ओ-शुग़्ल की तलक़ीन करें)
मुल्ला मिस्कीन भी उलूम-ए-ज़ाहिरी से हिस्सा-ए-वाफ़िर रखते हैं और उलूम-ए-बातिनी को हज़रत की ख़िदमत की बरकत ओर शरफ़-ए-मुलाज़मत के बाइस उन्हों ने बड़े पैमाना पर इक्तिसाब किया है।अवाएल-ए-हाल में ये सिपाही थे जब तलब-ए-राह-ए-हक़ और ख़ुदा जोई का ख़याल उन पर ग़ालिब आ गया तो सिपाह- गीरी को तर्क किया। दस साल तक वो इसी जुस्तुजू में रहे और कई मर्तबा इस ख़याल से हज़रत मियाँ मीर की ख़िदमत-ए-अक़्दस में भी पहुंचे।मुरीद करने और मश्ग़ूल फ़रमाने की दरख़्वास्त की। मुल्ला मिस्कीन की तरफ़ से इस इल्तिमास ने शरफ़-ए-क़ुबूलियत हासिल नहीं किया तब आप उधर से मायूस हो कर मेरे अखुंद हज़रत मुल्ला शाह की ख़िदमत में आए।
हज़रत-ए-वाला ने शुरू में इस ख़्वाहिश को रद्द किया यहाँ तक कि जब आख़िरी बार हज़रत की ख़िदमत में बाज़-याब हुए और हज़रत-ए-वाला ने उन को तलब-ओ- इरादत में पूरी तरह रासिख़-ओ-वासिक़ पाया,रास्त-निहाद और साबित-क़दम देखा तो अज़ राह-ए-इनायत क़ुबूल करते हुए उन को अपना मुरीद किया और मश्ग़ूल फ़रमाया।चुनांचे बहुत थोड़ी सी मुद्दत में मुल्ला मिस्कीन आरिफ़-ए-कामिल बन गए। आज कल कश्मीर में क़याम है और शब-ओ-रोज़ आस्तान-ए-सआ’दत पर हाज़िर रहते हैं।मैं अल्लाह ता’ला के करम-ए-बे-इनायत से उमीदवार हूँ कि मुझे भी ये दौलत अर्ज़ानी फ़रमाई जाएगी। अब इस के मा-सिवा कोई ख़याल और ख़्वाहिश मेरे दिल में ख़ुतूर नहीं करती।
मेरे मुर्शिद हज़रत मुल्ला शाह बदख़्शी के दूसरे सआ’दत-मंद मुरीदों में मुल्ला मुहम्मद हलीम हैं कि उन को आप ने अपना बेटा बना लिया है और फ़र्ज़ंदी के इस ख़िताब से दीन-ओ-दुनिया में सर-बुलंदी बख़्शी।
मुहम्मद हलीम का नाम गुल बैग है।वो भी विलायत-ए-बदख़्शाँ से तअ'ल्लुक़ रखते हैं। हज़रत-ए-वाला दूसरे अहल-ए-इरादत की ब-निस्बत मुहम्मद हलीम के साथ ज़्यादा मेहरबानी-ओ-इनायत फ़रमाई से पेश आते हैं और तवज्जोह-ए-बातिनी और एतिक़ाद-ए-दिली भी उन की तरफ़ कुछ ज़्यादा है।आप ने उन को मश्ग़ूल किया है और हज़रत के अपने तरीक़ में जो मुजाहिदात और रियाज़तें आई हैं मोहम्मद हलीम ने वह सब की हैं और उस का सिलसिला जारी है। इस के नतीजा में वो साहिब-ए-हालात-ओ-मक़ामात हो गए हैं।
हज़रत-ए-वाला मुहम्मद हलीम की बहुत तारीफ़ फ़रमाते हैं और वो आप की ख़िदमत में मिस्ल अपने बुज़ुर्ग बाप के, दूसरों की ब-निस्बत ज़्यादा क़रीब होते हैं। हज़रत-ए-वाला ने उन को नौकरी करने की इजाज़त भी दे रखी है इसलिए वो जवान-ए-सिपाही पेशा हैं।
दूसरे मुरीदों में मुल्ला मुहम्मद अमीन कश्मीरी, मुल्ला अबदुलग़नी कश्मीरी-व- मुल्ला हबीबउल्लाह [ कि वो सब साहिब-ए-उलूम-ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी हैं ] और हज़रत मुल्ला शाह (साहिब ) ने उस गिरोह-ए-हक़ के हक़ में ये रुबाई फ़रमाई है।
रुबाई:
ऐ ताफ़्त: बर रू-ए-तू नूरे ज़े इलाह
ज़ाँ नूर, ब-रु-ए-हम: ब-कुशाई राह
यारान-ए-तू ओलिया-ए-वक़तन्द हम:
नाज़म ब-तू शाह-ए-औलिया, मुल्ला शाह
ऐ कि तेरे चेहरे पर अनवार-ए-इलाहिया का परतव मौजूद है इस नूर से तू दूसरों को मुनव्वर-ओ-बहरा-वर कर। तेरे दोस्त तो सभी अपने वक़्त के औलिया हैं ऐ मुल्ला शाह तो शाह-ए-औलियाउल्लाह है, मैं तुझ पर फ़ख़्र-ओ-नाज़ करता हूँ।
उन के मा-सिवा भी बहुत हैं कि हालात-ए-आ’लीया और मक़ामात आ’लीया पर फ़ाइज़ हैं और ये वो लोग हैं जिन्हों ने मेरे मुर्शिद की ख़िदमत-ओ- मुलाज़मत को सर ता सर मूजिब-ए-बरकत-ओ-सआ’दत गरदाना है। ऐसे औक़ात-ए-शरीफ़ में दाख़िल और किया है और उसी वसीले से उन्हों ने सआ’दत-ए-दारैन-ओ-मुरदात भी हासिल की हैं।
उन में से हर एक से हालात की तहरीर-ओ-निगारिश पर अगर तवज्जोह दूँ तो ये रिसाला जिस का इख़्तिसार इस ज़ईफ़ा के पेशनिहाद-ए-ख़ातिर है तवील खींचेगा और दफ़्तर दफ़्तर हो जाएगा इसलिए इसी मुख़्तसर बयान पर इक्तिफ़ा किया।
( ब )
इस ज़ईफ़ा का ज़िक्र-ए-अहवाल
मैं ने हज़रत मुल्ला शाह के हालात को (जो सआ’दतों और नेकियों से भरे हुए हैं) मुख़्तसर बयान कर दिया है।
अब मुझ ज़ईफ़ा की ये ख़्वाहिश है कि अपने भी कुछ हालात लिखूँ और इस में अपने मुरीद होने ,दुनियावी ख़्वाहिशात और तरग़ीबात से इज्तिनाब बरतने, हज़रत से इरादत-ओ-एतिक़ाद पैदा करने से लेकर इस रिसाला की तहरीर तक जो वक़ूआ'त पेश आए हैं उन को बयान करूँ।अगरचे ये बात आईन-ए-अदब से दूर है कि जहां मैं हज़रत-ए-वाला के हालात क़लमबंद करूँ वहीं अपने अहवाल को भी ज़बान-ए-क़लम पर लाऊँ लेकिन चूँकि हज़रत के मुरीदों के हालात भी तहरीर में आए हैं इसलिए मैं उसे वज्ह-ए-सआ’दत और अपने लिए बाइस-ए-बरकत ख़याल करती हूँ कि इन सुतूर में मेरा भी कुछ ज़िक्र आ जाए।
मा’लूम हो, कि इस ज़ईफ़ा की उम्र बीस साल थी जब से वो सिलसिला-ए-आ’लिया-ए-चिश्तिया में सच्ची इरादत और पक्की अ’क़ीदत रखती है,और हज़रत-ए-ख़्वाजगान-ए-चिशत (क़ुद्सी-ए-असरार ) बिलख़ुसूस पीर-ए-दस्तगीर, क़ुतुबल-औलिया, सय्यदुल अतक़िया, क़ुदवा-तुल-आरिफ़ीन, ज़ुबदातुलৃ वासिलीन, शैख़ुल मुहक़क़िक़ीन, ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिशती अजमेरी रहमतुल्लाहि अलैहि की अ’क़ीदत का रौशन हल्क़ा इस फ़क़ीरा ने अपने गोश-ए-जाँ में पहन रखा है अब से चंद साल पहले की बात है जब ये ज़ईफ़ा हज़रत के रौज़ा-ए-मुबारक की ज़ियारत के लिए अजमेर शरीफ़ हाज़िर हुई थी उस के बाद से हज़रत मुईनुल-हक़ वालिदैन के साथ बंदगी-ओ-इख़्लास का रिश्ता दिन ब-दिन ज़्यादा मज़बूत होता गया और आप से दिली वा-बस्तगी बढ़ती रही। अल्लाह जल्ला शानुहु ने महज़ अपने लुतफ़-ओ-करम से इस फ़क़ीरा-ए-बे-बिज़ाअ’त के दिल में राह-ए-हक़ के लिए तलब और ज़ौक़-ओ-जुस्तुजू की ये हालत पैदा की यहां तक कि सन एक हज़ार-ओ- चहल-ओ-नहुम हिज्री में , अपने वालिद के साथ (अल्लाह पाक उन के मुल्क-ओ-सल्तनत को हमेशा बाक़ी रखे) में मुमालिक-ए-मारूसा-ए-पंजाब (लाहौर) आई अल्लाह पाक ने ज़िल्ल-ए-सुबहानी को ताअ’त-ओ-हक़-शनासी-ओ-दीन पनाही की तौफ़ीक़ अपने बुज़ुर्गों से ज़्यादा बख़्शी है कि आप के वालिद (जहांगीर) और आप के दादा (अकबर) इस सआ’दत से महरूम रहे। हज़रत जहांपनाह को इस तरह तौफ़ीक़-ए-एज़दी ने ख़िदमत-ए-इस्लाम और तरवीज-ए-दीन-ए-मुहम्मदी के मुक़द्दस काम की अंजाम-देही के लिए इंतिख़ाब फ़रमाया। (ये अल्लाह पाक की बड़ी इनायात औरर बख़्शाइशों में से है )
मुझे अपने भाई शहज़ादा मुहम्मद दाराशिकोह से बेहद मोहब्बत, तअ’ल्लुक़-ए-ख़ातिर और इख़्लास-ए-दिली है जो ज़िल्ल-ए-इलाही के फ़र्ज़ंद-ए-अर्जुमंद, सलतनत के बड़े बेटे, मुम्लिकत-ए-हिन्दोस्तान के वली-अह्द और दौलत-ए-ज़ाहिर-ओ-बातिन के वारिस हैं, हक़ पज़ोह-ओ-बे अंदोह और साहिब-ए-बरकत और सआ’दत हैं सिलसिला-ए-क़ादरिया से मुंसलिक हैं। अल्लाह पाक उन के जलाल-ओ-शकोह को सलामत रखे और उन की उमीदों को बर लाए। (आमीन)
मुझे अपने इस बिरादर-ए-वालानज़ाद से कमाल-ए-यगानगत, सुवरी-ओ-मा’नवी यकजहती, दीनी-ओ-दुनयवी इत्तिहाद की दौलत हासिल है जो मेरे लिए मूजिब-ए-तमानीयत-ओ-मुसर्रत है और शुरू ही से उन के और मेरे माबैन, ये सूरत रही है। हम दोनों दरअस्ल एक रूह हैं जिस को दो अलग अलग क़ालबों में फूँका गया है और एक जान हैं , जिन्हें दो जुदा-जुदा दो जिस्मों में रखा गया है। मेरे ये भाई आरिफ़-ए-कामिल हैं रुमूज़-ए-तौहीद से कुल्ली तौर पर आगाह और रुहानी हक़ाएक़ से बहरा-ए-वाफ़िर रखते हैं। मुझ ज़ईफ़ा को भी हमेशा सुख़नान-ए-हक़ से आगाह करते, औलियाउललाह और मशाएख़-ए-तरीक़त के ज़िक्र और अज़कार सुनाते, उन के हालात-ओ-मक़ामात का तज़्किरा करते और उन के करिश्मा-ओ-करामात और ख़वारिक़-ए-आ’दात को बयान फ़रमाते और मुझे हक़ जोई-ओ-हक़-शनासी की सच्ची राह की तरफ़ बुलाते और उन सआ’दतों और बरकतों के हुसूल की तर्ग़ीब दिलाते रहते थे यहां तक कि साल-ए-मज़कूरा में हज़रत ज़िल्ल-ए-सुबहानी ख़लीफ़तुर रहमानी ने बिरादर-ए-मौसूफ़ को एक लश्कर-ए-अज़ीम की सरबराही इनायत फ़रमा कर काबुल की तरफ़ रवाना फ़रमाया और कुछ वक़्त के लिए अपने और इस क़ुरৃरातुल-ऐन के माबैन मुफ़ारक़त-ए-ज़ाहिरी को ज़रूरी ख़याल किया।
मुझ ज़ईफ़ा और मेरे इस बिरादर-ए-मेहरबान के दरम्यान भी जुदाई वाक़े' हुई और जब हम एक दूसरे से रुख़्सत हो रहे थे तो गिर्या-ओ-ज़ारी से मेरी बुरी हालत थी और मैं बहुत ही बेताब-ओ-बेक़रार हो रही थी और मेरे इस बिरादर-ए-आ’लीक़द्र पर भी एक गोना गिर्या -ए-बे-इख़्तियार तारी था।बहर हाल हम गिर्या-कुनाँ एक दूसरे से जुदा हुए।मैं बहुत दिल-ए-तंग-ओ-शिकस्ता ख़ातिर हो रही थी।
आँ दिल नमानद कश सर-ए-बुस्तान ब-बाग़ बूद
गोइ हमेशा सोख़्ता-ए-दर्द-ओ-दाग़ बूद
अब वो दिल कहाँ रहा जिस को सैर-ए-बाग़-ओ-चमन की हवस थी वो तो आतिश-ए-फ़िराक़ से जल कर हर्फ़-ए-दर्द-ओ-दाग़ रह गया था।
उस वक़्त के बाद मैं हमेशा अपना ज़्यादा वक़्त नमाज़ ,रोज़े, तिलावत-ए-कुरान-ए-पाक और वज़ाइफ़-ओ-दुआ’ में गुज़ारने लगी। वक़्त-ए-विदाअ' मेरे बिरादर-ए-वाला क़द्र ने नफ़हातुल-उन्स के मुता’ला की तरफ़ मुझे ख़ुसूसीयत से तवज्जोह दिलाई थी। मैं ने शहज़ादा वाला तबार के मशवरा के मुताबिक़ किताब-ए-मज़कूर को मुसाहिब-ए-दिल और हिर्ज़-ए-जाँ बना कर रखा। मैं हमेशा उसे अपने मुता’ला में रखती और कभी कभी तो अपनी आँखों से लगाती और किसी वक़्त अपने से जुदा ना करती।
ये किताब औलिया-ए-किबार और सूफ़िया-ए-नामदार के (सआ’दतों से भरे हुए ) हालात पर मुश्तमिल है। इन बुज़ुर्गों के अस्मा-ओ-अज़कार की बरकत से जो दीन के पेशवा थे, मुझे बहुत कुछ फ़ुयूज़-ए-रुहानी हासिल होते इसी अस्ना में हज़रत भी काबुल की तरफ़ तवज्जोह फ़र्मा हुए। बिरादर-ए-वाला के मक्तूबात मिलते और सफ़र-ओ-हज़र में मौसूल होते रहते थे।
मेरे इस बिरादर-ए-वाला ने रास्ता में, दो बुज़ुर्गों की ख़ास तौर पर ज़ियारत की थी और इस की हक़ीक़त मुझे ख़तों में लिख कर भेजी थी कि मैं उन के अहवाल-ए-सआ’दत से आगाह हो जाऊं।उन में से एक शाह दौला हैं जो क़स्बा-ए-गुजरात-ए-ख़ुर्द, में तशरीफ़ रखते हैं, दूसरे हाजी अबदुल्लाह जो ताल जलाल गघरके आस-पास गोशा-गीरी इख़्तियार किए हुए हैं।जब मैं गुजरात पहुंची, मैं ने अपने ख़्वाजा-सरा को नज़्र-ओ-नियाज़ के साथ शैख़ दौला की ख़िदमत में रवाना किया और इज़हार-ए-इख़्लास करते हुए फ़ैज़-ओ-बरकत के लिए इस्तिद्आ’ की (कि वो हज़रत की ज़ात-ए-बा-बरकात से मुझे हासिल हो) लेकिन जो मेरी ख़्वाहिश थी वो पूरी ना हुई और मुझे उन की बारगाह से कुछ नहीं मिला।
उस के बाद जब ताल जलाल गघर की हवेली में गुज़र हुआ तो मैं ने मज़कूरा तरीक़ा पर हाजी अबदुल्लाह के पास भी अपने ख़्वाजा-सरा को तोहफ़े तहाइफ़ के साथ भेजा और उन से भी फ़ैज़-बख़्शी के लिए इल्तिमास किया। हज़रत हाजी साहिब ने मेरी जानिब से पेश किए जाने वाले नज़राना को क़ुबूल किया और उस के जवाब में मुझे एक तस्बीह भेजी और एक रस्मी ज़िक्र के लिए फ़रमाया कि मैं उसे बतौर शुग़्ल इख़्तियार करूँ।
इसी के साथ एक जा-नमाज़ भी मर्हमत फ़रमाई जो उन्होंने अपने हाथों से सी कर तैयार की थी और इसी कस्ब-ए-हलाल से वो बसर-औक़ात करते थे। इन दरवेशाना तहाइफ़ के साथ दो नान भी थे जो मेरे लिए भेजे गए थे। मैं ने इन दोनों रोटियों में से एक रोटी को तोड़ा और उस में से छोटा सा टुकड़ा ले कर खा या। जैसे ही मैं ने ज़रा सा टुकड़ा खाया मैं ने अपनी सफ़ाई, रौशनी, दिलजमई, हुज़ूरी और तमानीयत-ए-ख़ातिर का असर महसूस किया मैं ने तीन रोज़ तक इन रोटियों को अपने पास रखा और अपनी ख़ादिमाओं में से भी अक्सर को उस में से दिया। कहा जाता है कि तीस साल हो गए हाजी अबदुल्लाह ने अपनी रिहायश-गाह से क़दम बाहर नहीं निकाला।
ग़रज़ के चंद मंज़िलें तय करने के बाद हसन-अबदाल में , कि एक बहुत ही पुर-फ़ज़ा मक़ाम है बिरादर-ए-आ’ली वाला शहज़ादा मुहम्मद दारा शिकोह से मुलाक़ात हुई। मैं ने उनकी मोहब्बत -ओ-मुलाक़ात से बहुत कुछ फ़ैज़ पाया और बरकत हासिल की।इन बिरादर ने मुझे कुछ ऐसे तज़्किरे पढ़ने का मशवरा दिया जो बुज़ुर्गान-ए-दीन और मशाएख़-ए-तरीक़त के अहवाल-ओ-अज़कार पर मुश्तमिल है।
मेरा ज़्यादा-तर वक़्त उन्हीं किताबों के मुताले में सर्फ़ होता था। ये अल्लाह का फ़ज़्ल था कि मेरे दिल में तलब-ए-हक़ का जज़्बा पैदा हुआ और मेरा दिल दुनिया और दुनिया के बे-फ़ाइदा कामों की तरफ़ से सर्द होना शुरू हो गया और मैं अपने दिल में कहती थी कि ख़ुदा ता’ला समीअ’-ओ-बसीर (सुनने वाला और देखने वाला है) और अ’लीम-ओ-ख़बीर है और बंदा जो कुछ नेक-ओ-बद कहता है वो सुनता है और जो कुछ अच्छा बुरा अ’मल उस से सर-ज़द होता है वो उसे देखता है। हमें मन्हियात और ग़ैर-शरई कामों से इज्तिनाब करना और जो उम्र इस तरह फ़ुज़ूल और बे-कार बातों में गुज़र गई उस पर अफ़्सोस करना चाहिए।
उन्हीं अय्याम में कि मेरा अह्द-ए-शबाब था मैं रोज़-रोज़ अपने आ’ज़ा-ओ-जवारेह की क़ुदरत–ओ-क़ुव्वत में कमी होती हुई महसूस करती थी और मैं ये बात जानती थी कि मेरे हवास-ए-ज़ाहिरी, मा’रिज़-ए-ज़वाल में हैं। जब मैं ने जान लिया कि इस माद्दी वजूद के लिए फ़ना लाज़िमी है और ज़िंदगी दर्द-ओ-ग़म के सिवा कुछ नहीं पस मैं ने हदीस-ए-नबवी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपने दिल में दुहराया।
‘मूतू क़बला अन तमूतू’ अपनी मौत से पहले मर जाओ’
और कहा कि मैं ऐसी सूरत में, अपने वुजूद को हस्ती-ए-फ़ानी क़रार देकर, अपने दिल को उस ज़ात-ए-मुक़द्दस से क्यों ना लगाऊँ, जो बाक़ी और दाइमी है। ये बात मैं ने अपने जी में ठान ली और उन नमाज़ों को दोहराना शुरू किया जो ज़िंदगी में मुझ से क़ज़ा हुई थी और बा’ज़ औक़ात में उन रोज़ों को भी अदा करना और दुबारा रखना चाहती थी जो मैं किसी वजह से रख नहीं पाई थी। अब मैं ज़्यादा-तर वक़्त ज़िक्र-ओ-शुग़्ल, और अहवाल-ए-मशाएख़ के मुता’ला में सर्फ़ करती थी और इस तरह सफ़र-ए-काबुल की राह, मंज़िल ब-मंज़िल तय हो रही थी।
मेरे वालिद-ए-बुज़ुर्गवार और बिरादर-ए-कामगार उस अज़ीम लश्कर की आसूदगी के ख़याल से पीछे छोड़ते हुए जो आप के हमराह था, आगे बढ़ गए। जब हम काबुल पहुंच गए और बिरादर-ए-वाला भी एक क़लील मुद्दत के बाद हमारे साथ आ गए तो कसरत-ए-अफ़्वाज के सबब शहर-ए-काबुल में क़हत के आसार पैदा हो गए। मजबूरन इस मुहिम और इस मुम्लिकत की तस्ख़ीर का ख़याल तर्क कर दिया गया जो आ’ला हज़रत के पेशनिहाद-ए-ख़ातिर था और जिस की सरबराही बिरादर-ए-वाला को सौंपी गई थी और लश्कर-ए-ज़फ़र असर ने काबुल की तरफ़ रुख़ किया था।
इस अ’तीया-ए-ग़ैब की ज़ुहूर-पज़ीरी से मुझे जिस क़दर मसर्रत-ओ-शादमानी हासिल हुई मैं उसे बयान नहीं कर सकती। मैं ने बारगाह-ए-एज़दी में हज़ार दो हज़ार सज्दाहा-ए-शुक्र अदा किए और जिस बात के लिए मैं ख़ुदा से दुआ' माँगती थी वो मुझे अपने बिरादर-ए-कामगार की थोड़े दिनों की जुदाई के बा'द आ गई।
अब अक्सर में अपने इस बिरादर-ए-वाला के साथ बैठी रहती और हम लोग बाहम हक़-शनासी–ओ-ख़दा जोई की बातें करते रहते थे और उस मुराद के हुसूल के लिए मेरा ज़ौक़-ए-तलब एक के मुक़ाबले में हज़ार गूना बढ़ गया और मा'रिफ़त-ए-इलाही की आतिश-ए-शौक़ ने मेरे दिल को बेतरह रौशन कर दिया।
काबुल में कुछ वक़्त गुज़ारने के बाद आ'ला हज़रत(शाहजहाँ )जो इनायत-ए-एज़दी से बे-इंतिहा क़रीब हैं, मुराजअ'त-ए-लाहौर पर आमादा हो गए और एक हज़ार –ओ-चहल-ओ-नहुम हिज्री अलأनबवी में माह-ए-रजब की 14 तारीख़ को शहर-ए-मज़कूर में दाख़िल हुए।इदराक-ए-हक़ीक़त-ओ-इरफ़ान-ए-इलाही के लिए मेरा शौक़ बराबर बढ़ता जा रहा था चूँकि शहर-ए-लाहौर में बहुत से मशाएख़-ए-तरीक़त और बुज़ुर्गान-ए-दीन सुकूनत पज़ीर-ओ-क़याम फ़र्मा हैं और मुझे ऐसे किसी मुर्शिद की जुस्तुजू थी जो मुझे मा'रिफ़त-ए-इलाही की राह-ए-रास्त पर लगा दे और रुमूज़-ए-तौहीद से आगाही बख़्शे।
मैं ने अपने दिल में तहय्या कर लिया कि जब तक मुझे कोई मुर्शिद-ए-कामिल नहीं मिल जाएगा और मैं उसे अपनी आँख से ना देख लूँगी और उस के हालात-ओ-मक़ामात, अच्छी तरह , मेरे दिल पर ज़ाहिर ना हो जाऐंगे, नीज़ जब तक मेरे बिरादर दाराशिकोह उस से मुत्तलाअ’ और मुतमइन हो कर मुझे बैअ'त की इजाज़त नहीं देंगे मैं चैन से ना बैठूँगी।
मैं ख़ास तौर पर मशाएख़-ए-चिश्त की तलब-ओ-जुस्तुजू में थी और जहां भी मैं किसी गोशा-नशीं बुज़ुर्ग या किसी शैख़-ए-वक़्त के बारे में सुनती थी अपने आदमीयों को भेज कर उस के हाल-ओ-अहवाल की जुस्तुजू करती थी और उन के हालात-ओ-कवाइफ़ से मुत्तलअ’ हो कर उन के पास नज़र-ओ-नियाज़ भेजती थी और उन से किसी शुग़्ल-ओ-ज़िक्र की ख़्वाहिश करती थी। बा'ज़ अकाबिर से शुग़्ल-ओ-ज़िक्र के कुछ तरीक़े भी मा'लूम हुए लेकिन कोई भी दिल-नशीन-ओ-ख़ातिर- निशान ना हुआ और उस से मुझे कोई रुहानी फ़ायदा नहीं पहुंचा।
मुझे हज़रत मियाँ मीर के यारान-ए-तरीक़त-ओ-अह्ल-ए-इरादत के बारे में अक्सर इत्तिला’ याबी की ख़्वाहिश-ओ-कोशिश रहती थी, मैं ने ख़ास तौर पर इस ज़िम्न में ख़्वाजा बुख़ारी से रुजूअ’ किया (जो हज़रत मियाँ जब्बू के अहबाब और वाबस्तगान-ए-सिलसिला में से हैं) और बहुत इलहाह-ओ-ज़ारी के साथ उन से इल्तिमास किया। हज़रत ख़्वाजा बुख़ारी ख़ुद किसी को मुरीद नहीं करते और अब तक उन का कोई मुरीद है भी नहीं। उन्हों ने मुझ को भी मशग़ूल नहीं फ़रमाया लेकिन चूँकि वो मुझ ज़ईफ़ा पर मेहरबानी फ़रमाते थे, मैं गाह गाह उन की ख़बर गीराँ रहती थी।
एक मुद्दत इसी जुस्तुजू और गुफ़्तगु में गुज़र गई लेकिन मुझे कोई ऐसा शैख़ नहीं मिला, जिस के इरशाद-ओ-तल्क़ीन में अपने दिल को तसल्ली दे सकूँ और जिस की रहनुमाई पर पूरी तरह अपनी तमानीयत-ए-ख़ातिर कर सकूँ। मेरी ये ना-याफ़्तगी इसलिए तो ना थी कि आज दुनिया ऐसे अहलुल्लाह के वजूद से ख़ाली हो गई हो।ऐसा नहीं और हो भी नहीं सकता कि ये दुनिया अल्लाह के नेक बंदों और ख़ुदा रसीदा अश्ख़ास से ना पहले ख़ाली थी ना आज है ना आइंदा होगी। ये दुनिया तो उन्हें के वजूद-ए-मसऊद से क़ायम है।
अगर फ़ील-अक़्ल ये आ’लम-ए-ज़ाहिर औलियाउल्लाह के वजूद से एक साअ’त के लिए भी ख़ाली हो जाये जो अल्लाह के नजीब-ओ-नक़ीब हैं जो नेकियों और भलाइयों का सरचश्मा हैं और जिन में कोई अबदाल है, कोई क़ुतुब है और कोई ग़ौस-ए-वक़्त है (रिज़वाननुल्लाहि तआ’ला, अलैहिम अज्मइन ) ये नहीं तो फिर मदार-ए-आलम भी अपनी जगह बाक़ी नहीं रहेगा और दुनिया-ओ-माफ़ीहा का सारा निज़ाम दरहम-बरहम हो जाएगा।
चूँकि शैख़-ए-कामिल की तलाश सालिक के लिए फ़र्ज़-ए-ऐ’न और ऐन फ़र्ज़ है इस लिए ऐसे किसी बुज़ुर्ग के बारे में ख़बर सुनने के लिए मैं हमेशा गोश बर-आवाज़ रहती थी और दीदा-ए-इंतिज़ार को ऐसे किसी भी पीर-ए-कामिल की जुस्तुजू में हमेशा खुला रखती थी, जब तक कोई राह-ए-हक़ का जूया किसी आरिफ़-ए-ज़ात तक नहीं पहुंचता इरफ़ान-ए-हक़ की मंज़िल-ए-मुराद तक उस की रसाई अमर-ए-मुहाल तसव्वुर करना चाहीए क्यों कि किसी पीर की रहनुमाई के बग़ैर हक़ीक़तुलहक़ाइक़ तक पहुंचना ना-मुमकिन है।
अगरचे मेरी ख़्वाहिश ये थी कि इस तरह का कोई मर्द-ए-कामिल तरीका-ए-चिश्तिया में मुयस्सर आ जाए कि यही मेरे हक़ में सब से बेहतर होगा और इस सिलसिला-ए-आ’लिया से वाबस्ता ऐसे बहुत से शैख़-ए-वक़्त और पीर-ए-तरीक़त होंगे जिन को आरिफ़-ए-हक़, वासिल ब-हक़ और दाना-ए-ज़ात-ए-मुतलक़ कहा जा सके और इस सिलसिला-ए-शरीफ़ा के रुत्बा की बुलंदी और दर्जात की बरतरी इस से कहीं ज़्यादा है कि इस की तारीफ़-ओ-तौसीफ़ की जा सके।
लेकिन चूँकि इस फ़िर्क़ा के मशाएख़ मस्तूरुलअहवाल रहते हैं और ख़ुद को दूसरों की निगाह से पोशीदा रखते हैं मैं यह ना कर सकी कि उन में से किसी के हाल-ए-सआदत मआल के बारे में जल्द से जल्द कोई इत्तिला पा सकूँ और मेरी उम्र-ए-अज़ीज़ है, कि गुज़री जा रही है जिस का हर लम्हा एक मताअ’-ए-बे-बहा है,और जब वक़्त का कोई हिस्सा गुज़र जाता है तो फिर वो किसी तरह वापस नहीं मिलता इस पर भी मेरी ज़िंदगी के बेश-क़रार साअ’तें और लम्हे यूँही बे-हासिल और बे-मसरफ़ बीते जा रहे हैं। मेरी उम्र इस वक़्त 27 बरस हो गई है। इस लिए ज़िंदगी का जो सांस आता और जाता है उस के साथ ये ख़्वाहिश और भी शदीद होती जाती है कि जिस सिलसिला में भी कोई आरिफ़-ए-कामिल और मुर्शिद-ए-तरीक़त मिल जाए मैं उस का दामन थाम लूं।
चूँकि मैं अपनी तलब में सादिक़ और अपने इरादा में हर तरह मज़बूत थी और अल्लाह जल्ला शानुहू भी कि मा’बूद-ए-बरहक़ और ख़ुदावंद-ए-मुतलक़ है ये चाहता था कि ये ज़ईफ़ा-ए-नहीफ़ा जो उस की दरगाह अज़ली-ओ-लम यज़ली की सवाली है, महरूम-ओ-मग़्मूम ना रहे और अपनी मुराद को पहुंचे और हक़ीक़तुल हक़ाइक़ की दरयाफ़त और असरार-ए-तौहीद-ओ-रुमूज़-ए-यगानगत की नुक्ता शनासी की सआ’दत ( कि ज़िंदगी की सब से बड़ी दौलत है )से बहरा-मंद हो।
बिना-बरीं उन ही अय्याम में हज़रत कश्मीर की सैर की तरफ़ तवज्जोह फ़र्मा हुए। ये हसीन-ओ-दिलकश सरज़मीन अपनी आब-ओ-हवा की ख़ूबी के लिहाज़ से किसी ता’रीफ़-ओ-तआ’रुफ़ की मुहताज नहीं। उन्हें के साथ ये ज़ईफ़ा भी,माह ज़ीलहिज्जा सन-ए-मज़कूर की 9 तारीख़ को कश्मीर पहुंची। मैं इस इलाक़ा के मशाएख़ और अहलुल्लाह के अहवाल पर कोई इत्तिला ना रखती थी। कश्मीर पहुंचने के क़रीबी ज़माने में,मैं ने सुना कि शहर-ए-कश्मीर आज हज़रत मुल्ला शाह बदख़्शी के वजूद-ए-मसऊद से रश्क-ए-आसमान-ओ-ज़मीन बना हुआ है और दा'वा-ए-यकताई रखता है और हज़रत-ए-वाला हज़रत मियाँ मीर के सिलसिला-ए-आ’लिया से वाबस्ता हैं और आप के बेहतरीन दोस्तों और अह्ल-ए-इरादत में से हैं। हज़रत मियाँ मीर के बारे में कौन नहीं जानता का हज़रत-ए-वाला सर दफ़्तर-ए-औलिया-ए-किबार-ओ-मशाएख़-ए-नामदार हैं। आप दिलों का भेद जानते और ज़ाहिर-ओ-बातिन पर इत्तिलाअ’ रखते हैं और सग़ीर-ओ-कबीर के पेशवा और अ’रब-ओ-अ’जम के मुक़्तदा हैं।
और बिरादर-ए-आ’लीक़द्र दाराशिकोह भी कि दर-अस्ल इस ज़ईफ़ा कि मुर्शिद-ओ-रहनुमा हैं, हज़रत मियाँ जब्बू से निस्बत-ओ-इरादत रखते हैं और उन अय्याम-ए-सआदत फ़र्जाम में लोग हज़रत मुल्ला साहिब की ख़िदमत में आमद-ओ-रफ़्त रखते हैं। उन को हज़रत ने मशग़ूल ब-हक़ फ़रमाया है। उन्हों ने हज़रत-ए-वाला से बहुत कुछ कस्ब -ए-फ़ुयूज़-ओ-बरकात किया है जिस से वो साहिब-ए-हालात आलीया-ओ-मक़ामात-ए-उल्या हो गए हैं और उन्हों ने, तसव्वुर-ए-वहदत के मर्तबा-ए-बुलंद और मक़ाम-ए-तौहीद के मदारिज-ए-अर्जुमंद की शनासाई में रुत्बा-ए-कमाल हासिल किया है और क़ुर्ब-ए-हज़रत-ए-ज़ूलजलाल के रौशन हलक़ा तक उन की रसाई हुई है।
अपने बिरादर-ए-वाला की ज़बान-ए-हक़ीक़त से भी मैं ने हज़रत मुल्ला शाह की बार-बार ता’रीफ़ सुनी थी नतीजा ये कि मैं बेहद सिद्क़-ओ-अ’क़ीदत और इशक़-ओ-इरादत के साथ दिल-ओ-जान से हज़रत की रुहानी शख़्सियत की तरफ़ माइल हो गई और इस हदीस-ए-नबवी के मिस्दाक़ कि जिस ने किसी शैय को तलब किया और उस के हुसूल के लिए जिद्द-ओ-जहद की उस ने उसे पा लिया:-
[मन तलब शैअन वजदा]
और इस तरह मैं अपने मतलूब-ओ-मक़सूद पर फ़ाइज़ हो गई।
और एक मा’नी में गुस्ताख़ी कर के चंद रोज़ के अंदर अंदर मैं ने दो तीन अ’रीज़े इज़हार-ए-अ’क़ीदत-ओ-इख़्लास के तौर पर हज़रत-ए-वाला की ख़िदमत में इर्साल किए और उन में ये शे'र भी लिखा :
गर मुयस्सर शवद आँ रू-ए-चू ख़ुर्शीद मरा
बादशाही चिह् कि दावा-ए-ख़ुदाई ब-कुनम
और नज़्र-ओ-नियाज़ की सूरत में किसी पेशकश को बे-अदबी ख़याल करते हुए पहली मर्तबा अपने हाथ से रोटी पकाई ओर साग तैयार किया और अपने मो’तमिद ख़्वाजा ग़रीब के हाथ उसे भेजा।
शुरू शुरू में हज़रत ने बे-नियाज़ी का इज़हार करते हुए मेरे अ'रीज़ा का कोई जवाब मर्हमत ना फ़रमाया और बड़े इस्ति़ग़ना से काम लिया। लेकिन मेरे अ'रीज़ों को आप मुलाहिज़ा ज़रूर फ़रमाते थे और यह कहते थे कि हमें दुनिया-दारों और बादशाहों से क्या वास्ता। ये ज़ईफ़ा इस पर भी अ’रीज़ों की इरसाल-कर्दगी और ख़िदमत-गुज़ारी के मवाक़े’ को हाथ से ना जाने देती थी और बिरादर-ए-वाला क़दर भी जब बाज़याब-ए-ख़िदमत होते तो मेरी इख़्लास मंदी और हुस्न-ए-अ’क़ीदत को ज़ाहिर फ़रमाते रहते।
जब हज़रत-ए-वाला ने इस ज़ईफ़ा को अपने कश्फ़-ए-बातिन से, सही मा’नी में अपना इरादतमंद और तलब-ए-हक़ में सच्चा पाया और उन्हें ये बात मा’लूम हो गई कि मेरा मतलब तलाश-ए-हक़ के मा-सिवा कुछ नहीं तो आप आमादा-ए-लुत्फ़-ओ-करम हुए और मेरे अ’रीज़ों के जवाब पर कम-कम तवज्जोह फ़रमानी शुरू की।
और मुझे ये पूरी उमीद हुई कि मैं हज़रत के रुश्द-ओ-हिदायत की बदौलत अपने मक़सद-ए-असली-ओ-मा'रिफ़त-ए-हक़ीक़ी में कामयाब हूँगी (इंशा अल्लाह)
और जैसे जैसे बिरादर-ए-आलीक़द्र की सच्चाई से भरी हुई बातों के ज़रीया मुझे हज़रत के उलू-ए-दर्जात और मरातिब-ए-आ’लीया के बारे में मेरी मा’लूमात बढ़ती गईं हज़रत के जमाल-ए-मुबारक को मैं ने कुछ क़रीब से उस वक़्त देखा था जब हज़रत ज़िल्ल-ए-सुबहानी, की हस्ब-ए-ख़्वाहिश हज़रत-ए-वाला ने शाही क़यामगाह पर इस आयत-ए-करीमा के ब-मूजिब तशरीफ़ लाना क़ुबूल कर लिया था।
[अतीउल्लाहा व आतीउर रसूला व उलील-अम्रा मिनकुम]
अल्लाह की इताअ’त करो उस के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की इताअ’त करो और उस की इताअ’त करो जो तुम से साहिब-ए-अम्र हो। नीज़ इस हदीस-ए-नबवी के मुताबिक़ ‘इज़ा दआ’ फ़लयुजिब’ कि कोई दा’वत दे तो उसे क़ुबूल करो।
जब हज़रत रौनक अफ़ज़ा-ए-काशाना-ए-उल्या हुए थे तो मैं ने एक दूसरी जगह से आप को देखा था। आप की नूरानी पेशानी से जो शुआ’एं फूट रही थीं दीदा-ए-हक़-बीन-ओ-चश्म-ए-अ’क़ीदत आईन के लिए वो जल्वे ख़ीरगी पैदा करने वाले थे और हज़रत के इस दीदार की बरकत से मेरा ए’तिक़ाद हज़रत के बारे में बहुत बढ़ गया था।
अब ऐसी सूरत में ,मैं ने जो अपने दिल में शर्तें रखी थीं कि जब तक ऐसे किसी शख़्स को अपनी आँख से ना देखूँगी और उस के अहवाल को अपने आलीक़द्र भाई की ज़बानी ना सुन लूँगी अब ये शर्तें गोया पूरी हो गईं और फ़रेब –ओ-शक की कोई गुंजाइश बाक़ी ना रही तो मैं ने अपने बिरादर-ए-वाला गौहर की विसातत से हज़रत के दामन-ए-सआ’दत को अपने दस्त-ए-इरादत से थाम लिया और आप को अपना मुर्शिद-ए-हक़ीक़ी बना लिया। और हज़रत ने भी कमाल-ए-इनायत और मेहरबानी के साथ (जो अच्छे और सच्चे मुर्शिदों का ऐसे मुरीदों के सिलसिला में जो तलब-ए-सादिक़ रखते हैं ख़ास शेवा होता है ) मुझे अपने दामन-ए-आतिफ़त के साया में लिया और वो अश्ग़ाल-ओ-अफ़्क़ार जो [सिलसिला-ए-क़ादरिया और तरीक़-एৃ-शाबिया में मा’मूलात का दर्जा रखते हैं ] मुझे तल्क़ीन फ़रमाए, और हज़रत वाला के इरशाद-ओ-हिदायत के मुताबिक़ बिरादर –ए-वाला क़दर ने वो मुझ तक पहुंचाए और मुझे मशग़ूल किया।
और जिस रोज़ कि मेरे बिरादर-ए-आलीक़द्र ने हज़रत-ए-वाला के इरशाद के ब-मूजिब और तरीक़ा-ए-शाबिया और सिलसिला-ए-क़ादरिया के ज़ाबता-ए-रूहानियत के मुताबिक़ मुझे मशग़ूल किया और उसी के साथ उस को भी मेरे लिए ख़ातिर-निशाँ बनाया कि मैं हज़रत-ए-वाला, हुज़ूर-ए-रिसालत पनाह, ख़ुलफ़ा-ए-राशिदा और दूसरे औलियाउल्लाह का तसव्वुर कैसे करूँ उसी रोज़ मैं ने ग़ुस्ल किया और पाकीज़ा लिबास पहन कर रोज़ा रखा और शाम के वक़्त उसी बही के फल से जो हज़रत-ए-वाला ने मेरे लिए भेजवाया था, रोज़ा इफ़्तार किया और थोड़ा सा वह खाना खाया जो सही मा’नी में दरवेशाना खाना था, ये मुल्ला मुहम्मद सईद के यहां से आया था और हज़रत ख़ुद भी अक्सर मुल्ला मुहम्मद सईद के घर से आने वाला खाना ही तनावुल फ़रमाते हैं।
बा’द अज़ाँ मैं उस मस्जिद में गई जो मेरी रिहाइश-गाह के एक हिस्सा में है और निस्फ़ शब तक वहां इबादत-गुज़ारी और औराद-ओ-वज़ाइफ़ में मशग़ूल रही और नमाज़-ए-तहज्जुद अदा कर के वहाँ से अपनी ख़्वाब-गाह में आई, और मैं एक गोशा में क़िबला-रू बैठ गई और अपने मुर्शिद की शबीह-ए-मुबारक , हुज़ूर-ए-पुर नूर,रसूल-ए-मक़बूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और आप के ज़ी- क़द्र सहाबा और औलियाउल्लाह की सोहबत में हाज़िर होने का तसव्वुर कर के ज़िक्र-ओ-शुग़्ल में महव हो गई।
जब मेरे दिल में ये ख़तरा गुज़रता है कि मैं तो सिलसिला-ए-चिश्तिया में मुरीद हुई हूँ और ज़िक्र-ओ-शग़्ल में, तरीक़ा-ए-क़ादरिया को इख़्तियार किया है ऐसी सूरत में मुझे तमानीयत-ए-ख़ातिर और कुशायिश-ए-अहवाल मुयस्सर आएगी या नहीं लेकिन जैसे ही में मुतवज्जिह हुई मुझ पर एक ऐसी हालत तारी हो गई जिसे ना ख़्वाब कहा जा सकता है ना बेदारी, मैं ने हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम की मज्लिस-ए-मुक़द्दस को देखा जो आप के चहार यारों, सहाबा-ए-किराम और औलिया-ए-किबार से इस तरह मुज़य्यन थी जैसे आसमान चांद सितारों से होता है और मेरे मुर्शिद-ए-वाला हज़रत मुल्ला शाह और मेरे क़ाबिल-ए-एहतिराम भाई शहज़ादा दाराशिकोह भी इस में मौजूद हैं और आँ हज़रत [सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम] अपनी ज़बान-ए-सिद्क़ से फ़र्मा रहे हैं ऐ मुल्ला शाह तू ने ख़ानदान-ए-तैमूरिया का चराग़ रौशन कर दिया है।
जब उस हालत से वापस आई तो मेरा दिल इस बशारत से बाग़ बाग़ हो रहा था ,फूल की तरह खिला जा रहा था। मैं ने बारगाह-ए-इलाही में सज्दा-ए-शुक्र अदा किया। इस रुबाई का मज़मून मेरी ज़बान पर था।
शाहा तू ई आँ कि मी-रसानद ज़े सफ़ा
फ़ैज़-ए-नज़र-ए-तू तालिबाँ रा ब-ख़ुदा
ब-हर कि नज़र कुनी ब-मक़सूद रसद
नूर-ए-नज़र-ए-तू शुद मगर नूर-ए-ख़ुदा
ऐ बादशाह वो तू ही है जिस का फ़ैज़-ए-नज़र कमाल-ए-सफ़ा–ओ- नूरानीयत के बाइस तालिबान-ए-हक़ को उनकी मंज़िल-ए-मुराद तक पहुंचा देता है तेरी निगह-ए-इल्तिफ़ात जिस पर पड़ती है वो अपने मक़सूद को पहुंच जाता है गोया तेरी आँखों का नूर ख़ुदा ही का नूर है।
इस वजह से कि मैं ने रसूल-ए-मकबूल और आप के अस्हाब-ओ-अहबाब की ज़यारत की थी और हुज़ूर की ज़बान-ए-मो’जिज़ बयान से ये कलमा-ए-बशारत भी मैं ने सुना था ( ऐ मुल्ला शाह तू ने ख़ानदान-ए-तैमूर के चराग़ को रौशन कर दिया है) और मैं ये भी जान चुकी थी कि ये इरशाद-ए-नबुव्वत मेरे दिल में पैदा हुए ख़तरात–ओ-ख़दशात को दूर करने के लिए था।
और यह मेरे क़ाबिल-ए-सद एहतिराम भाई के लिए बड़ी सआ’दत की बात है इसलिए कि ख़ानदान-ए-तैमूरिया के हमीं दो अफ़राद हैं मैं और मेरे बिरादर-ए-वाला शहज़ादा दाराशिकोह, जिन्हों ने तलब-ए-हक़ की राह में क़दम रखा है और अपने दस्त-ए-इरादत से मुल्ला शाह का दामन पकड़ा है ,मेरे अस्लाफ़ में से कोई शख़्स भी इस सआ’दत को हासिल नहीं कर सका और किसी ने भी हम दोनों बहन भाई की तरह हक़-जोई की राह में, क़दम नहीं रखा। मैं ने अल्लाह पाक का हज़ाराँ हज़ार शुक्र अदा किया और उस वक़्त मैं इस क़दर ख़ुश थी कि मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ।
मेरा एतिक़ाद उस दौलत-ए-बेदार के बाइस हज़ार गुना बढ़ गया, मैं ने अ’क़ीदत का ये पटका गोया दस जगह अपनी कमर से बांध लिया और हज़रत के हल्क़ा-ए-इरादत को गोश-ए-जाँ में पहन लिया और समीम-ए-क़ल्ब से हज़रत-ए-वाला को दीन-ओ-दुनिया में अपना मुर्शिद-ओ-मुक़्तदा बना लिया और अपने लिए इस शरफ़-ओ-इम्तियाज़ का ख़याल करके अल्लाह पाक की बारगाह-ए-रहीमी और दरगाह-ए-करीमी में बहुत बहुत शुक्र बजा लाई और अपने दिल में कहा कि ये कितनी बड़ी सआ’दत और मूजिब-सद बरकत है जो इस ज़ईफ़ा-ए-बे-बिज़ाअ’त के हक़ में ज़ुहूर पज़ीर हुई और यह बेहतरीन दौलत है जो मेरे बिरादर-ए-वाला क़दर के हिस्सा में आई और मेरे इस भाई की तवज्जोह और तवस्सुत से मुझ फक़ीरा-ए-राह-ए-तलब को नसीब हुई वो इस से पहले तैमूरी ख़ानदान के अफ़राद में से किसी के हिस्सा में नहीं आई थी।
और दो रोज़ कम छः माह शहर-ए-कश्मीर-ए-जन्नत नज़ीर (श्रीनगर) में मेरा मक़ाम रहा और इस अस्ना में, मैं ने अपने मुर्शिद की ख़िदमत में बहुत से नियाज़ नामे और अ’क़ीदत से भरे हुए ख़त इरसाल किए। हज़रत-ए-वाला ने भी अज़ राह-ए-इनायत-ए-बेनिहायत अक्सर राक़िमा-ए-आसिमा को अपने जवाब-ए-बा-सवाब से सर-बुलंदी बख़शी।
अगरचे हज़रत-ए-वाला को इस दुनिया-ए-फ़ानी की लज़्ज़तों और फ़ाएदों की तरफ़ से कमाल-ए-बे-नियाज़ी-ओ-बे-एहतियाती हासिल है बल्कि सच्च ये है कि आप आख़िरत की नेअ’मतों से भी [ख़ुशनूदी-ए-बारी ता’ला के सिवा] बे-तवज्जुही–ओ-इस्तिग़्ना रखते हैं। लेकिन ये ज़ईफ़ा हुसूल-ए-सआ’दत-ए-दारैन की ग़रज़ से अपने मुर्शिद-ए-कामिल हज़रत मुल्ला शाह को कभी ख़ुशबूओं का तोहफ़ा भिजवाती और कभी तरह तरह के खाने अपने हाथ से तैयार कर के हज़रत की ख़िदमत में रवाना करती, अगरचे मैं ख़िलाफ़-ए-सुन्नत बातों से इज्तिनाब को ज़रूरी ख़याल करती रही हूँ फिर भी मैं ने अपने मुर्शिद के दीदार पुर-अनवार से अपनी आँखों को रौशन किया।
हज़ाराँ-हज़ार ता’रीफ़ें ज़ात-ए-बारी के लिए हैं जो अपने मर्तबा-ए-अहदीयत में फ़र्द है और उस की इलाही सिफ़ात हर तरह के शिर्क और तश्बीह-ओ-तमसील के रिश्ते से बालातर हैं कि ये फ़क़ीरा-ए-बे-बिज़ाअत कि जिस ने अपने सिनिन-ए-उम्र को फ़ुज़ूल बातों में ज़ाया और अपने औक़ात को बे-मसरफ़ सर्फ़ किया, ये महज़ उस का करम और उस की ग़ैबी ताईद थी कि अपनी तलब और तर्क-ए-अलाइक़ के इस दर्जा-ए-आ’ली से सरफ़राज़ किया और उस की वहदत के इदराक की दौलत से मुझे दीन-ओ-दुनिया में अर्जुमंद किया और मेरी तिश्नगी को बह्र-ए-हक़ीक़त की मौज-ए-ज़ुलाल और सरचश्मा-ए-मा'रिफ़त के ज़ुर्आ’-ए-शीरीं से सैराब किया। और मैं उमीद रखती हूँ कि अल्लाह पाक अपने करम-ए-बे-हिसाब और लुत्फ़-ए-बे-पायाँ से इस दौलत-ए-लाज़वाल और इस नेअ’मत-ए-ग़ैर-मुतरक़्क़बा से कि मुझे हासिल हुई है ता-दम-ए-वापसीं मुझ ज़ईफ़ा को ख़ुश-हाल और इस फ़क़ीरा को माला-माल रखेगा और उस सिरात-ए-मुस्तक़ीम पर कि जो हज़रत-ए-हक़ तक रसाई का सब से क़वी वसीला है, मुझे चलते रहना नसीब होगा। और मुझे इन तमाम अश्ग़ाल-ओ-अज़कार की तौफ़ीक़, इस कमतरीन ख़लायक को उस की बारगाह से की जाती रहेगी जो इस सिलसिला-ए-शरीफ़ा-ए-और तरीक़ा-ए-शाबीया के मा’मूलात में से हैं। और अपनी याद की लज़्ज़त को इस बे-बिज़ाअ’त के काम-ए-जाँ के लिए शीरीं बनाएगा और अपनी बख़्शिश-ए-लाज़वाल के तौर पर अपने ज़ौक़-ए-तलब को मेरे दिल में दिन-ब-दिन बढ़ाता रहे गा।
और मेरे मुर्शिद-ए-वाला हज़रत मुल्ला शाह [कि मेरी जान आप के नाम पर फ़िदा हो ]अपने मुरीदों और राह–ए-हक़ के तलब-गारों पर बे-इंतिहा लुत्फ़-ओ-शफ़क़त फ़रमाते हैं और आप की मेहरबानीयाँ मुझ ज़ईफ़ा पर तो बेहद और ला-निहायत हैं और जो करामात हज़रत-ए-वाला ने मुझ फ़क़ीरा-ए-नहीफ़ के हाल पर तवज्जोह फ़रमाते हुए लिखे हैं वो आप की बे-पायाँ तवज्जोहात-ओ-इनायात के आईनादार हैं। और उन की सतर सतर हकीमाना निकात और आरिफ़ाना असरात से मुज़य्यन और तौहीद-ओ-रुमूज़-ए-मारिफ़त को इस सराहत-ओ-वज़ाहत के साथ मुझे समझाया है जिस की तवक़्क़ो किसी भी बड़े मुर्शिद से किसी अदना मुरीद की तर्बीयत के सिलसिला में की जा सकती है और इस से मुझ ज़ईफ़ा को बेशुमार फ़ायदे मुयस्सर आए हैं।
मेरे मुर्शिद का तरीक़-ए-हक़, हक़-ए-मारिफ़त को दिल-नशीं-ओ-ख़ातिरनिशाँ बनाने में बे-नज़ीर-ओ-बे-मिसाल है और हज़रत की नज़र-ए-कीमिया असर में तासीर का ये रौशन उंसुर अतिया-ए-ख़ुदावंदी है। आप ने अक्सर तबर्रुकात भी इस फ़क़ीरा के लिए भेजे हैं।
और कश्मीर से वापसी में जब दो तीन दिन रह गए थे, पंज-शम्बा की रात को मैं हज़रत की सूरत-ए-मुबारक का तसव्वुर कर के मुराक़बा में बैठी और मैं ने दिल की आँखों से हज़रत-ए-वाला की शबीह-ए-मुबारक को देखा। इस हालत में हज़रत के दोश-ए-मुक़द्दस पर जो दुपट्टा पड़ा रहता है मैं ने उस के लिए इल्तिमास किया कि वो मुझे इनायत किया जाये। सुब्ह के वक़्त मैं ये चाहती थी कि हज़रत-ए-वाला की ख़िदमत में अ’रीज़ा लिख कर ये दर-ख़्वास्त करूँ कि वो दुपट्टा मुझे इनायत किया जाये।इतने में मेरा ख़्वाजा-सरा जिस का नाम प्राण है और जो हज़रत की ख़िदमत-ए-अक़्दस में आता जाता रहता है वो आया और उस ने कहा कि मैं कल शाम हज़रत की बारगाह में हाज़िर था कि आप ने नमाज़-ए-मग़रिब के बाद दुपट्टा उतारा और मुझे इनायत किया और फ़रमाया कि इसे फ़ुलां अज़ीज़ा को दे दिया जाये मैं ने फ़ौरन वो दुपट्टा ख़्वाजा-सरा से ले लिया, अपनी आँखों से लगाया और सर पर रखा। मुझे बेहद सुरूर-ओ-हुज़ूर हासिल हुआ।
अगरचे ये भी हज़रत-ए-वाला की एक करामत थी मगर हज़रत की ज़ात-ए-वाला सिफ़ात से ऐसे ख़्वारिक़-ए-आ’दत का ज़ुहूर कोई तअ’ज्जुब की बात नहीं। अल्लाह पाक ने मर्तबा-ए-विलायत और दर्जा-ए-करामत में जो क़ुव्वत-ओ-क़ुदरत मेरे मुर्शिद को अ'ता फ़रमाई है उस को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि आप जो चाहें वो कर सकते हैं और इस मर्तबा पर फ़ाइज़ हो कर आप की ज़ात से ख़्वारिक़ की नुमूद एक मा’नी में दुन हिम्मत और आप के दर्जात-ए-आ’लीया से फ़रो तर है।मेरे इशारे पर एक शायर ने हज़रत के बारे में ये रुबाई लिखी है:-
ऐ हस्ती-ए-तू हस्ती-ए-मुतलक़ गशत:
असरार-ए-निहां बर तू मुहक़्क़क़ गशत:
हाजत ज़े तू तो ख़्वास्त्न ज़े हक़ ख़्वास्त्न अस्त
चूँ जुमल: सिफ़ातत, सिफ़त-ए-हक़ गशत:
ऐ कि तेरी हस्ती गोया हस्ती-ए-मुतलक़ बन गई है और असरार-ए-इलाही तुझ पर मुहक़्क़क़ हो गए (ये तहक़ीक़ तुझे मा’लूम हो गए हैं) तुझ से कुछ माँगना गोया ख़ुदा से माँगना है इसलिए कि तेरी तमाम सिफ़ात हक़ तआ’ला की सिफ़ात बन गई हैं।
ये ज़ईफ़ा दोबार हज़रत की ज़यारत से फ़ैज़याब हुई है और अपने दीदा-ओ-दिल को हज़रत-ए-वाला के जमाल-ए-बा-कमाल से रौशन किया है। एक-बार अपने भाई के साथ और दुबारा जब मैं श्रीनगर से सफ़र-ए-लाहौर पर रवाना हुई थी। मैं ने अ’रीज़ा लिख कर हज़रत से इल्तिमास किया था ,कि चूँकि अब रवानगी तय हो चुकी है इसलिए दरख़्वास्त है कि हज़रत-ए-वाला करम फ़र्मा कर मुझे अपने दीदार-ए-फ़ैज़ आसार से मुशर्रफ़ फ़रमाएँ जिस से मुझे ज़ाहिर-ओ-बातिन के फ़ायदे हासिल हूँ।
हज़रत-ए-वाला ने इस फ़क़ीरा की दरख़्वास्त को कमाल-ए-शफ़क़त-ओ-इनायत के साथ क़ुबूल फ़रमाया। मेरी जान उस ख़ाक पर फ़िदा हो जो आप के घोड़े के सुमों से उड़ती है।
इस फ़क़ीरा-ए-ज़ईफ़ की पेशकश क़ुबूल फ़रमा कर और मेरी रवानगी के मौक़ा' पर उस राह के नज़दीक जहाँ से मुझ नाचीज़ को गुज़रना था एक तूत के दरख़्त के नीचे सुर्ख़ रंग का पट्टू बिछा कर आप बैठ गए। मैं ख़ुद हाथी पर सवार थी और अ’मारी में बैठी थी।
जब मैं इस दरख़्त के क़रीब पहुंची तो हाथी को ठहराया गया ताकि मैं उस मुर्शिद-ए-मेहरबान के जमाल-ए-जहाँ आरा को देख सकूँ, जो आसमान के चांद और चमकते हुए सूरज की तरह दुनिया को फ़ैज़ पहुंचाने वाला था। पर्दा-ए-अ’मारी से मैं ने अपने आरज़ू-ए-दीद और जज़्बा-ए-अ’क़ीदत से भरी हुई ख़्वाहिश के साथ हज़रत के चेहरा-ए-पुर-नूर का दीदार किया और फ़ुयूज़-ओ-बरकात से अपना दामन भरा।
हज़रत के उलू-ए-शान का मेरे दिल पर बहुत असर हुआ और आप की रौशन पेशानी से जो शुआएँ निकल रही थीं उन से मेरी आँखें ख़ीरा हुई जाती थीं और ग़लबा-ए-शौक़ की वजह से मेरा रोंगटा रोंगटा जैसे काँप रहा था जैसा कि इस रुबाई से भी ज़ाहिर होता है जो एक शख़्स ने मुझ ख़ाकसार-ए-बे-हक़दार के कहने के मुताबिक़ लिखी थी-
ऐ शाह कि मुल़्क-ए-आ’फ़ियत किशवर-ए-तुस्त
हर बख़िया-ए-दल्क़-ए-तू, सफ़-ए-लश्कर-ए-तुस्त
आईना-ए-हक़ नुमा बे-रू-ए-तू बूद
ख़ुर्शीद ख़जिल ज़े-पाकी-ए-गौहर-ए-तुस्त
ऐ बादशाह मुल्क-ए-आ’फ़ियत तेरी मुम्लिकत है और तेरी गुडरी का हर बख़िया तेरे शुक्र، फ़क़्र-ओ-दरवेशी की एक सफ़ है, तेरा चहरा-ए-मुबारक आईना-ए-हक़ नुमा है और तेरे गौहर-ए-ज़ात की पाकीज़गी-ओ-दरख़्शानी के मुक़ाबला में आफ़ताब-ए-सुब्ह ख़जिल नज़र आता है।
और उस वक़्त हज़रत-ए-वाला की ख़िदमत में तीन शख़्स हाज़िर थे। एक मुहम्मद हलीम जिसे आप ने अपनी फ़र्ज़ंदी के ख़िताब से अर्जुमंद-ओ-सरबुलंद फ़रमाया है और वह आप की तवज्जोहात की बरकत से कमाल-ए-इरफ़ान और तौहीद के मर्तबा-ए-बुलंद तक पहुंचा है और उसी के साथ वो कश्मीरी ख़ादिम जिन में से एक का नाम हसन और दूसरे का ख़िज़्र था। ये दोनों हज़रत के अ’क़ब में थे और हज़रत के घोड़े की लगाम उन में से एक के हाथ में थी। उस के बाद मैं ने एक शीशा-ए-गुलाब और पान के चंद बेड़े ख़्वाजा-सरा के हाथ हज़रत की ख़िदमत में भेजे और यह ख़्वाहिश की कि शीशा हज़रत-ए-वाला से उलूश करा के मेरे लिए वापस ले आएँ कि वो में मेरे दिल को सफ़ा-ए-ताज़ा बख़्शे। आलम-ए-ज़ाहिर में हज़रत की ख़िदमत से जुदा हो कर मैं चश्म-ए-गिर्यां और बे-क़रार दिल के साथ वहाँ से रवाना हुई।
उस के बाद हज़रत-ए-वाला भी अपने घोड़े पर सवार हो कर अपनी रिहाइश-गाह की तरफ़ रवाना हो गए और यह फ़क़ीरा-ए-ज़ईफ़ अपने अक़ीदा की इस दुई के साथ जो ईमान-ए-मुजमल-ओ-ईमान-ए-मुफ़स्सल में बयान हुई है, अल्लाह की वहदत और उस की यकताई पर ईमान-ए-कामिल रखती है जो तश्बीह-ओ-तमसील के रिश्ते से आज़ाद है जो पाक है, मुतलक़ है, ला-महदूद है, मुहीत है, अ’लीम है, क़दीर है, समीअ’-ओ-बसीर है वही अव्वल है वही आख़िर है, वही ज़ाहिर है और वही बातिन है और अपनी तमाम इलाही सिफ़ात के साथ हमेशा से है और हमेशा रहेगा, इस हक़ीक़त को बर-हक़ मानते हुए अपने पीर-ए-दस्तगीर की रहनुमाई पर ए’तिक़ाद-ए-रासिख़ रखती है।
और अल्लाह पाक का हज़ार हज़ार शुक्र है कि अपने पीर-ए-दस्तगीर और मुर्शिद-ए-कामिल की तवज्जोह की बरकत से मुझे ईमान-ए-हक़ीक़ी की दौलत मुयस्सर आ गई। और हक़ शनासी-ओ-इरफ़ान-ए-ज़ात की मंज़िल मिल गई जिस का मतलब ख़ुदावंद-ए-क़ुद्दूस की ज़ात को यकता-ओ-मुतलक़ मानना और उस की अज़ली-ओ-अबदी सिफ़ात को ला-निहायत-ओ-ला-महदूद तसव्वुर करना और यह समझ लेना कि एक दिन ये तमाम कायनात उसी की ज़ात-ए-वाहिद में सिमट जाएगी और उसी की हस्ती बाक़ी रहेगी जो वाजिबुल-वुजूद है।
इस के साथ मुझ पर ये हक़ीक़त भी रौशन हुई कि इन्सान को जिनों और फ़रिश्तों पर इसलिए फ़ज़ीलत दी गई है कि वो ज़ात-ए-बारी की शनाख़्त और उस की इलाही सिफ़ात की दरयाफ़्त की सलाहीयत रखता है अब जो इन्सान इस सलाहीयत से आ’री और शनाख़्त की इस क़ाबिलीयत से महरूम है वो इन्सान नहीं बल्कि क़ुरआन-ए-पाक के अल्फ़ाज़ में वो कल-अनआ’म में से है बल्कि उस से भी बद-तर है।
[उलाइका कल-अनआ’म बल हुम अज़ल्ल]
और उस की ज़िंदगी हेच है और उस का इन्सानी वुजूद लाया’नी ,उस के मुक़ाबले में जो ज़ात-ए-हक़ की शनाख़्त के उस मर्तबा पर फ़ाइज़ हो गया और उस सआ’दत-ए-उज़्मा से मुशर्रफ़ हुआ वही अफ़ज़ल-ए-मौजूदात और अशरफ़-ए-मख़लूक़ात बन गया। उस की हस्ती हस्ती-ए-मुतलक़ में गुम हुई, क़तरा समुंदर में मिल गया और ज़र्रा आफ़ताब का हिस्सा बन गया और जुज़्व, कुल में बदल गया। पस इस हालत में वो हुदूस, तसव्वुर-ए-अ’ज़ाब, सवाल-ओ-जवाब और बहिश्त-ओ-दोज़ख़ से छूट गया, सुब्हान-अल्लाह उम्मत-ए-सय्यद ख़ैरुलअ’नाम अलैहिस सलातुৃ वस्सलाम के औलिया-ए-किराम और फ़ुक़रा-ए-ज़वील एहतिराम का मर्तबा कितना बुलंद है जिन के लिए कहा गया है युहब्हुबुम व युहिब्बुनाहु मैं उन से मोहब्बत करता हूँ औ रवह मुझ से मोहब्बत करते हैं,।अब इस में औ’रत मर्द की कोई तश्ख़ीस नहीं।
[ज़ालिका फ़ज़्लुल्लाहि यूतिहि मय्यशायु ]
ये अल्लाह पाक का फ़ज़्ल है वो जिस को चाहे अ’ता कर दे और जो शख़्स कि ज़ात-ए-मुतलक़ से इशक़-ओ-मोहब्बत का रिश्ता रखता है चाहे वो मर्द हो या औरत हज़रत शैख़ फ़रीद उद्दीन अ’त्तार न राबिआ’ बस्री के लिए फ़रमाया है वो एक औरत होते हुए भी हज़ार मर्दों से बेहतर हैं कि वो सर से पांव तक दर्द-ए-इश्क़ में डूबी थीं और इस सआ’दत-ए-उज़मा और ने’मत-ए-आ’ली को इस फ़क़ीरा-ए-ज़ईफ़ ने अपने बिरादर-ए-आलीक़द्र,आरिफ़-ए-ज़ात-ओ-दाना-ए-सिफ़ात, मुहम्मद दारा शिकोह के वसीला से हासिल किया है।
ये आजिज़ा लुत्फ़-ए-ख़ुदावंदी से ये आरज़ू रखती है कि मेरे दिल में इश्क़-ओ-मोहब्बत का ये जज़्बा बढ़ता रहेगा। ये चंद शे’र इस ज़ईफ़ा ने बिना किसी फ़िक्र-ओ-ताअम्मुलके उन्हीं दिनों में मौज़ूँ किए थे जिन को इस रिसाला में तहरीर किया गया है।
आँहा हम: रा ज़ुहूर-ए-हक़ मी-बीनम
दानिस्त: यके जुमला सिफ़त मी-बीनम
नक़्श-ए-फ़ना बक़ास्त बे-रंगी-ए-यार
बे-रंग बशौ रंगहा रा म-शुमार
यार आमद दर बग़ल बे-मेहनत-ए-शबहा-ए-हिज्र
आशिक़-ओ-दीवान: बूदम इश्तियाक़म दाद अज्र
शौक़–ए-तू मरा दर बर, मी-गीरद-ओ-मी-मालद
हर लह्ज़:-ओ-हर लम्ह: ईं ज़ौक़-ए-तू मी-बालद
पीर-ए-मन-ओ-ख़ुदा-ए-मन दीन-ए-मन-ओ-पनाह-ए-मन
नीस्त कसे ब-ग़ैर-तू, शाह-ए-मन-ओ- इलाह-ए-मन
इमरोज़ नदीदेम कसे सानी-ए-तू
माऐम ब-रोज़-ए-ईद, क़ुर्बानी-ए-तू
ऐ शाह ज़े यक नज़र ब-कर्दी कारम
शाबाश ब-तू चिह् ख़ुश नमूदी, यारम
ख़ुशा हिज्रे कि बाशद आख़िरश वस्ल
ख़ुशा फ़रए कि गर्दद ऐन-ए-आँ अस्ल
तासीर ज़बान-ए-ख़ासा-ए-शाह-ए-मन अस्त
तक़दीर अ’यान-ए-ख़ासा-ए-माह-ए-मन अस्त
दरयाब रह-ए-कूच:-ए-आँ मुल्ला शाह
कू हस्त, ख़ज़ीना-दार-ए-तौहीद-ए-इलाह
(तर्जुमा)
मैं ज़ुहूर-ए-अश्या को ज़ुहूर-ए-हक़ीक़त समझती हूँ, वह-अस्ल हक़ीक़त तो एक और वाहिद है और बाक़ी जो कुछ है उस की इलाही सिफ़ात का परतव है और बस।
तू [रंगीन परछाइयों की सूरत] यार की क़ामत-ए-बे-रंगी पर नक़्श-ए-फ़ना की मिसाल है ख़ुद [पानी की तरह ] बेरंग हो जा और [धनक के से ] उन रंगों को मत शुमार कर।
शब-ए-हिज्र की बे-क़रारियों के ब-ग़ैर मेरा महबूब मेरी आग़ोश में आ गया मैं इश्क़ में दीवाना हो रहा था।मेरे इस शौक़-ए-फ़रावाँ और दिल-ए-बे-ताब ने मुझे ये अज्र अ’ता किया।
तेरा शौक़ मुझे अपनी आग़ोश में लेता है और मुझे छेड़ता है और उस के हर लम्हा और हर सानिया में तेरे जज़्ब-ए-शौक़ की बे-क़रारियाँ बढ़ती जाती हैं।
वो मेरे पीर हैं।मेरे ख़ुदावंद हैं और मेरी पनाह हैं और उन के मा-सिवा मेरा ना कोई शाह है ,ना ख़ुदावंद है।
आज मुझे कोई तेरा सानी नज़र नहीं आता, हम आज जानवरान-ए-ईद-ए-क़ुर्बां की तरह सर झुकाए हुए तेरे सामने खड़े हैं।
ऐ बादशाह तू ने एक नज़र में मेरी दुनिया बदल दी तुम पर हज़ार आफ़रीं कि तुम ने अपनी तवज्जोह-ए-ख़ास की ब-दौलत मुझे मेरे पीर-ए-रौशन ज़मीर की शक्ल दिखला दी।
वो जुदाई कितनी मुबारक है कि जिस का अंजाम वस्ल है और कैसी मुबारक है वह शाख़ कि वो फ़र्अ’ हो कर भी अपनी हक़ीक़त के ए’तबार से ऐ’न शजर हो।
तासीर-ए-ज़बान मेरे हज़रत मुल्ला शाह की ख़ुसूसीयत है और तक़रीर को तस्वीर बना देना उन के मा-सिवा किस को आता है कि उन का परतव-ए-जमाल माह-ए-दो हफ़्ता की तरह मेरे दिल को रौशन किए हुए है।
हज़रत मुल्ला शाह के कूचा की राह तलाश करो कि आज वही तो हैं जो तौहीद-ए-ज़ात और असरार-ए-इलाह के ख़ज़ीनादार हैं।
सन एक हज़ार इक्यावन हिजरा नबवी में माह-ए-रमज़ानुल-मुबारक की 27 वीं तारीख़ को इस मुख़्तसर रिसाला ने जिस का नाम साहिबिया है सूरत-ए-इतमाम पाई।
अगरचे इस रिसाला की मुवाल्लिफ़ा ये फ़क़ीरा बे-बिज़ाअत और बे-इस्तिताअ’त है लेकिन इस हक़ीक़त पर नज़र रखते हुए कि इस में मुर्शिद-ए-वाला मुल्ला शाह का अहवाल-ए-सआ’दत है [अल्लाह पाक उन को सलामत बा-करामत रखे ] इसलिए कहना चाहिए कि इस का हर्फ़ हर्फ़ गौहर-ए-यकता है और फ़िक़रा फ़िक़रा बेश-क़ीमत मोतीयों की लड़ी है जो मा’रिफ़त-ए-इलाही के रास्ते पर चलने वालों के सीना-ओ-गर्दन को ज़ीनत बख़्शती है।
मैं उम्मीदवार हूँ कि अहल-ए-मुता’ला को इस रिसाला के सफ़हात की सैर से फ़ाएदा-ए-तमाम हासिल होगा और इस ज़ईफ़ा-ए-नहीफ़ा और इस फ़क़ीर-ए-हक़ीर को जिस ने अपनी उम्र बे-मक़्सद ज़ाएअ की है इस तरह नवाज़ा जाएगा। अल्लाह पाक के सब पैग़म्बरों , तमाम सहाबियों और जमीअ’-ए-औलियाउल्लाह नीज़ मेरे मुर्शिद-ए-वाला, शैख़ उल-इस्लाम , सुल्तानुलमशाएख़, महबूब-ए-इलहाई हज़रत मुल्ला शाह की बरकत से दिन-ब-दिन –ओ-साअ’त ब-साअ’त मेरे दिल का ज़ौक़-ओ-शौक़ और मा’रिफ़त-ए-हक़ के लिए मेरी लगन बढ़ती रहेगी और हमा वक़्त इसी ख़याल-ओ-हाल में मुसतग़रक़ रहूंगी। [आमीन या रबब्ल आ’लमीन ]
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